डॉक्टर हेडगेवार जी के जीवन प्रेरक प्रसंग : वर्ष प्रतिपदा

डॉक्टर हेडगेवार जी के जीवन प्रेरक प्रसंग

१. ध्येय समर्पित जीवन 

विद्यालय में पढ़ते समय ही केशवराव (प. पू. डॉक्टर जी) का सम्पर्क क्रान्तिकारी आन्दोलन के साथ हो गया था। क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र उस समय बंगाल था। अतः डॉक्टर जी ने चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन हेतु कोलकाता जाने का निश्चय किया। कोलकाता में रहने की समुचित व्यवस्था हो सके इस हेतु डॉ मुजे ने कोलकाता स्थित "महाराष्ट्र लॉज" के लिए केशवराव को एक परिचय पत्र दे दिया। कोलकाता पहुँच कर जब ये "महाराष्ट्र लॉज" में गये तो वहाँ पता लगा कि रहने के लिए एक भी स्थान खाली नहीं है। महाराष्ट्र से ही आये कुछ अन्य विद्यार्थियों ने कुछ कमरे किराये पर लेकर अपने रहने की व्यवस्था कर रखी थी। उस स्थान को "शान्ति निकेतन" नाम दिया हुआ था। महाराष्ट्र लॉज के कार्यवाह ने केशवराव को शान्ति निकेतन भेज दिया। वहाँ भी यही स्थिति थी। एक भी स्थान रिक्त नहीं था। डॉ. मुजे द्वारा भेजे हुए व्यक्ति को टाला भी नहीं जा सकता था। अन्त में एक कमरे में दो चारपाइयों के बीच का स्थान केशवराव को दिलवाया गया। उस छोटे से कमरे में दो चारपाइयाँ बिछने के बाद थोड़ा स्थान ही बचता था। केशवराव ने उस छोटे स्थान में ही अपनी दरी बिछा ली और प्रसन्न भाव से कहा कि, "यह जगह तो मेरे लिए पर्याप्त है।"
ध्येय समर्पित जीवन कभी शारीरिक सुख-सुविधा की ओर अपनी दृष्टि नहीं करता। उनका ध्यान तो अपने ध्येय की ओर ही रहता है।


२. लोकसंग्रही व्यक्तित्व 

सन् १९३६ के शीत-शिविर की घटना है। नागपुर के अम्बाझरी मैदान में कार्यक्रम हो रहा था। सब ओर तम्बू लगे थे। डॉ. जी के लिए भी एक स्वतन्त्र तम्बू लगाया गया। उस तम्बू में एक व्यक्ति के लिए ही स्थान था। श्री परशुराम पन्त बड़िये के जिम्मे यह काम था कि रात्रि के समय सारी व्यवस्था देखना और उसके पश्चात् सोना। उसी के अनुसार रात्रि के १० बजे वे सारी व्यवस्थाएँ देख रहे थे। यह सब देखते हुए वे डॉक्टर जी के तम्बू के सामने पहुँचे। कड़ी ठण्ड थी, उस ठण्ड में डॉक्टर जी बाहर खड़े कहीं जाने की तैयारी में थे। पन्त जी शीघ्रता से उनके पास पहुँचे और पूछा, "आप इस समय कहाँ जा रहे हैं? मुझे बताइये।"
डॉक्टर जी ने हँसते हुए कहा, "उमरेड के मेरे मित्र अभी शिविर देखने आये हैं। ये बिस्तर साथ नहीं लाये थे। अतः मैंने उनको अपने बिस्तर पर जगह दी है। अब मैं देख रहा हूँ कि मेरी भी व्यवस्था हो सकती है ?"
श्री परशुराम पन्त ने अपना यह अनुभव बताते हुए लिखा कि मैं उनके हृदय की उदारता देखकर चकित रह गया। वे चाहते तो किसी को भी बुला उनकी व्यवस्था करवा सकते थे पर स्वयं चाहे कितनी भी कठिनाई में हों, दूसरे को कोई कष्ट न हो इसका उन्हें सदैव ध्यान रहता था।


३. भाषणों से नहीं स्वयं के व्यवहार से परिवर्तन 

संघ में होने वाले सारे कार्यक्रम यथासमय हों, इसके लिए परम पूज्य डॉक्टर जी का आग्रह रहा करता था। लोग समय पर आयें इसलिए ७.०० बजे के कार्यक्रम का समय ६.३० बजे बताया जाना उन्हें पसन्द नहीं था। जो समय निश्चित हो वह ठीक बताया जाये और उसी समय पर कार्यक्रम प्रारम्भ हो, यही वे आग्रह के साथ स्वयंसेवकों को बतलाते थे और कार्यक्रम समय पर करा भी लेते थे। एक बार गुरुपूजा का कार्यक्रम ७.०० बजे था। माननीय विश्वनाथराव केलकर नियोजित अध्यक्ष थे। वे समय पर नहीं आये। कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया गया। आश्चर्य यह है कि केलकर जी इससे बहुत सन्तुष्ट हुए। देरी से पहुँचने का दुःख उन्हें अवश्य हुआ किन्तु कार्यक्रम समय पर प्रारम्भ होने से उन्हें सन्तोष भी हुआ। परिणामतः बाद में वे सदा समय से ५.०० मिनट पूर्व कार्यक्रम में उपस्थित रहा करते थे। इस प्रकार भाषणों व नियमों से नहीं, प्रत्यक्ष व्यवहार से ही वे स्वयंसेवकों तथा संघ से सम्बन्धित जनता में परिवर्तन ला रहे थे।
डॉक्टर जी संघ के शिक्षा वर्गों में पूरे ४० दिन २४ घण्टे रहा करते थे। छोटी-छोटी बातों की ओर ध्यान देते हुए मार्गदर्शन करते। परोसने सी सामान्य बात में भी भाग लेते। संघ में सारा काम अपने हाथों करना चाहिये, इस ओर ध्यान भी आकर्षित करते। अपने लिए लगने वाले पाण्डाल स्वयं हमें ही खड़े करने चाहिये। जो-जो कार्य कर सकते हैं, उसे करें यह कह कर प्रोत्साहित करते। इससे धन तो कम लगता ही था, साथ ही काम क अनुभव भी प्राप्त होता था। आत्मनिर्भरता का पाठ स्वयंसेवक इस तरह सीख रहे थे। छोटे-बड़े का भेदभाव भी नष्ट होता जा रहा था। बिना भाषण दिये ही 'डिगनिटी ऑफ लेबर' का पाठ उन्हें याद हो गया।


४. समाज की चिन्ता 

एक सज्जन डॉक्टर जी से मिलने आये थे। बातचीत समाप्त हो चुकी थी। डॉक्टर जी ने उनको चाय पीने के लिए रुकने को कहा। घर के अन्दर पूज्य भाभी जी को आवाज देकर चाय बनाने के लिए कहा। काफी समय बीत गया किन्तु चाय नहीं आई। वे सज्जन कहीं जाने की जल्दी में थे। डॉक्टर जी ने उन्हें आग्रह के साथ कुछ देर और रुकने के लिए कहा। कुछ समय और बीत गया किन्तु चाय नहीं आई। मामला क्या है ? यह देखने के लिए डॉक्टर जी अन्दर गये। वहाँ एक पात्र में उबलता हुआ पानी और कोने में चुपचाप बैठी भाभी जी के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। डॉक्टर जी समझ गए। घर में आवश्यक सामान तो था ही नहीं, आवश्यक सामग्री खरीद लाने के लिए पैसे भी नहीं थे। डॉक्टर जी निकट की दुकान पर गये तथा स्वयं चाय का सामान लेकर आये। तब उन सज्जन को चाय पिलायी जा सकी। आर्थिक संकट का डॉक्टर जी से आरम्भ का साथ था। वे स्वयं शिक्षा से डॉक्टर थे तथा उस समय सम्पूर्ण मध्य प्रान्त में डॉक्टरों की संख्या १०० से अधिक नहीं थी। वे चाहते तो डॉक्टरी का व्यवसाय कर अपने
आर्थिक संकट को अच्छी प्रकार दूर कर सकते थे। किन्तु उन्हें सम्पूर्ण समाज की चिन्ता थी। न्यूनतम आवश्यकताओं का अभाव भी उनके राष्ट्र कार्य में बाधक नहीं हो पाया। इसी कारण वे इतना महान कार्य कर सके।


५. पारस्परिक स्नेह

एक बार डॉक्टर जी अपने ५-७ स्वयंसेवकों के साथ बड़े सबेरे रूईकर जी के घर पहुंचे। चाय-पान हो रहा था, साथ ही वार्ता भी। रूईकर जी ने संघ और डॉक्टर जी पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाया। डॉक्टर जी ने उसे अस्वीकार किया। उन्होने कहा, "आपमें और मुझमें वैसे कोई विशेष मतभेद नहीं। मैं आपको बहुत दिनों से और बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। क्या आप इसका प्रामाणिक उत्तर देंगे?"
रूईकर जी बोले, "मैंने आपसे अप्रामाणिक बातें कब की हैं? आप पूछिए, मैं अवश्य ही उत्तर दूंगा।"
डॉक्टर जी ने कहा, "मान लीजिए कि आज रात्रि को दो बजे किसी ने आपको नींद से जगाकर कह दिया कि रूईकर जी, भारत में फिर से एक बार शिवाजी का राज्य प्रारम्भ हो गया है,आपको कैसा लगेगा?"
रूईकर जी बोले, "अरे डॉक्टर, इसमें भी कोई पूछने की बात है? मैं तो फूला नहीं समाऊँगा। मिठाई बाटूँगा, त्यौहार मनाऊँगा।"
डॉक्टर जी ने मुस्कराते हुए पूछा, "तो बताइये आखिर आप ओर हममे क्या मतभेद है? हम तो वही त्यौहार मनाने की स्थिति निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं। हम यह बात स्पष्ट बोलते हैं, क्योंकि वह स्थिति निर्माण करने का आत्मविश्वास हममें है। आपका आत्मविश्वास टूट चुका है। आपका अपने समाज के प्रति विश्वास नहीं रहा। मुझे अपने समाज पर पूरा विश्वास है और कार्य करने की शक्ति भी।"
रूईकर जी स्तम्भित देखते रहे। इन सारी मुलाकातों से स्वयंसेवकों के ज्ञान में वृद्धि तो होती ही थी बल्कि आत्मविश्वास के साथ-साथ अन्यान्य नेताओं के प्रति आदर भी निर्माण होता था। बातचीत का ढंग कैसा होना चाहिए और मतभिन्नता के बाद भी पारस्परिक स्नेह सम्बन्ध कैसे हों? इसका संस्कार स्वयंसेवकों के मन पर होता रहा।


६. दल से बड़ा देश 

सन् १९३६ में महाराष्ट्र के फैजपुर नामक स्थान पर हुए कांग्रेस के अधिवेशन के समय कांग्रेस का झण्डा बीच में ही अटक गया। ध्वज स्तम्भ ८० फुट ऊँचा था और उस पर चढ़कर डोरी ठीक करने का साहस किसी का नहीं हो रहा था। सारा कार्यक्रम रुक गया था। तभी दर्शकों में से एक तरुण आगे आया और सरसराते हुए ध्वज स्तम्भ पर चढ़कर उसके अन्तिम छोर तक पहुँच गया और डोरी ठीक कर दी। ध्वज ऊपर चढ़ गया और सबने सन्तोष की साँस ली। उस तरुण की पं० जवाहरलाल नेहरू समेत सभी नेताओं ने बड़ी प्रशंसा की। उसका सम्मान करने की बात तय हुई। किन्तु तभी यह बात भी फैल गयी कि वह संघ का स्वयंसेवक है। बस नेहरू जी का उत्साह ठण्डा हो गया और सम्मान करने की योजना त्याग दी गयी।


वर्ष प्रतिपदा हेतु डॉक्टर जी के जीवन प्रसंग बिंदु 

प्रखर देशभक्ति

१. आठ वर्ष की अवस्था में रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के ६० वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्राप्त मिठाई को कूड़े के ढेर पर फेंक दिया।
२. जब हाई-स्कूल के विद्यार्थी थे, नील सिटी हाई-स्कूल में कुख्यात रिस्ले सर्कुलर के विरोध में आन्दोलन की योजना बनायी। स्कूल के निरीक्षण के समय 'वन्दे मातरम्' का उद्धोष। विद्यालय बन्द। 'वन्दे मातरम' कहना अपराध नहीं, अतः गर्दन हिलाकर भी दोष मानने से इन्कार। विद्यालय छोड़ दिया।
३. कोलकाता के नेशनल मेडिकल कॉलेज में प्रवेश, क्रान्तिकारी कार्य से सम्पर्क, मध्य भारत के क्रान्तिकारी कार्य के प्रमुख रहे। मध्य भारत कांग्रेस कमेटी के जनरल सैक्रेटरी बने। आजादी की लड़ाई में सहयोग हेतु समाचार पत्र निकाला। १९२१ में राजद्रोहात्मक भाषण के अपराध में १ वर्ष की सजा। १९३० में जंगल सत्याग्रह (यवतमाल में),९ मास का कठोर कारावास।


साहस,सहनशीलता और स्वाभिमान 

१. यवतमाल की सड़क पर घूमते समय वहाँ की प्रचलित प्रथा के अनुसार वहाँ के यूरोपियन कलेक्टर को प्रणाम करने से मना कर दिया।
२. १९२६ में नागपुर में मस्जिद के सामने स्वयं बाजा बजाना (साहस)।
३. कोलकाता में मित्र की चुनौती के उत्तर में उसको अपनी भुजा पर मुक्का मारने के लिए निमन्त्रित करना (सहनशीलता)।
४ निर्धन होने पर भी किसी से एक पैसे की सहायता स्वीकार नहीं की (स्वाभिमान)।


श्रेष्ठ-शील 

१. डॉक्टरी विरोधी लोगों ने गुण्डों को १०० रु. डॉक्टर जी को मारने के लिए दिये। दो-तीन दिन डॉक्टर जी की गतिविधि देखकर गुण्डों ने डॉक्टर जी के पैर छूकर क्षमा माँगी और सारी बात बता दी।
२. एक मित्र के लिए ५०० रुपये अपने विरोधी बैरिस्टर अभ्यंकर से माँगने जाना और बैरिस्टर अभ्यंकर का आश्वासन-पत्र (प्रामिसरी नोट) डॉ. हेडगेवार से लिखवाने से मना करना।


ध्येयनिष्ठा (जीवन लक्ष्य) 

१. डॉक्टरी पास करने पर मैडिकल कॉलेज के प्रधानाचार्य द्वारा ३०० रुपये की नौकरी के प्रस्ताव को "नौकरी करने का कोई विचार नही" कहकर अस्वीकार कर दिया।
२. विवाह के लिए अपने चाचा जी को पत्र लिखकर मना कर दिया। जीवन में जो कार्य अंगीकार किया है, उसमें परिवार चलाने का अवकाश नहीं। अतः किसी बालिका के जीवन का विनाश करने से कोई लाभ नहीं।


दृढनिश्चय 

१. अडेग्राम शादी में से अगले दिन प्रातःकाल की परेड में नागपुर पहुँचने के लिए बैलगाड़ी से बाजार आये। वहाँ से मोटर न मिलने पर २० मील दूर नागपुर पहुँचने के लिए पैदल चल दिये (कार्यक्रम के लिए आग्रह)।
२. १९३३ में नागपुर में २००० रुपये दक्षिणा हुई। १९३४ में लक्ष्य ४००० रुपये निश्चित किया। ३५०० रुपये दक्षिणा हो गयी। ५०० रुपये और होनी चाहिए इसके लिए चिन्तित देखकर एक मित्र ने कहा, "डॉक्टर, आपका ४००० लक्ष्य था, ३५०० तो आपने एकत्रित कर लिये याने लक्ष्य लगभग पूरा हो गया, फिर आप ५०० रुपये के लिए क्यो परेशान हैं?" डॉक्टर जी ने कहा, "महाशय जी, मुझमें यदि इतनी दृढता न होती तो मैं भी अन्य लोगों के समान एक बंगला खरीदकर आनन्द से जीवन व्यतीत करता।" अपने इस दृढ़ निश्चयी स्वभाव के कारण डॉक्टर जी ने उस वर्ष अन्त मे ४००० दक्षिणा पूरी करा ही डाली।


एक ही धुन

१. निरन्तर श्रम के परिणाम स्वरूप वज्र जैसी देह भी क्षीण होने लगी थी। पीठ में निरन्तर दर्द रहने लगा। जाड के दिनों में भी पसीने के कारण प्रतिदिन तीन बार बनियान बदलनी पड़ती थी।
२. बिहार में राजगिरी के जल के नैसर्गिक उष्ण कुण्ड में यदि कुछ समय स्नान किया जाये तो बहुत लाभ होगा, यह विचार कर डॉक्टर जी राजगिरी गये। राजगिरी में उपचार तो प्रारम्भ हो गया परन्तु डॉक्टर जी विश्राम न कर वहाँ आस-पास से आने वाले लोगों से घनिष्ठता बढ़ाने में जुट गये तथा उन्हें संघ कार्य समझाने का प्रयत्न करने लगे। नगर मे जाकर अनेक गणमान्य लोगों को भी संघ कार्य के बारे में बताने का उपक्रम उन्होंने चालू कर दिया। फिर आस-पास संघ कार्य कैसे प्रारम्भ किया जाये और बिहार में कार्यवृद्धि की दृष्टि से क्या किया जा सकता है, इस पर कार्यकर्ताओं की बैठकों में घण्टों विचार होता। परिणामस्वरूप राजगिरी ओर आस-पास अनेक स्थानों पर शाखाएँ प्रारम्भ हो गयी।
३. डॉक्टर जी के साथ आये कार्यकर्ता परेशान थे कि वे यहाँ उपचार कराने आये हैं अथवा संघ कार्य का विस्तार करने। परन्तु उन्हें तो एक ही धुन थी- संघ-कार्य-वृद्धि की।


परमपूज्य डॉक्टर जी के विशिष्ट गुण

1. जन्मजात देशभक्त :- 

पूजनीय डॉ. जी के बचपन की घटनाएँ – अँग्रेजी झण्डा किले से उतारने के लिए सुरंग खोदने का प्रयास करना, अँग्रेजों की महारानी के राज्यारोहण के वर्षगाँठ पर बैंटी मिठाई न खाना, उनके सम्मान में आयोजित समारोह में न जाना आदि डॉक्टर जी के जन्मजात देशभक्त होने के प्रमाण हैं। अपने देश को असीम प्यार करने के कारण ही वे देश की दशा से दुखी थे और उसे सुधारने के विभिन्न प्रयासों में लगे रहे। वे क्रांतिकारी भी रहे। कलकत्ता में पढ़ने भी वे इसी उद्देश्य से गए। कांग्रेस में खूब कार्य किया, जेल भी गए। पर उनकी प्रखर देशभक्ति ने उनके द्वारा संघ की स्थापना का महान कार्य कराया तथा अपने देश के प्रति कर्तव्य भाव और प्रेम के कारण ही उन्होंने अपना सारा जीवन इसी में खपा दिया। दुनिया के सब आकर्षण उन्होंने ठुकरा दिये। डॉक्टर जी दिन रात एक ही जाप किया करते थे, रट लगाते रहते थे कि कब और कैसे हिन्दू समाज संगठित होकर भारत सच्चे अर्थ में “हिन्दुस्थान” होगा। 1939 में डॉ. हेडगेवार जी कुछ सप्ताह नासिक में चिकित्सा के लिए रहे उस समय श्री गुरुजी उनके साथ थे। श्री गुरुजी ने देखा कि नींद में भी डॉ.जी के मुँह से जो शब्द निकलते थे, वे राष्ट्र कार्य की चिन्ता के ही रहते थे।

2. अद्भुत लोकसंग्रही :- 

डॉक्टर जी सदैव योग्य बंधुओं को ढूंढते और उन्हें संघ से जोड़ते रहते थे। जेल में भी अनेक सत्याग्रहियों को उन्होंने संघ का घटक बना लिया। नागपुर में जो भी सार्वजनिक कार्यक्रम, उत्सव आदि होते उनमें वे जाते और वहाँ जो भी व्यक्ति काम के नजर आते उन्हें अपने कार्य व विचार के घेरे में ले लेते। देश के बड़े-बड़े नेताओं से उनके स्नेह सम्बंध थे। वे डॉक्टर जी के चरित्र, व्यवहार और कार्य से प्रभावित थे। विरोधी समझे जाने वाले लोग भी डॉक्टर जी का सम्मान करते थे। अनेक तरुण डॉक्टर जी के आह्वान पर संघ कार्य के लिए निकल पड़े, यह डॉक्टर जी की अद्भूत लोकसंग्रही वृत्ति के कारण ही संभव हुआ। डॉक्टर जी दायित्व देकर कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाते रहते थे। वे संघ के संस्थापक थे, किन्तु, मैं नेता हूँ ऐसा भाव अथवा व्यवहार उनके द्वारा कभी भी प्रदर्शित नहीं होता था ।

3. दैनिक शाखा :- 

दैनिक शाखा डॉक्टर जी की अनुपम देन है। संघ संगठन का जो आश्चर्यजनक स्वरूप खड़ा हुआ है, इस दैनिक शाखा के कारण ही है। राजनैतिक क्षेत्र में शोध कार्य करने वाले एण्डरसन नामक एक अमरीकी लेखक कुछ वर्ष पहले भारत-भ्रमण पर आए। उन्होंने अमेरिकावासियों को संघ का परिचय करने के लिए ‘ब्रदरहुड इन सेफ्रन' (भगवे रंग भ्रातृभाव) नामक पुस्तक लिखी। उक्त विदेशी लेखक ने कांग्रेस दल ही नहीं अपितु भारतीय सेना को भी अधिक कार्यक्षम बनाने हेतु दैनिक शाखा पद्धति का अवलम्बन करने का सुझाव इस पुस्तक में दिया है। संघ स्वयंसेवकों के प्रतिदिन निर्धारित समय पर एकत्रित होने और दैनंदिन कार्यक्रमों को सुचारु रूप से सम्पन्न करने की इस प्रक्रिया से जिस संगठित शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, उसे देखकर लोक-नायक जयप्रकाश नारायण जैसे अनुभवी एवं तपे हुए समाजसेवकों को भी आखिरी दिनों में नया नारा देने का मोह हुआ कि “देश कार्य के लिए प्रतिदिन कम से कम एक घण्टा दीजिए।”

4. संघ वृति का निर्माण :- 

संघ-वृत्ति से व्यक्तियों को भरना हो, तो उसका उपाय बौद्धिक वर्ग, भाषण नहीं है। इस वृत्ति का निर्माण कैसे किया जाए, यह संघ-निर्माता का जीवन बतलाता है। अत्यन्त विशाल अन्तःकरण, स्वयंसेवकों पर माता-पिता से भी अधिक उत्कट और अलौकिक प्रेम, उज्ज्वल चारित्रय, अत्यन्त प्रखर कार्य-निष्ठा के कारण यह सम्भव हुआ। उनके अद्भुत स्नेह से अन्त:करण पूर्णत: विगलित होकर संस्कारित होता था। जिस प्रकार मूर्तिकार पाषाण में से मूर्ति का निर्माण करता है, उसी प्रकार अत्यन्त कुशलता से बुद्धि का कवच तोड़कर स्वयंसेवकों के मन पर संस्कार कर डॉक्टर जी ने उन्हें आकार दिया ।

डा.जी के सम्बंध में परम पूजनीय श्री गुरूजी का उद्बोधन :- 

“भावावेश में आकर एक सामान्य मनुष्य भी हुतात्मा बन सकता है। किन्तु दिनों-दिन शरीर को घुलाना तथा वर्षानुवर्ष अपने आपको कण-कण कर जलाते रहना केवल अवतारी पुरुष का ही काम है और हमारे सौभाग्य से ऐसी विभूति हम में निर्माण हुई.”

“डॉक्टर जी स्वयं एक अति उच्च आदर्श बन चुके थे और ऐसे महापुरुष के चरणों में जो नतमस्तक नहीं हो सकता, वह संसार में कुछ नहीं कर सकता। उनमें माँ का वात्सल्य, पिता का उत्तरदायित्व तथा गुरु की शिक्षा का समन्वय था। ऐसे महान व्यक्ति की पूजा करने में मुझे अतिशय गर्व मालूम होता है। डॉक्टर जी की पूजा व्यक्तिपूजा नहीं हो सकती और यदि कोई उसे व्यक्ति पूजा समझे तो भी उसमें अभिमान होगा |”

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