संघ-उत्सव सोपान

संघ-उत्सव सोपान

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उत्सवों का महत्व

उत्सव किसी भी राष्ट्र-जीवन की पहचान होते हैं। सुदीर्घ इतिहास, श्रेष्ठ परम्परा तथा प्राचीन संस्कृति का स्मरण करा कर समाज में स्नेह, संगठन एवं देशभक्ति के भाव का जागरण करते हैं। नव उत्साह, उमंग का वातावरण निर्माण होता है। मानव स्वभाव में एक ही ढर्रे पर चलने से जो ऊब निर्माण होती है, उसके स्थान पर एक उत्सव के पश्चात् क्रमशः उत्सवों की मालिका जीवन जीने की लालसा उत्पन्न कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। समाज में आत्मीयता, एकरसता तथा एकात्मता का निर्माण, राष्ट्र को सुदृढ़ करने का कार्य सहज ही में उत्सवों द्वारा हो जाता है। उत्सवों के साथ अपने राष्ट्र के त्यागी, बलिदानी महापुरुषों की अनेक स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। राष्ट्र-जीवन के अनेक सुप्रसंगों का स्मरण होता है। अतः उत्सवों के माध्यम से हम समाज-जागरण का कार्य करते हैं |

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) एक ऐसा संगठन है जो देश हित, समाज हित, और धर्म हित के लिए सदैव तत्पर रहता है। सनातन धर्म में सभी को उत्सव के माध्यम से एक दूसरे को समझने, जानने और समाज को जोड़े रखने का काम होता है। संघ भी इसी विचारधारा के साथ आगे बढ़ा और 6 उत्सव को अपने लिए चुना, जिसके माध्यम से समाज और धर्म को जोड़ा जा सके। संघ ने खुद ये त्यौहार नहीं बनाए हैं। आदिकाल से हिंदू समाज इन्हें मनाता आ रहा है। संघ ने इन्हें मनाना इसलिए आरंभ किया ताकि इन त्यौहारों के माध्यम से लोग राष्ट्रीयता की भावना को आत्मसात करें, अपने महापुरूषों के बारे में जानें व समाज में जागरूकता आए। ये संघ के 6 उत्सव हैं—वर्ष प्रतिपदा, हिंदू साम्राज्य दिवस, गुरु पूर्णिमा तथा रक्षा बंधन, विजयादशमी, मकर संक्रांति।

वर्ष प्रतिपदा

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी हिन्दू कैलेंडर नववर्ष का प्रथम दिन, इस दिन से ही भारतीय नववर्ष यां हिदू नव वर्ष की शुरुआत होती है। इतिहास में इसी दिन से विक्रम संवत की शुरुआत हुई थी। वर्ष प्रतिपदा के दिन ही संघ के संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी का जन्म हुआ था। संघ के सभी उत्सवों में से यह विशेष होता है और इस दिन सभी की उपस्थिति गणवेश में अनिवार्य होती है। इस उत्सव के दौरान डाक्टर जी को स्मरण किया जाता है और उनकी याद में सिर झुकाकर उन्हें ‘आद्य सरसंघचालक प्रणाम’ किया जाता है यह प्रणाम वर्ष में सिर्फ एक बार होता है। 


हिन्दू साम्राज्य दिवस

विक्रम संवत 1731, ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी के दिन ही छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था और इसी दिन हिंदू साम्राज्य की विधिवत स्थापना की थी। उन्होंने इस दिन सिंहासनारूढ़ होते हुए घोषणा की थी कि ‘यह राज्य शिवाजी का नहीं, धर्म का है’ । संघ की शाखाओं में इस दिन छत्रपति शिवाजी और उनके कार्यों को याद किया जाता है। उनके शौर्य, पराक्रम व सुशासन से जुड़ी घटनाओं का पुन: स्मरण किया जाता है। साथ ही तानाजी जैसे उनके असंख्य वीर व बलिदानी सहयोगियों तथा उनकी माता जीजाबाई के जीवन से जुड़े प्रेरक प्रसंगों को याद किया जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस उत्सव के माध्यम से यह बताना चाहता है कि हिन्दू हर दृष्टि से श्रेष्ठ है और वह सीमित संसाधन में भी खुद को श्रेष्ठ साबित कर सकता है। इस उत्सव के दिन सभी स्वयंसेवक छत्रपति शिवाजी महाराज को याद कर उन्हें नमन करते हैं और राष्ट्र की रक्षा की कसम खाते है।  



गुरु पूर्णिमा

हिंदू परंपरा में गुरु का स्थान ईश्वर से भी उच्च माना जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु का पूजन किया जाता है जबकि संघ में इसे एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है और इस उत्सव के दिन भगवा ध्वज की पूजा की जाती है। संघ मानव पूजक नहीं है इसलिए संघ की तरफ से भगवा ध्वज को गुरु माना गया है इसलिए संघ में भगवा ध्वज की पूजा की जाती है। यह उत्सव आषाढ़ की पूर्णिमा को मनाया जाता है।  इस दिन को ‘आषाढ़ी पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। स्वयंसेवक इन दिन शुभ्र वेश- सफेद धोती, कुर्ता या कुर्ता-पायजामा तथा संघ के गणवेश का हिस्सा- काली टोपी पहनकर पुष्पों से भगवा ध्वज की पूजा करते हैं। इसके उपरांत समाज के किसी गणमान्य व्यक्ति द्वारा किसी राष्ट्रीय महत्व के विषय पर विचार रखे जाते हैं। इस पर्व के माध्यम से स्वयंसेवकों को याद दिलाया जाता है कि संघ में व्यक्ति का नहीं विचार का महत्व है, इसीलिए किसी व्यक्ति को गुरु न मानकर संघ ने भगवा ध्वज को गुरू माना है। भगवा ध्वज को गुरु मानने का कारण यह है कि यह भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा का अभिन्न अंग रहा है जिसमें इसे त्याग, बलिदान व शौर्य का प्रतीक माना गया है।


रक्षाबंधन

यह त्यौहार भाई और बहन के बीच का त्यौहार माना जाता है। रक्षाबंधन के दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती है और भाई उसकी रक्षा की कसम खाता है। संघ भी रक्षाबंधन का उत्सव इसी भावना से मनाता है और इस दिन स्वयंसेवक एक दूसरे की कलाई पर राखी बांधकर एक दूसरे की रक्षा करने का संकल्प लेते हैं। संघ के कामकाज में यह भाव समय-समय पर प्रतिबिंबित होता है तो उसके पीछे रक्षाबंधन जैसे उत्सवों को मनाने की संगठनात्मक परंपरा का भी बड़ा योगदान है। इसके बाद स्वयंसेवक अपने आसपास की गरीब बस्तियों या निर्धन व सामाजिक रूप से पिछड़े परिवारों में जाकर वहां बहनों से राखी बंधवाते हैं और उनके साथ भोजन करते हैं। इन परिवारों के साथ स्वयंसेवक साल भर लगातार संपर्क में रहते हैं। इस उत्सव के माध्यम से समाज में हाशिए पर खड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने का सोचा-समझा प्रयास है। संघ के विस्तार के पीछे ऐसे प्रयासों की एक अहम भूमिका है.। 


विजयादशमी 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 को हुई थी और इस दिन विजयादशमी का उत्सव था। इसलिए विजयादशमी का त्यौहार विशेष रूप से संघ में मनाया जाता है।  इस दिन संघ की शाखाओं पर शक्ति के महत्व को याद रखने के लिए प्रतीकात्मक रूप से शस्त्र पूजन होता है। इस उत्सव के दौरान स्वयंसेवकों संबोधित किया जाता है जिसे संघ की भाषा में बौद्धिक कहते है। कई शाखाएं मिलकर एक साथ बड़े कार्यक्रमों का आयोजन भी करती हैं, जहां खेल होते हैं तथा बाद में विजयादशमी से प्रेरणा लेकर राष्ट्र के लिए कार्य करने के संबंध में संघ के किसी अधिकारी अथवा समाज के किसी गणमान्य व्यक्ति का संबोधन होता है. वैसे संघ में इसको ‘बौद्धिक’ कहते हैं। विजयादशमी के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा पथ संचालन का कार्यक्रम है जिसे विशेषतः  आयोजित किया जाता है। हर साल विजयादशमी पर संघ के मुख्यालय नागपुर में सरसंघचालक का वार्षिक उद्बोधन होता है जिससे संघ की दशा और दिशा के बारे में जानकारी मिलती है।


मकर संक्रांति

यह हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र दिनों में से एक है। सूरज इस दिन से अपनी दिशा बदलता है और दिन बड़े होने लगते हैं तथा रातें छोटीं और उत्तर भारत में ठंड भी इस दिन से कम होने लगती है। भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में मकर संक्रांति को अंधेरे से प्रकाश की ओर यात्रा का पर्व माना गया है। इस दिन संघ की दैनिक शाखा के उपरांत स्वयंसेवकों में गुड़ व तिल का वितरण होता है। इससे पूर्व वरिष्ठ कार्यकर्ता भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं के संदर्भ में इस पर्व के महत्व के बारे में स्वयंसेवकों को जानकारी देते हैं। 


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन उत्सवों के माध्यम से समाज से जुड़ता है और लोगों को संघ में जोड़ते हुए उन्हें देश व समाज सेवा के लिए जागरूक करता है। स्वयंसेवक हमेशा समाज के प्रति कार्यरत रहते हैं और मुसीबत की घड़ी में समाज के साथ हमेशा खड़े रहते है। स्वयंसेवक संघ कार्य को हमेशा अपना ध्येय मानकर आगे बढ़ते रहते है और समाज व हिन्दू संस्कृति की रक्षा करते है। 


उत्सव कैसे मनाएं -

प्रत्येक उत्सव में अनेक व्यवस्थाएँ सूचनाएँ समान होती हैं तथा कुछ भिन्नताएँ भी उत्सव के अनुरूप होती है। ये निम्नानुसार है :-

समान व्यवस्थाए सूचनाएं - 

संघस्थान (अथवा कार्यक्रम स्थान) की स्वच्छता, रेखांकन, ध्वज, ध्वज-मंडल, प.पू. डॉ. साहब तथा श्रीगुरूजी के चित्र, मालाए, कुर्सी, मेज, चादर, अगरबती–स्टेण्ड, माचिस आदि। आवश्यकतानुसार माईक एवं प्रकाश (रात्रि में) सहगीत, काव्यगीत, अमृत-वचन बौद्धिक तथा प्रार्थना | यथा-संभव कार्यक्रम का अध्यक्ष भी रहे।


उत्सव के अनुरूप व्यवस्था एवं कार्यक्रम

1. विजयादशमी - गणवेष में कार्यक्रम, श्री राम तथा दुर्गा का चित्र, शस्त्र-पूजन हेतु बोर्ड या मेज पर शस्त्रों को सजाना, ध्वजारोहण के पश्चात् उच्चाधिकारी द्वारा शस्त्र-पूजन। शारीरिक-प्रदर्शन तथा पथ संचलन भी रखना योग्य रहेगा ।
2. मकरसंक्राति - तिल-गुण की बनी हुई वस्तु का कार्यक्रम के पश्चात् वितरण हो।
3. वर्ष प्रतिपदा - ध्वजारोहण से पूर्व आद्यसरसंघचालक प्रणाम होता है। स्वयंसेवक गणवेष में रहें। नववर्ष के शुभकामना संदेश भेजें | घोष द्वारा प्रणाम का भी अभ्यास हो ।
4. हिन्दू सम्राज्य दिवस - घोर निराशा के वातावरण में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करने वाले छत्रपति शिवाजी तथा उनके मार्गदर्शक गुरु समर्थ रामदास का चित्र लगाना। शिवाजी के लक्ष्य, नीति आदि के स्पष्ट करने वाला राजा जयसिंह को लिखा पत्र पढ़ना |
5. गुरु पूर्णिमा - शुभ्र-वेष (मंगल-वेष) टोपी आदि का आग्रह।
6. रक्षा बंधन - अधिकतम उपस्थिति दिवस, सभी स्वयंसेवक रक्षा-सूत्र साथ में लावें, ध्वजारोहरण के पश्चात् ध्वज को रक्षा-सूत्र बाँधना। विकिर के पश्चात् सभी बंधु परस्पर रक्षा सूत्र बाँधे। सेवा बस्तियों में रक्षा सूत्र बाँधने जाना।
7. गुरु दक्षिण कार्यक्रम - शुभ्रवेष (मंगल-वेष) टोपी, समर्पण-राशि (गुरु दक्षिणा) बौद्धिक।


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