श्री गुरु पूर्णिमा (आषाढ़ पूर्णिमा)
प्रतिवर्ष आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन गुरु पूजा का यह पर्व आता है। हिंदू समाज में गुरु को ईश्वर से भी ऊपर मानकर सर्वोच्च स्थान दिया गया है। गुरु की जैसी भावना और महत्ता हमारे यहाँ मानी जाती है वैसी संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं। गुरु का एक अर्थ होता है अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने वाला। गुरु का एक अर्थ और भी होता है – भारी, बड़ा अर्थात् ज्ञान में बड़ा भारी।
संघ में किसी व्यक्ति को गुरु नहीं माना है। व्यक्ति स्खलनशील है, पूर्ण नहीं है, अमर नहीं है, सदैव सब स्थानों पर उपस्थित नहीं रह सकता। गुरु ध्येय के अनुरूप होना चाहिए। अतः व्यक्ति के स्थान पर तत्व के प्रतीक भगवाध्वज को ही गुरु का स्थान।
महाभारत में अर्जुन ने किरात-वेशी शिव की स्तुति करते हुए ‘नमों बालका वर्नायं’ कहा है। अर्थात् शिव को उगते हुए सूर्य की उपमा दी है | भगवाध्वज उगते हुए सूर्य के रंग का है। शिवत्व को प्राप्त करने के लिए स्वयं को शिव बनना पड़ता है। शिवों भूत्वा शिवं यजेत्। अर्थात् भगवाध्वज की पूजा करने के लिए हमें अपने गुणों और चरित्र को उसके अनुरूप बनाना होगा।
यह ध्वज भगवान सूर्य का प्रतीक है ‘समय पर व नित्य कार्य का अर्थात् दैनिक शाखा का प्रतीक है। सूर्य शाश्वत है, अतः यह हमारे समाज और हमारे कार्य की शाश्वतता का प्रतीक है। सूर्य किरणें सब ओर जाती हैं- कोई भेदभाव नहीं, दसों दिशाओं में जाएँ- इस प्रकार यह सर्वस्पर्शी एवं सार्वभौम काम खड़ा करने की प्रेरणा देता है। यह हमारे उत्थान और प्रगति का प्रतीक है।
संन्यासियों के वेश के कारण यह त्याग, तपस्या व ज्ञान का, अग्नि स्वरूप होने के कारण पवित्रता और तेज का, वीरों का बाना होने के कारण आत्म त्याग और बलिदान का प्रतीक यह भगवाध्वज है। इसको प्रणाम करना अर्थात् समस्त सद्गुणों को प्रणाम। णमो लोए सव्व साहूण – इस लोक के समस्त साधुजनों को प्रणाम है। इसको प्रणाम करने से हममें आयु, विद्या, यश और बल बढ़ता है। (अभिवादनशीलस्य नित्य वृद्धोपसेविन, चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्)। भगवाध्वज का अर्थ है भगवान का ध्वज। अर्थात् यह हमारे ईश्वरीय कार्य का प्रतीक है। हमारे कार्य का आधार हमारी शाखा है। संघ है मंदिर, देवता भगवा, धर्म है अपना ध्येय” | परमपवित्र भगवाध्वज के दर्शन करने, भारत माता की पवित्र मिट्टी में खेलने और संघ-गंगा में अवगाहन करने से असंगठन और फूट के सब पाप नष्ट हो जाते हैं “दरसन, परसन, मज्जन पाना | हरई पाप कह वेद पुराना।” यह ध्वज हमारे संगठन का प्रतीक है।
हम शाखा के सब कार्यक्रम इस पवित्र ध्वज के सम्मुख करते हैं। इसमें हम अपनी प्यारी मातृभूमि का दर्शन करते हैं। यह हमारे धर्म, संस्कृति और इतिहास का स्मरण दिलाकर साहस, स्फूर्ति, त्याग और बलिदान की दिशा में आगे बढ़ाने वाला तथा यज्ञमय अर्थात् त्यागमय जीवन की प्रेरणा देने वाला है। वेदों में अरुणा: केतवाः सन्तु का वर्णन हल्दी जैसे रंग का वर्णन | आदि काल से जनमेजय तक सभी चक्रवर्तियों, सम्राटों, महाराजाधिराजों, सेनानायकों यथा-रघु, हर्षवर्धन, पृथ्वीराज, महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि सबने इसी ध्वज की रक्षा के लिए संघर्ष किये, माताओं – बहनों ने जौहर किये । हमारा देश सदियों से जगद्गुरु है।
एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्याम सर्व मानवाः
इस देश में उत्पन्न अग्रजन्मा महापुरुषों के पास बैठकर संसार भर के मानव अपने-अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें। खुद लार्ड मैकाले ने कहा है कि जिस समय इंग्लैंड के लोग खाल लपेटते थे और वनों में जंगलियों की तरह घूमते रहते थे उस समय भारत में महान सभ्यता थी। ठीक ही कहा है- “जब दुनियां में निख जिनावर नांगो बूचों डोले हो, इण धरती रो टाबरियो वेदॉरा संतर बोले हो/ घूम-घूस के दुनियां में फैलायी ज्ञान हो, इण पर वारां प्राण हो/“ अब सब मानने लगे हैं कि जीवन के हर पहलू की शिक्षा सारे संसार ने भारतवर्ष से ग्रहण की है, अनेक प्रमाण अभी भी उपलब्ध हैं।
गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मे श्री गुरवे नमः
(गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के स्वरूप हैं। गुरु परब्रह्म परमात्मा हैं। उन श्री गुरुदेव को नमस्कार है।)