श्री गुरुजी भाग -1

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श्री गुरुजी भाग -1

माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त के नागपुर शहर में 19 फरवरी 1906 दिन सोमवार माघ कृष्ण 'विजया एकादशी' शक संवत 1827 को प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में 4.30 बजे हुआ। इनके पिताजी का नाम श्री सदाशिवराव एवं माताजी का नाम श्रीमती लक्ष्मीबाई था। माधव को घर में सभी 'मधु' कहकर पुकारते थे। सदाशिवराव भाऊ उन्हें सवाई माधव भी कहते थे। माधव अपने पिताजी को भाऊजी और माता जी को ताई जी कहते थे। मुम्बई के दक्षिण सह्याद्रि और समुद्र के बीच में जो भू-भाग है उसे कोंकण कहते हैं। कोंकण में एक छोटा सा गोलवली नाम का गाँव है। इस गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। जिसका उपनाम 'पाध्ये' था। इस पाध्ये वंश की शाखा जीविकोपार्जन हेतु 'कोंकण' से ‘घाट' पर आयी और श्रीक्षेत्र पण्ढरपुर (जिला सोलापुर) में जा बसी। माधवराव के पूर्वज पं. काशीनाथ अनन्त उपाख्य बाबाजी पाध्ये ने 'धर्म सिन्धुसार' नामक अद्वितीय ग्रंथ लिखा। यह ग्रन्थ आगे चलकर 'धर्म-सिन्धु' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इससे प्राप्त निर्णय भारत भर में मान्य होते थे। यह पाध्ये घराना गोलवली का था, अत: उन्हें ‘गोलवलीकर पाध्ये' नामाभिधान प्राप्त हुआ। कालांतर में इस कुल की उपशाखा पण्ढरपुर छोड़कर श्रीक्षेत्र पैठण (जिला औरंगाबाद) में आ बसी। तब से 'पाध्ये' यह वृत्ति वाचक उल्लेख पूर्णत: लुप्त हो गया और ‘गोलवलकर' उपनाम धारण किया गया। माधवराव के पिताजी एक ख्याति प्राप्त अध्यापक थे अत: माधव के शिक्षा की नींव घर में ही रखी गई और निश्चय ही उसके शिल्पकार रहे भाऊ-ताईजी। माधव बहुत बुद्धिमान था। शिशु अवस्था से ही माधव की असाधारण बुद्धि का परिचय होने लगा था। पिताजी जब पूजा में बैठते तो माधव भी उनके साथ बैठा करता था। केवल सुनकर ही अनेक मंत्र और स्तोत्र उसने कण्ठस्थ कर लिये। उन्होंने छ: वर्ष की आयु में ही रामरक्षास्तोत्र, महिम्न आदि स्तोत्र कण्ठस्थ कर लिए।


माधवराव की शिक्षा का क्रम और कालक्रम क्रमश: इस प्रकार था। उन्होंने सन् 1915 में अपनी उम्र के नौवें वर्ष में प्राथमिक चौथी कक्षा की परीक्षा दी उसमें उन्होंने सम्पूर्ण ‘नर्मदा विभाग' में प्रथम स्थान पाया और छात्रवृत्ति अर्जित की। उसके चार वर्ष पश्चात् 1919 में उन्होंने हाईस्कूल एन्ट्रेन्स एण्ड स्कॉलरशिप एग्जामिनेशन परीक्षा में प्रावीण्य सूची में नाम दर्ज कराकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। सन् 1922 में चाँदा (अब चन्द्रपुर) के जुबली हाईस्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। अपनी उम्र के 16 वें वर्ष में उन्होंने यह महत्वपूर्ण शैक्षिक क्रम पूर्ण किया। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए माधवराव ने नागपुर के हिस्लॉप महाविद्यालय में प्रवेश लिया। इसी महाविद्यालय से 1924 में अंग्रेजी में पारंगतता के परिणाम स्वरूप पारितोषिक के साथ उन्होंने विज्ञान-इण्टर की पढ़ाई पूर्ण की। यहाँ दो वर्ष की शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने काशी-वाराणसी को प्रस्थान किया। वहाँ के बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्होंने सन् 1926 में बी.एस-सी. की परीक्षा उत्तीर्ण की और वे 1928 में एम.एस-सी. प्राणिशास्त्र से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुये। इस प्रकार विश्वविद्यालय के चार वर्षों के कालखण्ड में माधवराव ने पाठ्यपुस्तक या परीक्षा तक ही स्वयं को सीमित न रखते हुए माधवराव ने कई साहित्य ग्रन्थों का अध्ययन कर उन्हें आत्मसात् भी किया।  माधवराव ने बाल्यावस्था में ही सावलाराम जी से बाँसुरी का अच्छा वादन सीख लिया था। किशोरावस्था एवं तरुणाई में माधवराव ने भरपूर व्यायाम किया था। उपनयन् संस्कार से माधव ने संध्यावंदन का व्रत आमरण जारी रखा।


प्राणिशास्त्र से एम.एस-सी. करने के बाद माधवराव की अध्ययन की भूख मंद नहीं पड़ी तथा प्राणिशास्त्र में ही मत्स्य जीवन पर शोध करने हेतु माधवराव चेन्नई मत्स्यालय में अनुसंधान में जुट गये। वैसे माधव की तीव्र इच्छा थी कि वैद्यक-शास्त्र का स्नातक बना जाय। इस हेतु को प्राप्त करने के लिए माधव ने काशी जाने के पहले लखनऊ के मेडिकल कालेज में प्रवेश पाने का प्रयास किया था किन्तु वह प्रयास सफल न हो सका। अत: प्राणिशास्त्र में स्नातक होने के बाद मत्स्य जीवन पर अनुसंधान करने लगे। किन्तु इसी वर्ष उनके पिताजी उम्र के अनुसार नौकरी से निवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के परिणाम स्वरूप हुए धन के अभाव के कारण शोधकार्य पूर्ण न हो सका। माधव एक वर्ष तक वहाँ रहे। धनाभाव एवं स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण मद्रास के मत्स्यालय में प्रारम्भ किया गया अनुसंधान अधूरा छोड़कर माधवराव को अप्रेल सन् 1929 ई. में नागपुर लौटना पड़ा। इसी समय नागपुर के धंतोली भाग में स्थित श्री रामकृष्ण मिशन आश्रम के प्रमुख स्वामी भास्करेश्वरानंद जी से उनका संबंध आया तथा आध्यात्मिक विषयों पर नित्य चर्चा होने लगी। स्वामी विवेकानंद का समग्र साहित्य भी इस काल में उन्होंने पुन:एक बार पढा।


माधव अध्यापन कार्य हेतु पुन: एक बार काशी की ओर मुड़े। वहाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में निदर्शक (Demonstrator) की नौकरी मिल गई। दिनांक 22 अगस्त से लिखित रूप में उनकी प्रत्यक्ष नियुक्ति हुई। यद्यपि माधवराव प्राणिशास्त्र के प्राध्यापक थे। तथापि अपने मित्रों तथा छात्रों को वे आवश्यकतानुसार अंग्रेजी, गणित, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, राजनीति शास्त्र भी पढ़ाते थे। इसके अतिरिक्त अपने मेधावी छात्र-मित्रों को पुस्तकें खरीदकर देने में तथा उनका शेष शुल्क आदि चुकाने में उनके वेतन का बहुतांश व्यय हो जाता था। उनका छात्रवर्ग उन्हें एक अत्यंत मिलनसार, कठिनाईयों को समझने, संवेदना अनुभव करने वाले तथा सहायतार्थ सदा तत्पर रहने वाले प्राध्यापक के रूप में जानता था। अध्यापन व्यवसाय के कारण माधवराव गोलवलकर को जो ‘श्रीगुरुजी' उपाधि मिली, वह हमेशा के लिए उनके व्यक्तित्व के साथ जुड़ गयी और उनका यह नामाभिधान आज विश्व व्यापी हो गया।


जब गुरुजी काशी से नागपुर पहुँचे, उस समय उनके माता-पिता रामटेक में रहते थे। 1931 में वहाँ उन्होंने एक छोटा सा मकान खरीद लिया था। श्री गुरुजी की अपने परिवार में वंश वृद्धि के रूप में एक अंतिम विकल्प के रूप में होते हुए भी उनके राष्ट्र के लिए आत्मोत्संग की अभिव्यक्ति उनके स्वयं के शब्दों से स्पष्ट होती है जिसमें वे स्वयं कहते हैं कि- ‘मुझे बीच-बीच में स्वाभाविक रूप से माता-पिता की ओर से विवाह का प्रस्ताव आया किन्तु उन्होंने उसे टाल दिया। सन् 1932-33 में श्री गुरुजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य में रुचि लेना शुरू किया। सन् 1933 के जनवरी मास के अन्त में माधवराव की अध्यापन संबंधी निर्धारित अवधि समाप्त हुई और वे फरवरी मास में पुन: नागपुर लौट आये। माता जी की इच्छानुसार सन् 1933 में नागपुर विधि महाविद्यालय में प्रवेश लिया और माधवराव एलएल.बी. की पढ़ाई करने लगे। सन् 1935 में माधवराव ने एलएल.बी. की उपाधि प्राप्त की और अध्यापक गोलवलकर 'वकील' बन गये। 'वकील' बनते ही ताई जी की एक अभिलाषा पूर्ण हुई और लौकिक अर्थ में माधवराव की शिक्षा भी पूर्ण हुई। एलएल.बी. की परीक्षा श्रीगुरुजी की अंतिम परीक्षा थी। उसके बाद उन्होंने कोई अन्य परीक्षा नहीं दी श्री गुरुजी को धन कमाने की लालसा कभी नहीं रही अत: वे वकील बनकर सच झूठ का व्यवसाय नहीं करना चाहते थे किन्तु डॉ. साहब एवं माताजी के विशेष आग्रह पर इन्होंने सनद ली, अपने नाम का बोर्ड लगाया और वकालत प्रारंभ की। कई मुकदमों में जजों ने उनकी विश्लेषण तथा प्रतिपादन शैली की प्रशंसा की। श्री गुरुजी उतना ही कमाते जितना भरण-पोषण के लिये काफी होता। श्री गुरुजी ने यह व्यवसाय किसी तरह दो वर्ष तक चलाया।


काशी विश्वविद्यालय में ही माधवरावसदाशिवराव गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा के सम्पर्क में आये। भय्याजी दाणी, नानाजी व्यास आदि स्वयंसेवक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय पढ़ने आये। भय्याजी दाणी उस विश्वविद्यालय में पढ़ते थे एवं माधवराव गोलवलकर पढ़ाते थे। भय्याजी दाणी संघ की शाखा लगाते थे। वाराणसी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रवास के दौरान डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का गोलवलकर जी से परिचय हुआ। डॉ. हेडगेवार की पारखी नजर ने गोलवलकर को पहचानने में चूक नहीं की। उन्होंने माधवराव के अन्दर एक महान व्यक्तित्व का दर्शन किया और वार्तालाप एवं सम्पर्क के दौरान गोलवलकर को भक्तियोग से हटाकर कर्मयोग की ओर प्रवृत्त किया। उन्होंने गोलवलकर से कहा- यह संसार ईश्वर का विराट रूप है। इसकी सेवा साधना द्वारा कर्मयोग के माध्यम से उस पद को प्राप्त कर सकते हो जिसे कोई योगी कदराओं में बैठकर हजारों वर्ष की तप-तपस्या एवं साधना के बाद प्राप्त करता है। डॉ. हेडगेवार के सम्पर्क में आने के बाद 'श्री गुरुजी' यह जान ही गये थे कि संघकार्य महत्वपूर्ण है, परन्तु अभी यह अनुभव करना बाकी था कि हिन्दू राष्ट्र का भविष्य इसी से उज्जवल हो सकता है।


व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं माधवराव गोलवलकर की अद्वितीय क्षमता को भाँपते हुए, संघ संस्थापक डॉक्टर जी ने धीरे-धीरे संघ की शाखा के छोटे-छोटे दायित्व देकर संघकार्य का भार रखना प्रारंभ किया और श्री गुरुजी को शाखा कार्यवाह, संघ शिक्षा वर्ग (O.TC.) का सर्वाधिकारी और व्यास पूर्णिमा के शुभ अवसर पर दिनांक 13 अगस्त 1939 के दिन माधवराव गोलवलकर की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह के पद पर नियुक्ति की। 1939 के फरवरी मास में डॉ. हेडगेवार ने सिंदी (महाराष्ट्र) नागपुर और वर्धा के बीच स्थित स्थान पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की एक महत्वपूर्ण बैठक का आयोजन किया। इस बैठक में अप्पाजी जोशी, बाला साहब देवरस, तात्याराव तेलग, विठ्ठलराव पतकी, नानासाहब टालाटुले, कृष्णराव मोहरीर आदि प्रमुख महत्वपूर्ण कार्यकर्ता थे। उसी बैठक में माधवराव गोलवलकर भी थे। यह बैठक दस दिनों तक चली। इस बैठक की कार्यवाही में माधवराव गोलवलकर ने खुलकर अपने विचार प्रस्तुत किये। माधवराव के मन का संतुलन एवं नेतृत्व के प्रति उनकी श्रद्धा और विश्वास देखकर बैठक में उपस्थित सभी बंधु-बांधव मुग्ध रह जाते। इस बैठक में डॉ. हेडगेवार ने अत्यधिक निकटस्थ अप्पाजी जोशी से पूछा कि- 'भावी सरसंघसंचालक के रूप में श्री गुरुजी आपको कैसे लगते हैं? बैठकों के निरीक्षण का स्वयं का साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए श्री अप्पा जी जोशी का उत्तर था- 'अतिउत्तम सर्वथा उचित।' उन दिनों अप्पाजी जोशी डॉ. हेडगेवार के दाहिने हाथ माने जाते थे अत: उन्हें यह सुनने में आया कि- अप्पाजी आप तो हेडगेवार जी के दाहिने हाथ थे श्री गुरुजी तो अभी नये हैं, संघ से जुड़े कुछ ही साल हुए और डॉ. साहब का यह निर्णय, तब अप्पाजी जोशी बोले- ‘मैं सरसंघचालक का दहिना हाथ था। यह सत्य है और आज भी मैं सरसंघचालक का दाहिना हाथ हूँ परन्तु श्री गुरुजी उनका हृदय थे।'


इधर संघसंस्थापक डॉ. केशवबलिराम पंत हेडगेवार का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ता गया। उनका अन्तकाल निकट आया जानकर तथा ‘लम्बर पंचर' के उपचार के पूर्व उन्होंने प्रमुख कार्यकर्ताओं को निकट बुलाया और उनके सम्मुख श्री गुरुजी से कहा 'इसके आगे अब संघ का उत्तरदायित्व आप पर है।' और शुक्रवार के दिन 21 जून 1940 (आषाढ़ वद्य द्वितीया शक 1862) को संघ संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार चल बसे। 3 जुलाई 1940 को रेशमबाग नागपुर में स्थित डॉ. हेडगेवार को समाधि की साक्षी में दिवंगत सरसंघचालक की तेरहवीं पर उनको श्रद्धा सुमन समर्पित करने का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इसी कार्यक्रम में नागपुर प्रांत संघचालक बालासाहेब पाध्ये ने नये सरसंघचालक की नियुक्ति की घोषणा करते हुए कहा- 'आद्यसरसंघचालक जी (हेडगेवार) की अंतिम इच्छानुसार माननीय माधवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक नियुक्त किये गये हैं और अब वे ही हम सबके लिए डॉ. हेडगेवार जी के स्थान पर हैं। मैं अपने नये सरसंघचालक को अपना प्रथम प्रणाम समर्पित करता हूँ। माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जब संघ के सरसंघचालक बने तब उनकी अवस्था मात्र 34 वर्ष की थी किन्तु स्वविवेक बुद्धि एवं विचार से माधवराव ने संघ की गतिविधियाँ तेज की एवं संघ का मार्गदर्शन किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीव रखी डॉक्टर जी ने और उसे शक्तिशाली आन्दोलन का रूप दिया श्री गुरुजी ने।


श्री गुरूजी के विषय में आगे भाग-2 में पढ़े... 
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