संघ एक परिचय

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संघ एक परिचय

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने सन् 1925 में विजयदशमी के दिन की। रा. स्व. संघ आज देश का ही नहीं अपितु विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है। परन्तु फिर भी, जो लोग अभी उसके प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्पर्क में नहीं आये हैं, उन्हें उसके बारे में वास्तविक जानकारी अधिक नहीं है। अनेक लोगों के मन में तो कुछ भ्रम भी संघ के बारे में फैले हुए हैं। इसके दो कारण हैं : एक, संघ की कार्य-पद्धति प्रचार और जनान्दोलन की न होकर व्यक्ति-व्यक्ति को, एक-एक करके, व्यक्तिगत सम्पक और मित्रता के द्वारा होने वाली सहज-स्वाभाविक जानकारी के साथ संगठन से जोड़ने की रही है। इससे संगठन से जुड़ने या उसके सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति ही उसे भली भाँति जान पाते थे। दूसरे, संघ के सदस्यों की निरन्तर बढ़ती संख्या को देखकर उसकी शक्ति को अपने लिए सम्भावित संकट मानने वाले राजनीतिक लोग जानबूझकर उसके बारे में अनेक असत्य बातें गढ़कर विरोध-अभियान चलाते रहे। जिससे संघ के बारे में भ्रामक स्थिति बनी। इसलिए जनसामान्य को वास्तविकता का पता तभी चलता था जब वे इस संगठन को निकट से देखते या इसके सम्पर्क में आते थे। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक एवं अन्य आपदाओं के समय स्वयंसेवकों द्वारा किये जाने वाले सेवाकार्य भी लोगों की दृष्टि में आते हैं। इन सब बातों से संघ के विरोध में फैलाया गया भ्रम कम होता जा रहा है और उसके साथ ही संघ के बारे में लोगों की जिज्ञासा बढ़ रही है। अब संघ से अनभिज्ञ लोग भी यह जानना चाहते हैं कि संघ वास्तव में क्या है जो आज यह राष्ट्र की बहुत बड़ी सृजनात्मक शक्ति बनकर सामने खड़ा है?


प्रेरणा-स्रोत

भारत में 1947 के पश्चात् जन्मे लोगों ने भले ही एक खण्डित किन्तु स्वतन्त्र देश में आँखें खोली हों, परन्तु उससे पूर्व लगभग एक हजार वर्षों तक इस देश को पराधीनता की कष्टपूर्ण व्यवस्था भोगनी पड़ी, बर्बर अत्याचार और अमानवीय शोषण सहन करना पड़ा। इस्लामी आक्रमणकारियों के दमनकारी शासन के साथ शताब्दियों तक संघर्ष के पश्चात् पूर्ण स्वतन्त्रता के लिए परिस्थिति अनुकूल बनती दिखाई दी तो अंग्रेजों ने उस सम्भावना को समाप्त कर दिया। पराधीनता और विस्तृत हो गयी। अन्तर इतना ही पड़ा कि क्रूर बर्बरता का स्थान विधानपरक (कानून बनाकर) शोषण ने ले लिया। उस पराधीनता के विरुद्ध देशप्रेमी व स्वाभिमानी भारतीयों ने अविराम संघर्ष किया, परन्तु वैसी राष्ट्र-चेतना यदि सभी देशवासियों में होती तो देश कभी पराधीन ही न होता। अतएव स्वाधीनता-संघर्ष में गहरे उतरने के साथ-साथ डॉ. केशवराव हेडगेवार का मानस उस कारण का निवारण ढूंढने में भी लगा, जो देश की परतन्त्रता के लिए उत्तरदायी था। स्वाधीनता-संघर्ष के अनेक अनुभवों सहित परिस्थिति के गहन विश्लेषण और सोच-विचार के पश्चात् डॉ. हेडगेवार ने भारत की स्वाधीनता के लिए प्रयास के साथ-साथ उस स्वतंत्रता को स्थायित्व प्रदान करने तथा भारत को परम वैभव-सम्पन्न अजेय राष्ट्र बनाने के लिए यहाँ के राष्ट्रीय समाज को संगठित करने का दायित्व हाथ में लिया और इसी चिन्तन-मनन का प्रतिफल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में प्रकट हुआ।


सगठन-बल

संगठन क्या है? इसे स्पष्ट करते हुए डॉ. हेडगेवार ने कहा- “किसी भी राष्ट्र का सामर्थ्य उसके संगठन के आधार पर निर्मित होता है। बिखरा हुआ समाज तो एक जमघट मात्र है। 'जमघट' और 'संगठन' दोनों शब्द समूहवाचक हैं, फिर भी दोनों का अर्थ भिन्न है। जमावड़े में अलग-अलग वृत्ति के और परस्पर कुछ भी सम्बन्ध न रखने वाले लोग होते हैं, किन्तु संगठन में अनुशासन, अपनत्व और समाज-हित के सम्बन्ध-सूत्र होते हैं जिनमें अत्यधिक स्नेहाकर्षण होता है। परन्तु जिस पदार्थ के अणु संगठित नहीं होते, उसका नाश शीघ्र होता है। यह सीधा-सरल तत्व ध्यान में रखकर समाज को संगठित और शक्तिशाली बनाने के लिए संघ ने जन्म लिया है।”


संगठन-बल किसलिए ?

डॉक्टर जी कहते हैं- “दुर्बल को सबल से छिपकर रहना पड़ता है अथवा उसके चंगुल में फंसकर उसका दास बनकर जीवन बिताना पड़ता है। इसके लिए सबल को दोष देने का कोई अर्थ नहीं। शक्तिवान और महत्वाकांक्षी को आक्रामक बनने के लिए प्रोत्साहन या प्रेरणा कौन देता है? दुर्बल समाज। दुर्बलता महापाप है। विश्व के ऊपर मँडराने वाली विभिन्न विपत्तियों का सामना करने के लिए बलिष्ठ व संगठित समाज ही उपाय है। हमें दूसरों पर आक्रमण करने, उन्हें समाप्त करने या उनकी सम्पत्ति हड़प कर धनी बनने के लिए संगठन नहीं करना है। वह दूसरों की अन्यायपूर्ण व आक्रामक वृत्ति को नष्ट करने के लिए होगा। आक्रमण रूपी महामारी के लिए संगठन एक रोग-निवारक टीका है।..... यदि अन्य समाज हमारे ऊपर आक्रमण नहीं करेंगे तो हमारी शक्ति से उन्हें कोई बाधा नहीं पहुँचेगी। अत: संघ का ध्येय अपने धर्म, अपने समाज और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए हिन्दुओं (भारत को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने वालों) का सक्षम संगठन करना है। उससे हमारा खोया आत्मविश्वास पुन: जाग्रत होगा और उसके सामथ्र्य के सामने आक्रामकों की उद्दण्ड प्रकृति ढीली पड़ेगी तथा वे हमारे ऊपर आक्रमण करने का फिर सोच भी नहीं पायेंगे।”


संगठन-कार्य क्या है?

इस सम्बन्ध में संघ-संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का कहना था कि एक भारवाहक (कुली) या श्रमिक जो अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए बोझ ढोता है, वह स्वार्थी नहीं हो सकता। स्वार्थी होता तो केवल अपना पेट भरने की सोचता और शेष समय आराम करता। परन्तु वह परिवार के अन्य सदस्यों का भी पोषण करने के लिए कठिन परिश्रम करता है और यह सब वह उन पर उपकार करने की भावना से भी नहीं करता, उनके प्रति आत्मीयभाव (अपनापन) होने के कारण करता है। ऐसे व्यक्ति को स्वार्थी या संकीर्ण मानसिकता वाला कहना उचित नहीं है। दूसरों के लिए त्याग करने की और अपनेपन की भावना तो उसमें सदा से है, आवश्यकता है उस भावना को व्यापक बनाने की – जो आत्मीयता उसमें अपने सीमित परिवार के लोगों के प्रति है, उसे विस्तार देकर सभी समाज-बन्धुओं या देशबान्धवों तक बढ़ाने की आवश्यकता है। ऐसे स्वस्थ, सुविकसित, व्यापक बन्धुभाव को समूचे राष्ट्रीय समाज तक ले जाने की योजना डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से की। देशभूमि के प्रति श्रद्धा, मातृभाव और समाज में सभी के प्रति आत्मीय बन्धुभाव विकसित कर प्रत्येक परिस्थिति का सामना एक होकर करना ही समाज-संगठन है। यही संघ-कार्य है।


व्यापक प्रयत्न से ही सफलता

परन्तु डॉ. हेडगेवार ने कहा- "यह काम एक-दो या पाँच-दस अथवा पच्चीस-पचास लोगों का नहीं है। मनुष्य कितना भी कर्तृत्ववान्, कर्मशील और शक्तिमान हो, उसकी शक्ति की एक सीमा होती है। पूरे राष्ट्र का काम वह अकेले अपने सिर पर नहीं ले सकता। इस काम के लिए पूरे राष्ट्र को संगठित होना होगा। जो शक्तिहीन है वह धर्म की रक्षा नहीं कर सकता। इसीलिए सारे समाज को संगठित कर बलशाली बनाने का काम संघ ने अपने हाथ में लिया है। यही हमारा आज का धर्माचरण है। इसके अतिरिक्त अन्य ध्येय हमारी दृष्टि में गौण हैं।"


अलग (नया) संगठन क्यों?

डॉ. केशवराव की स्वतंत्रता की कामना आन्दोलनकारी नेताओं से कहीं अधिक तीव्र थी, वे तो उग्र क्रान्ति-मार्ग के पथिक रह चुके थे और बाद में भी क्रान्तिकारियों से उनका सहयोग- सम्बन्ध बना रहा, फिर भी वे समझते थे कि हमारी सभी समस्याओं का एकमात्र कारण हमारी पराधीनता नहीं है। इसके विपरीत, हमारे समाज-जीवन में आयी कतिपय न्यूनताओं के कारण हम पराधीन हुए और उन दोषों-दुर्बलताओं को दूर किये बिना यदि हम स्वतन्त्र हो भी गये, तब भी अपनी स्वतन्त्रता को दुबारा गाँवा सकते हैं। इसके विपरीत, यदि हम में स्वतन्त्र रहने की पात्रता आ जाये तो फिर हमें कोई परतन्त्र नहीं रख सकेगा। अत: स्वतन्त्र होने के लिए प्रयत्न करने के साथ-साथ स्वतन्त्र रह पाने की योग्यता अर्जित करना और भी आवश्यक है तथा वह योग्यता सारे राष्ट्र को एक संगठन-सूत्र में गूंथने और अपनी संस्कृति, अपने आदर्शों एवं जीवन-मूल्यों के प्रति गौरव-बोध जागृत करने से ही आ सकती है। स्वाभिमान से जीने के लिए दो बातें आवश्यक हैं— अपने आदर्शों की रक्षा के लिए प्राण भी अर्पित करने की तत्परता और संगठित एकता का बल। डाक्टर हेडगेवार ने उन लोगों को संगठित करने का मार्ग चुना जो इस देश में स्वयं को आक्रमणकारी नहीं वरन् इस भूमि की सन्तान मानते हैं। यदि राष्ट्रीय समाज संगठित और बलशाली होगा तो सभी समुदायों को स्वयं ही उसके साथ मेल करने की इच्छा होगी। संघ-स्थापना में यह सकारात्मक दृष्टि रही है।


अनोखी शैली

डॉक्टर जी ने नये-नये लोगों को संघ से जोड़ने की बहुत सरल, किन्तु चमत्कारी पद्धति अपनायी। उन्होंने अपनी बात समझाने के लिए बड़ी सभाएँ आयोजित कर व्याख्यान देने का मार्ग नहीं अपनाया। उनकी अपनी शैली थी— सामान्य जान-पहचान को गहरे परिचय और आत्मीयता में परिवर्तित करने की। वे छोटी-छोटी बैठकों में बातचीत और हास्य-विनोद करते हुए अपनी बात श्रोताओं के मस्तिष्क में बिठा देते थे। किन्तु ऐसा नहीं कि जिसने संगठन की यह बात समझ ली, वह मानसिक रूप से सहमत होकर फिर पहले जैसा ही निष्क्रिय होकर बैठा रहे। डाक्टर जी इस प्रकार से व्यक्ति निर्माण करते थे कि संगठन उसकी जीवन-शैली और संगठन का विस्तार उसका जीवन—व्रत बन जाये। और यही संघ की कार्य-पद्धति बन गयी जिसका स्वरूप निखारते चलना डाक्टर जी के अनुयायियों और उत्तराधिकारियों का जीवन ध्येय बन गया।


शाखा पद्धति और स्वयंसेवक

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने समाज-संगठन की एक विशिष्ट कार्य-पद्धति विकसित की है जो अत्यन्त सरल होते हुए बहुत सफल सिद्ध हुई है। इसे शाखा-पद्धति कहते हैं। स्वयंसेवकों में स्वावलम्बी स्वभाव निर्मित करने और समानता का भाव जगाने के लिए उन्हें अपना काम स्वयं करने की आदत डाली जाती है। शिविरों या शिक्षा-वर्गों में वे भोजन बनाने और परोसने जैसे कार्यों में बारी-बारी से हाथ बँटाते हैं तथा अपने बर्तन स्वयं माँजते हैं। इससे सामूहिक रूप से कार्य करने का अभ्यास तो होता ही है, समय पड़ने पर स्वयंसेवक किसी भी काम को करने में संकोच नहीं करते। सभी स्वयंसेवकों का एक ही पंक्ति में प्रेमपूर्वक बैठकर भोजन करना संघ में नित्यव्यवहार की सामान्य बात है। जाति या वर्ण भेद तथा उग्रैंच-नीच की तो यहाँ किसी की कल्पना भी नहीं आती। यही देखकर महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था- 'मैं जो करना चाहता था वह कार्य संघ ने चुपचाप कर दिखाया है।' डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी इसी कारण संघ की ओर आशाभरी दृष्टि से देखते थे।


संघ-प्रवेश

जैसे शाखा की कार्य-पद्धति सरल है, वैसे ही स्वयंसेवक बनना भी बहुत सरल है। संघ में प्रवेश के लिए सदस्यता की कोई जटिल प्रक्रिया नहीं है। यदि आप भारत को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि और पुण्यभूमि मानते हैं तथा भारतीय संस्कृति में आस्था रखते हैं तो शाखा के समय निस्संकोच संघ-स्थान पर (जहाँ शाखा लगती है) चले जाइये और वहाँ के अनुशासन एवं निर्देशों का पालन करते हुए शाखा के कार्यक्रमों में भाग लीजिये। फिर भी जिन्हें कोई शंका हो, वे वहाँ विद्यमान वरिष्ठ कार्यकताओं से उस सम्बन्ध में पूछ सकते हैं अथवा कुछ दिन दूर से शान्तिपूर्वक वहाँ की गतिविधियों का अवलोकन कर सकते हैं।


कार्यकर्ता

एक कार्यकर्ता के लिए प्रतिदिन एक घंटा राष्ट्र-कार्य के लिऐ देने की आवश्यकता न्यूनतम है, सम्पूर्ण नहीं। वाङछनीय तो यह है कि धीरे-धीरे उसकी जीवन पद्धति ही संगठनमयी बनती चली जाये। समाज-संगठन कोई तदर्थ (ad-hoc) कार्य नहीं है कि कुछ दिन जैसे-तैसे चला लिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पूर्ण तन्त्र का आधार वे जीवनव्रती कार्यकर्ता हैं जिन्हें 'प्रचारक' कहते हैं। वे पारिवारिक दायित्वों से मुक्त रहकर अपने जीवन की समस्त गतिविधियाँ संघ के लिए ही अर्पित करने का संकल्प करके संगठन-कार्य में जुटे हैं। वे प्रचलित धार्मिक दृष्टि से संन्यासी नहीं होते, परन्तु राष्ट्र-कार्य में कोई बाधा न आये, इसलिए वे परिवार नहीं बसाते हैं। उनका सब कुछ राष्ट्रदेव को समर्पित होता है। संघ के प्रचारक वस्तुत: संगठनकर्ता हैं। यहाँ प्रचार का अर्थ है व्यक्ति-व्यक्ति के मन में स्वदेश, स्वराष्ट्र और अपने समाज के लिए प्रेम जगाकर उसे संगठन के साथ जोड़ना और राष्ट्र-कार्य में लगने के लिए प्रेरित करना। समूचा संघ-तंत्र इसी कार्य के लिए बना है। आजीवन प्रचारकों के अतिरिक्त कुछ लोग जीवन के कुछ वर्ष सम्पूर्णत: संघकार्य के लिए समर्पित करते हैं। उस अवधि में वे प्रचारक ही कहलाते हैं। उसके पश्चात् जब वे सामान्य गृहस्थ जीवन अपना लेते हैं तो अन्य स्वयंसेवकों की भाँति ही पर्याप्त समय संघ-कार्य के लिए देते हैं। यह त्याग ही, जो किसी पर उपकार नहीं अपितु अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालनमात्र है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वास्तविक शक्ति है। यही कारण है कि विभिन्न प्रकार के दुष्प्रचार के बावजूद भी यह संगठन निरन्तर समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाये हुए है।


प्रशिक्षण

शाखा में व्यायाम, खेल, योगासन, लाठीचालन, पथ-संचलन इत्यादि विविध प्रकार के शारीरिक और चर्चा, प्रश्नोत्तर इत्यादि के माध्यम से बौद्धिक प्रशिक्षण तो स्वयंसेवकों को प्राप्त होता ही है, कुछ अधिक दक्षता के लिए तीन दिन से लेकर अधिकतम एक सप्ताह के प्राथमिक शिक्षा वर्ग भी लगाये जाते हैं। किन्तु सघन प्रशिक्षण द्वारा विशेष प्रशिक्षित कार्यकर्ता तैयार करने के लिए प्रतिवर्ष ग्रीष्म ऋतु में लगभग एक मास की अवधि (अब घटाकर 20 दिन) के संघ—शिक्षा वर्ग आयोजित किये जाते हैं जिनमें शिक्षार्थियों को उस पूरी अवधि में वहीं रहना होता है। प्रशिक्षण के बाद शारीरिक और बौद्धिक, दोनों प्रकार की परीक्षाएँ भी ली जाती हैं। उत्तरोत्तर प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष और तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण सफलतापूर्वक पूरा कर लेने पर कार्यकर्ता पूर्ण प्रशिक्षित माना जाता है।


सगठन-तन्त्र

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन-तन्त्र त्रिवेणी में गुथाँ हुआ है जिसमें एक धारा शाखा-कार्यवाह और मुख्य शिक्षक से प्रारम्भ करके उत्तरोत्तर कार्यवाहों की है। दूसरी प्रचारकों की तथा तीसरी संघचालकों की श्रेणी है किन्तु शीर्ष पर सभी का त्रिवेणी-संगम हो जाता है। शाखा-स्तर पर अधिक से अधिक स्वयंसेवकों को नियमित रूप से शाखा में आने की प्रेरणा देने के लिए गटनायक (टोलियों के नेता) होते हैं। शाखाओं के समूह (मण्डल) की देखरेख का दायित्व मण्डल—कार्यवाह का होता है। कार्यवाह का अर्थ है कार्यकारी अधिकारी या सचिव। इसी प्रकार मंडल से बड़ी इकाई के लिए ग्रामीण क्षेत्र में खण्ड—कार्यवाह और तहसील कार्यवाह होते हैं तथा नगर—क्षेत्र में नगर-कार्यवाह। तत्पश्चात् जिला, विभाग, संभाग, प्रान्त और क्षेत्र के कार्यवाह अपनी-अपनी भौगोलिक इकाई में दायित्व वहन करते हैं। यह एक धारा है। दूसरी धारा संगठनकर्ताओं की है जो खण्ड प्रचारक और तहसील प्रचारक या नगर प्रचारक से लेकर जिला, विभाग, संभाग, प्रान्त और क्षेत्र प्रचारकों तक जाती है। प्रचारकों की ही भाँति तीसरी धारा में तहसील या नगर से लेकर क्षेत्र तक के संघचालक आते हैं जो संघ—गतिविधियों की अध्यक्षता करने के लिए मनोनीत सम्मानित नागरिक होते हैं। इस सारी संरचना के प्रशासनिक शीर्ष पर सरकार्यवाह का पद है। सरकार्यवाह की नियुक्ति संगठनात्मक चुनाव द्वारा एक निश्चित अवधि (तीन वर्ष) के लिए होती है। संगठन के सर्वोच्च मार्गदर्शक सरसंघचालक कहलाते हैं जो अपने पूर्ववर्ती द्वारा संगठन के वरिष्ठजनों से परामर्श करके मनोनीत किये जाते हैं तथा वे तब तक पद पर बने रहते हैं जब तक स्थान रिक्त होने का कारण न उपस्थित हो जाये। केन्द्रीय स्तर पर संगठन और प्रशासन की दृष्टि से दो संस्थाएँ हैं – अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा और अखिल भारतीय कार्यकारी मण्डल। इनका वर्ष में एक-एक बार अधिवेशन होता है। संघ-कार्य की दृष्टि से पूरे देश में 41 प्रान्त बनाये गये हैं जिनमें कुल मिलाकर वर्तमान में 57 हजार शाखाएँ चल रही हैं।


भगवा ध्वज और गुरुदक्षिणा

यज्ञ-वेदी की अग्नि-ज्वाला के रंग का भगवा ध्वज अर्पण (आहुति देने) अर्थात् त्याग का प्रतीक है। इसी कारण यह युगों से भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्शों का प्रतीक रहा है। भगवा ध्वज की इस महत्ता को देखते हुए संघ में उसे गुरु का स्थान दिया गया है और प्रतिवर्ष व्यास-पूर्णिमा के दिन उसकी पूजा की जाती है। उस दिन स्वयंसेवक श्रद्धापूर्वक अपनी भेंट ध्वज के आगे अर्पित करते हैं। इसे गुरु-दक्षिणा कहा जाता है। संघ स्वावलम्बी संगठन है और उसके सभी खर्च इसी राशि से चलते हैं। वर्ष में एक बार स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा के अतिरिक्त अन्य कोई धन अपने खर्च के लिए संघ स्वीकार नहीं करता। इस व्रत का पालन करते हुए यह संगठन अपने कार्यकताओं की मितव्ययी जीवन जीने को प्रेरित करता है। संघ व्यक्तिनिष्ठ न होकर तत्वनिष्ठ रहे, इसीलिए गुरु के पद पर किसी व्यक्ति को आसीन न करके निर्मल आदर्शों के प्रतीक भगवा ध्वज को यह सम्मान दिया गया। यह ध्वज चिरकाल से भारत के उन्नत गौरव का भी प्रतीक रहा है। हमारे तपोबली, ज्ञानजयी ऋषि-मुनियों से लेकर चक्रवर्ती सम्राटों तथा विश्वविजयी योद्धाओं तक ने इसी ध्वज को आगे रखा। संघ की शाखाओं में प्रतिदिन नियमित रूप से भगवा ध्वज फहराकर उसकी वन्दना की जाती है।


राष्ट्र जीवन में संघ की भूमिका

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दैनिक गतिविधियों से समाज में संगठन, एकता, प्रेम, बन्धुभाव, देशभक्ति, अनुशासन और समरसता का संचार तो हुआ ही है, इसके साथ-साथ बालों, किशोरों और तरुणों के व्यक्तिगत जीवन में उन्नत चरित्र के संस्कारों का बीजारोपण एवं अंकुर-पल्लवन भी हुआ है। किन्तु यह सब तो संघ-कार्य का समाज पर पड़ने वाला सहज प्रभाव अथवा नित्य परिणाम है। इसके अतिरिक्त भी संघ की स्थापना के एक-दो वर्ष पश्चात् से ही उसके स्वयंसेवकों ने समाज-जीवन में उध्र्वगामी परिवर्तन की कुछ अवसर विशेष पर प्रकट होने वाली भूमिकाएँ भी निभाई।

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