के सी सुदर्शन जी


कुप्पाहाली सीतारमय्या सुदर्शन का जन्म 18 जून 1931 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में एक कन्नड़ भाषी परिवार में हुआ था। के एस सुदर्शन के पिता श्री सीतारामैया वन-विभाग की नौकरी के कारण अधिकांश समय मध्यप्रदेश में ही रहे और वहीं श्री सुदर्शन जी का जन्म हुआ। सुदर्शन मूलतः तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे। कन्नड़ परम्परा में सबसे पहले गांव, फिर पिता और फिर अपना नाम बोलते हैं। तीन भाई और एक बहिन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। सुदर्शन की प्रारंभिक शिक्षा रायपुर, दामोह, मंडला और चंद्रपुर में हुई। महज 9 साल की उम्र में ही उन्होंने पहली बार आरएसएस शाखा में भाग लिया। उन्होंने वर्ष 1954 में जबलपुर के सागर विश्वविद्यालय (इंजीनिरिंग कालेज) से दूरसंचार विषय (टेलीकाम/ टेलीकम्युनिकेशंस) में बी.ई की उपाधि प्राप्त कर प्रारम्भिक जिला, विभाग प्रचारक आदि की जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाने के बाद वो 1964 में 23 साल की उम्र में पहली बार सुदर्शन आरएसएस के पूर्णकालिक प्रचारक बने। संघ में परंपरा है कि पूर्णकालिक प्रचारक विवाह नहीं करते हैं। उन्होंने भी इस परंपरा का निर्वाह करते हुए सारा जीवन देश और संगठन को समर्पित कर दिया। सर्वप्रथम उन्हें रायगढ़ भेजा गया। बाद में वे मध्य प्रदेश के प्रांत प्रचारक बने। इसके बाद संघ में उन्होंने कई तरह की अहम जिम्मेदारियां संभाली। 1969 में उन्हें ऑल इंडिया आर्गेनाइजेशन का कंवेनर बनाया गया। वह इस पद पर क़रीब उन्नीस वर्ष तक रहे।

श्री सुदर्शन जी को संघ-क्षेत्र में जो भी दायित्व दिया गया, उसमें अपनी नव-नवीन सोच के आधार पर उन्होंने नये-नये प्रयोग किये। 1969 से 1971 तक उन पर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व था। इस दौरान ही खड्ग, शूल, छुरिका आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर नियुद्ध, आसन, तथा खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक पाठ्यक्रम में स्थान मिला। आज तो प्रातःकालीन शाखाओं पर आसन तथा विद्यार्थी शाखाओं पर नियुद्ध एवं खेल का अभ्यास एक सामान्य बात हो गयी है। आपातकाल के अपने बन्दीवास में उन्होंने योगचाप (लेजम) पर नये प्रयोग किये तथा उसके स्वरूप को बिल्कुल बदल डाला। योगचाप की लय और ताल के साथ होने वाले संगीतमय व्यायाम से 15 मिनट में ही शरीर का प्रत्येक जोड़ आनन्द एवं नवस्फूर्ति का अनुभव करता है। 1977 में उनका केन्द्र कोलकाता बनाया गया तथा शारीरिक प्रमुख के साथ-साथ वे पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक भी रहे। इस दौरान उन्होंने वहाँ की समस्याओं का गहन अध्ययन करने के साथ-साथ बांग्ला और असमिया भाषा पर भी अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया। 1979 में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। शाखा पर बौद्धिक विभाग की ओर से होने वाले दैनिक कार्यक्रम (गीत, सुभाषित, अमृतवचन) साप्ताहिक कार्यक्रम (चर्चा, कहानी, प्रार्थना अभ्यास), मासिक कार्यक्रम (बौद्धिक वर्ग, समाचार समीक्षा, जिज्ञासा समाधान, गीत, सुभाषित, एकात्मता स्तोत्र आदि की व्याख्या) तथा शाखा के अतिरिक्त समय से होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को सुव्यवस्थित स्वरूप 1979 से 1990 के कालखंड में ही मिला। शाखा पर होने वाले ‘प्रातःस्मरण’ के स्थान पर नये ‘एकात्मता स्तोत्र’ एवं ‘एकात्मता मन्त्र’ को भी उन्होंने प्रचलित कराया। सुदर्शन जी अच्छे वक्ता के साथ ही अच्छे लेखक भी थे। यद्यपि प्रवास के कारण उन्हें लिखने का समय कम ही मिल पाता था, फिर भी उनके कई लेख विभिन्न पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित किये। अपने धाराप्रवाह उद्बोधन में दोहे, कुंडली, श्लोक तथा कविताओं के उद्धरण देकर वे श्रोताओं के मन पर अमिट छाप छोड़ते थे। सुदर्शन जी का आयुर्वेद पर बहुत विश्वास था। लगभग 20 वर्ष पूर्व भीषण हृदयरोग से पीड़ित होने पर चिकित्सकों ने बाइपास सर्जरी ही एकमात्र उपाय बताया; पर सुदर्शन जी ने लौकी के ताजे रस के साथ तुलसी, काली मिर्च आदि के सेवन से स्वयं को ठीक कर लिया। कादम्बिनी के तत्कालीन सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी सुदर्शन जी के सहपाठी थे। उन्होंने इस प्रयोग को दो बार कादम्बिनी में प्रकाशित किया। अतः इस प्रयोग की देश भर में चर्चा हुई।

सुदर्शन जी ज्ञान के भंडार, अनेक विषयों एवं भाषाओं के जानकार तथा अद्भुत वक्तृत्व कला के धनी थे। किसी भी समस्या की गहराई तक जाकर, उसके बारे में मूलगामी चिन्तन कर उसका सही समाधान ढूंढ निकालना उनकी विशेषता थी। पंजाब की खालिस्तान समस्या हो या असम का घुसपैठ विरोधी आन्दोलन, अपने गहन अध्ययन तथा चिन्तन की स्पष्ट दिशा के कारण उन्होंने इनके निदान हेतु ठोस सुझाव दिये। साथ ही संघ के कार्यकर्ताओं को उस दिशा में सक्रिय कर आन्दोलन को ग़लत दिशा में जाने से रोका। पंजाब के बारे में उनकी यह सोच थी कि हिन्दू और सिखों में कोई अंतर नहीं है। हर केशधारी हिन्दू है तथा प्रत्येक हिन्दू दसों गुरुओं व उनकी पवित्र वाणी के प्रति आस्था रखने के कारण सिख है। इस सोच के कारण खालिस्तान आंदोलन की चरम अवस्था में भी पंजाब में गृहयुद्ध नहीं हुआ। इससे आंदोलन के विदेशी आकाओं को बहुत निराशा हुई। खालिस्तान आन्दोलन के दिनों में "राष्ट्रीय सिख संगत" नामक संगठन की नींव रखी गई,  जो आज विश्व भर के सिखों का एक सशक्त मंच बन चुका है। आरएसएस के मुखिया के तौर पर वे हमेशा तुष्टीकरण के खिलाफ रहे, लेकिन मुसलमानों के भारतीयकरण के पक्षधर। उनकी ही प्रेरणा से राष्ट्रीय मुस्लिम मंच का गठन हुआ। प्रख्यात स्तंभकार मुज्ज्फफर हुसैन हों या बुजुर्ग नेता आरिफ बेग, सुदर्शन जी के साथ इस्लाम के विषय पर घंटों चर्चा करते थे। वे मुसलमानों को न सिर्फ उदार बल्कि शिक्षित, सहिष्णु और राष्ट्रवादी बनाने के लिए भी फिक्रमंद थे। यही कारण है कि मुसलमानों के बीच एक बड़ा वर्ग तैयार हुआ है जो राममंदिर आंदोलन का समर्थन, गोरक्षा के लिए केन्द्रीय कानून बनाने का आग्रह, रामसेतु विध्वंस का विरोध, अमरनाथ यात्रा में हिन्दुओं के अधिकारों का समर्थन और आतंकवादियों को फांसी देने की मांग करता है। मुसलमानों में ऎसा नेतृत्व उभर रहा है, जो हर बात के लिए पाकिस्तान या अरब देशों की ओर नहीं देखता। इस लिहाज से मुसलमानों के मामले में सुदर्शन जी को प्रगतिशील कहा जा सकता है।

सुदर्शन क़रीब छह दशकों तक आर एस एस प्रचारक रहे। 1990 में उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी। देश का बुद्धिजीवी वर्ग, जो कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता के कारण वैचारिक संभ्रम में डूब रहा था, उसकी सोच एवं प्रतिभा को राष्ट्रवाद के प्रवाह की ओर मोड़ने हेतु ‘प्रज्ञा-प्रवाह’ नामक वैचारिक संगठन भी आज देश के बुद्धिजीवियों में लोकप्रिय हो रहा है। इसकी नींव में श्री सुदर्शन जी ही थे। संघ-कार्य तथा वैश्विक हिन्दू एकता के प्रयासों की दृष्टि से उन्होंने ब्रिटेन, हालैंड, केन्या, सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड, हांगकांग, अमेरिका, कनाडा, त्रिनिडाड, टुबैगो, गुयाना आदि देशों का प्रवास भी किया। संघ कार्य में सरसंघचालक की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। चौथे सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह को जब लगा कि स्वास्थ्य खराबी के कारण वे अधिक सक्रिय नहीं रह सकते, तो उन्होंने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श कर 10 मार्च, 2000 को अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में श्री सुदर्शन जी को यह जिम्मेदारी सौंप दी। 16 जनवरी 2009 को मेरठ के शोभित विश्वविद्यालय ने उनको डॉक्टर आफ आर्ट्स की मानद उपाधि से विभूषित किया था। नौ वर्ष बाद सुदर्शन जी ने 21 मार्च, 2009 को सरकार्यवाह श्री मोहन भागवत को छठे सरसंघचालक का कार्यभार सौंप दिया। सुदर्शन संघ प्रमुख के पद से हटने के बाद से भोपाल में रह रहे थे और संघ के विभिन्न कार्यों में मार्गदर्शक की भूमिका में थे।

वे अपना अधिक समय ग्राम विकास, हिन्दी के विकास और विस्तार, तकनीकों के स्थानीकरण और उसे लोकोपयोगी बनाने के रचनात्मक काम में लग गए थे। अगर कोई उनसे मिलने जाता तो पहले तो वे उससे परंपरागत तकनीक और देशभर में हो रहे सैकड़ों प्रयोगों के बारे में घंटों बताते। फिर अपने पास संग्रहित दसियों माडल बताते। ग्राम विकास, कृषि, गौ-पालन और उर्जा आदि के देशज और परंपरागत अनुभवों और जानकारियों के बारे में बात करके कोई भी उन्हें अपना प्रशंसक बना सकता था। डिमेंशिया से पीडि़त सुदर्शन कुछ समय से बीमार चल रहे थे और उनकी देखभाल के लिए एक अटेंडेंट रखा गया था। वह 13 सितंबर से रायुपर प्रवास पर थे। उन्होंने पूर्व सांसद गोपाल व्यास द्वारा लिखित पुस्तक ‘सत्यमेव जयते’ का विमोचन 14 सितम्बर 2012 को किया था। के एस सुदर्शन का 15 सितम्बर 2012 को रायपुर में दिल का दौरा पड़ने से निधन हुआ था। वह 81 वर्ष के थे। सुदर्शन जी का सुबह लगभग 6:30 बजे आर एस एस के प्रांतीय कार्यालय जागृति मंडल में निधन हुआ। वह रोज की तरह सुबह सैर करके आर.एस.एस के दफ़्तर में आकर बैठे थे, तभी उन्हें दिल का दौरा पड़ गया। वह काफ़ी लंबे समय से बीमार चल रहे थे। डॉक्टरों ने बताया कि उन्होंने उस समय अंतिम सांस ली जब वह सुबह के समय 40 मिनट की नियमित सैर के बाद अपने कक्ष में प्राणायाम कर रहे थे। मरने से पूर्व उन्होंने अपनी आंख माधव आई बैंक को दान में दे दी थी।
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