गीत व कविताएँ : वर्ष प्रतिपदा

गीत व कविताएँ : वर्ष प्रतिपदा 

Geet Kavita Varsh Pratipada


वर्ष प्रतिपदा हेतु एकल (गढ़वाली) गीत 

1. शुभ घड़ी शुभ दिन बार छ आज

शुभ घड़ी शुभ दिन बार छ आज, नववर्ष को त्यौहार छ आज ।
रंग-बिरंगा फूल खिल्यान, धरती कू शृंगार छ आज ॥

ये शुभ दिन ही ब्रह्माजीन, करी सृष्टि की सुन्दर रचना,
फैली उज्यालू तब चारों दिशि, पूरण ह्वे गिनि सबुका सुपना ।
सागर नदियाँ उच्च हिमालय, गाणा सबि मल्हार छ आज ॥१॥

राम-कृष्ण और धर्मराज कू, झूलेलाल-परशु-विक्रम कू,
दयानन्द-शंकर सन्तो अर, संघजनक केशव महान् कू ।
प्ररकमय जीवन दर्शन कू, मान दिवस सत्कार छ आज ॥२॥

मात शारदा, लक्ष्मी, काली, अर नवदुर्गा रूप धरीकी,
असुरमर्दिनी सिंहवाहिनी भक्तों कू भण्डार भरीकी ।
माँ अम्बे का उच्च भवन मा, जैकारों की दकार छ आज ॥३॥

काल की गणना सबसे पैली, भारत से ही विश्व मा फैली,
कर्म-ज्ञान-विज्ञान सभ्यता, धर्म, संस्कृति, यख की शैली ।
भारत भूमि भारत माँ की, होण लग्यीं जैकार छ आज ॥४॥


2. दीजिए आशीष अपना भावमय है याचना

दीजिए आशीष अपना भावमय है याचना

जीत ले जग का हृदय जो आपका वह शील अनुपम।
वज्र को नवनीत कर दे स्नेहमय वाणी सुधा सम।
मातृभू की वेदना जो आपके उर में पली थी।
अंश भी हमको मिले तो पूर्ण होवे साधना ॥१॥

आपकी ही प्रेरणा से ध्येय पथ पर बढ़ रहे हैं।
आपसे ज्योतित अनेकों दीप तिल-तिल जल रहे हैं।
राष्ट्रजीवन का गहन तम शीघ्र ही मिटकर रहेगा।
सुप्त हिन्दू राष्ट्र को दी आपने नवचेतना ॥२॥

मार्ग संकटपूर्ण है पर आप हैं जब मार्गदर्शक।
शूल भी होंगे सुमन जब जी रहे हैं कोटिसाधक।
दीजिए वह शक्ति जिससे बढ़ सकें पथ पर निरन्तर।
कर सकें साकार ऋषिवर आपकी हम कल्पना ॥३॥


गीत- 1

हम केशव के अनुयायी हैं, हमने तो बढ़ना सीखा है।

लक्ष्य दूर है, पथ दुर्गम है, किन्तु पहुंचकर ही दम लेंगे।
बाधाओं के गिरि शिखरों पर, हमने तो चढ़ना सीखा है ॥१॥

ख्याति प्रतिष्ठा हमें न भाती, केवल माँ की कीर्ति सुहाती।
माता के हित प्रतिपल जीवन, हमने तो जीना सीखा है ॥२॥

अंधकार में बन्धु भटकते, पंथ बिना व्याकुल दुःख सहते।
पथ-दर्शक दीपक बन तिल-तिल, हमने तो जलना सीखा है ॥३॥

तृषित जनों को जीवन देंगे, शस्य-श्यामला भूमि करेंगे।
सुरसरि देने हिमगिरि के सम, हमने तो गलना सीखा है ॥४॥

धरती को सुरभित कर देंगे, हे माँ हम मधु ऋतु लायेगे।
शूलों में भी सुमनों के सम, हमने तो खिलना सीखा है ॥५॥


गीत- 2

व्यक्ति व्यक्ति में जगाया देशभक्ति का ज्वार।

देश परतन्त्र था व्याप्त षडयन्त्र था,
मुक्ति पाने का दिखता न तो तन्त्र था।
संगठन मन्त्र से जोडे जन-मन के तार ॥१॥

जाति-भाषा में थे देश के जन बटे,
अपनी संस्कृति व मूल्यों से थे हम कटे।
हिन्दुजन के हृदय में बहाई गंगधार ॥२॥

आत्मगौरव से हत आत्मविस्मृत थे हम,
आत्मकेन्द्रित था जीवन न था अपनापन ।
भ्रमित-मन में भरा संघ-गीता का सार ॥३॥

माँ का क्रंदन सुना मार्ग अद्भुत चुना,
संघ की सृष्टि से सूत्र अनुपम बुना।
विश्व में फिर हुई भरतभू की जयकार ॥४॥


गीत- 3

हम सभी का जन्म तव प्रतिविम्ब सा बन जाय,
और अधूरी साधना चिर पूर्ण बस हो जाय।

बाल्य जीवन से लगाकर अन्त तक की दिव्य झॉकी।
मूक आजीवन तपस्या जा सके किस भाँति ऑकी।
क्षीर सिंधु अथाह, विधि से भी न नापा जाय।
चाह है उस सिंधु की हम बूंद ही बन जाय ॥१॥

थे अकेले आप लेकिन बीज का था भाव पाया।
बो दिया निज को अमरवट संघ भारत में उगाया।
राष्ट्र ही क्या अखिल जग का आसरा हो जाय।
और उसकी हम टहनियाँ-पत्तियाँ बन जाएँ ॥२॥

आप के दिल की कसक हो वेदना जागृत हमारी।
याचि देही, याचि डोला' मंत्र रटते हैं पुजारी।
बढ़ रहे हम आप का आशीष स्वर्गिक पाय।
जो सिखाया आपने प्रत्यक्ष हम कर पाएँ।
साधना की पूर्ति फिर लवमात्र में हो जाय ॥३॥


गीत- 4

राष्ट्र की जय चेतना आई तुम्हारा रुप लेकर
पुण्य पावन सन्तवाणी आ गई तव मूर्ति बनकर

सिन्धु से हम शैल तक आक्रांत थी यह हिन्दु भूमि
रक्त-रंजित हो गई थी पुण्य पावन देवभूमि
मिट गये थे राजदीपक और था गहरा अँधेरा
व्यथित माता ने तभी तो भगवती को था पुकारा
ध्वंस के अंधेरे में तुम आ गये थे भोर बनकर
पुन्य पावन सन्तवाणी॥१॥

यवन चरणों से व्यथित जब जन-विजन और देवमंदिर
आत्म-विस्मृति के भँवर में फँस गये थे श्रेष्ठ नरवर
मत्त यवनों को हराया खड्ग की तेजस्विता ने
दासता की वृत्ति को भी बदल डाला था तुम्ही ने
रघुवंश का ही शौर्य मानों आ गया था रुप लेकर
पुन्य पावन सन्तवाणी॥ २॥

हिन्दु जीवन को मिटाना यवन सारा चाहता था
किन्तु हमको तो तुम्हीं ने राजसिंहासन दिया था
ले तुम्हारा रुप लेकर देव के वरदान आये
सब पराजय की मलिनता शुध्द करके विजय लाये
विजय् मानो आ गया था ले तुम्हारा रुप लेकर
पुन्य पावन सन्तवाणी॥३॥


गीत- 5

संघ मंत्र के हे उद्गाता, अमिट हमारा तुमसे नाता

कोटि-कोटि नर नित्य मर रहे, जब जग के नश्वर वैभव पर
तब तुमने हमको सिखलाया, मर कर अमर बने कैसे नर
जिसे जन्म दे बनी सपूती, शस्य श्यामला भारत माता ॥१॥

क्षण-क्षण तिल-तिल हँस-हँस जलकर, तुमने पैदा की जो ज्वाला
ग्राम -ग्राम में प्रान्त-प्रान्त में, दमक उठी दीपों की माला
हम किरणें हैं उसी तेज की, जो उस चिर जीवन से आता॥२॥

श्वास-श्वास से स्वार्थ त्याग की, तुमने पैदा की जो आँधी
वह न हिमालय से रुक सकती, सागर से न जायेगी बाँधी
हम झोंके उस प्रबल पवन के, प्रलय स्वयं जिससे थर्राता ॥३॥

कार्य चिरंतन तव अपना हम, ध्येय मार्ग पर बढ़ते जाते
पूर्ण करेंगे दिव्य साधना, संघ-मन्त्र मन में दोहराते
अखिल जगत में फहरायेंगे, हिन्दु-राष्ट्र की विमल पताका ॥४॥


गीत- 6

श्रद्धा से हम आज तुम्हारे, सम्मुख मस्तक-नत है
कर्मवीर योगी हे केशव, नमन तुम्हे शत-शत है॥

संगठना के पुण्यकार्य में कण-कण होम किया था
हिन्दुराष्ट्र है भारत, तुमने यह उद्घोष किया था
निश्चित सब संसार कहेगा यही सनातन सत् है ॥१॥

उपदेशों से नहीं, कर्म से तुमने राह दिखायी
लाखो कण्ठ से स्वर गूंजा-हम सब हिंदु भाई 
मातृभूमि है, पितृभूमि है, पुण्यभूमि भारत हैं ॥२॥


गीत- 7

हमें वीर केशव मिले आप जब से, नई साधना की डगर मिल गई है॥

भटकते रहे ध्येय-पथ के बिना हम, न सोचा कभी देश क्या धर्म क्या है
न जाना कभी पा मनुज-तन जगत में, हमारे लिये श्रेष्ठतम कर्म क्या है
दिया ज्ञान जबसे मगर आपने है, निरंतर प्रगति की डगर मिल गई है ॥१॥

समाया हुआ घोर तम सर्वदिक् था, सुपथ है किधर कुछ नहीं सूझता था
सभी सुप्त थे घोर तम में अकेला, ह्रदय आपका हे तपी जूझता था
जलाकर स्वयं को किया मार्ग जगमग, हमें प्रेरणा की डगर मिल गई ॥२॥

बहुत थे दुःखी हिन्दु निज देश में ही, युगों से सदा घोर अपमान पाया
द्रवित हो गये आप यह दृश्य देखा, नहीं एक पल को कभी चैन पाया
ह्रदय की व्यथा संघ बनकर फुट निकली, हमें संगठन की डगर मिल गई है॥३॥

करेंगे पुनः हम सुखी मातृ भू को, यही आपने शब्द मुख से कहे थे
पुनः हिन्दु का हो सुयश गान जग में, संजोये यही स्वप्न पथ पर बढ़े थे
जला दीप ज्योतित किया मातृ मन्दिर, हमें अर्चना की डगर मिल गई है ॥४॥



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