निःयुद्ध
निःयुद्ध अर्थात् स्वयं निःशस्त्र रहते हुए आक्रमण तथा संरक्षण करने की कला। साधारणत: व्यक्ति निहत्था ही घूमता है, ऐसी स्थिति में होने वाले आक्रमण से अपने शरीर को ही हथियार मानकर अपना संरक्षण करना इसमें सिखाया जाता है। इसके माध्यम से हम सहज ही अपने अंदर की सोई हुई 80 % से 400 % शक्ति का जागरण करना सीख सकते हैं। सामान्यतः साधारण मनुष्य अपनी 20 % शक्तियों का ही उपयोग करता है।
निःयुद्ध का इतिहास
निःयुद्ध मूलतः एक भारतीय विद्या है। महर्षि वशिष्ठ के काल में इसे निःयुद्ध कहते थे। विविध कालखंड में यह बाहुयुद्ध, मल्लयुद्ध, प्राणयुद्ध आदि नामों से भी जाना जाता था। वर्तमान में मल्लयुद्ध के अंतर्गत हनुमंती, भीमसेनी, जाम्बुवंती, जरासंधी आदि अनेक दाँव इसी विद्या के प्रकार है| दक्षिण भारत मे इस विद्या के एक अंग को 'कलरी' के नाम से जाना जाता है। यह भारतीय विद्या बौद्ध भिक्षुओं तथा प्रवासी भारतीयों द्वारा अनेक देशों मे गई | इसके ही विभिन्न स्वरूपों को कुंगफू , ज्युज्युत्सु, ज्यूड़ो, कराटे, सैवाटे, अकिड़ो, ज्युकड़ो, त्वायक्वांडो आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है, परंतु पश्चिम मे इसका उपयोग सामरिक दृष्टि से किया गया और यही इसका एकमात्र उद्देश्य बनकर रह गया। जबकि भारतीय दृष्टिकोण शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य का पूर्ण विकास करना रहा है। इस विद्या के एक तज्ञ व्यक्ति कानपुर स्थित स्व. पंडित देवीप्रसादजी पाण्डेय उपाख्य “जसवाना गुरूजी' जो सहस्त्रों दाँवों के जानकार थे, के सहयोग से संघ ने इसे विकसित किया है।
उद्देश्य
पश्चिमी देशों में केवल सामरिक महत्व स्वीकार करने के कारण यह विद्या सामाजिक व असामाजिक सभी प्रकार क़े तत्वों के हाथ मे पहुँच कर उनकी स्वार्थ सिद्धि का माध्यम बन गई है। इसलिये वहाँ साधारण मनुष्य का समाज में सुरक्षित रहना कठिन हो गया है। भारतवर्ष मे इस विद्या का उद्देश्य मानव को हिंसक न बनाकर आध्यात्मिक पक्ष से जोड़ना है संघ ने भी अपने यहाँ खेल-खेल मे कठिन विषय को सरल बनाकर इस विद्या के प्रति पुनः रूचि पैदा करने का प्रयास किया है। सही अर्थों मे इस क्षेत्र में भारतवर्ष आज भी विश्व का मार्गदर्शन करने में समर्थ है। यह एक जीवनदर्शन हैं। व्यक्ति अपने आप से स्पर्धा करते हुए प्रतिदिन दुर्गुणों को परास्त करते हुए अपनी अंदर की कमजोरियों को निकालकर बल की उपासना करे । “देवो दुर्बल घातक" अर्थात् देवता भी दुर्बल का संहार करते है। कमजोरी स्वतः ही एक पाप है। आत्मा के विकास के लिए भी सबल शरीर की आवश्यकता है। संघ द्वारा समाज में इस विद्या के माध्यम से सामाजिक दृष्टि से जागरूक, सशक्त, निर्भीक एवं विश्वसनीय नागरिक बनाना अपेक्षित है।
सफलता के आवश्यक तत्व
निःयुद्ध सीखने के लिए अपने शास्त्र में 6 आवश्यक तत्व माने गये हैं ।
सम्प्रेरणार्थसंकल्प: त्ववा च सहजक्रिया।
वजाघातश्चमत्कारो निःयुद्धे षट्क्रिया मताः।।
सम्प्रेरणा, संकल्प, त्वरा, सहज क्रिया, वज्राघात, चमत्कृति। ये 6 गुण निःयुद्ध में सफलता के लिये अत्यंत आवश्यक है।
सम्प्रेरणा
अर्थात् पहल करना, प्रतिस्पर्धी को अवसर दिये बिना आघात करना 'मारे सो मीर', अटेक इज द बेस्ट डिफेन्स'।
संकल्प
अर्थात् आक्रमणकारी को किस प्रकार की सजा देनी है इसके लिए तत्काल किसी निर्णय पर पहुँचना चाहिए और अपने जीतने का दृढ़ निश्चय करना चाहिए। अनिर्णयात्मक स्थिति का लाभ प्रतिस्पर्धी को मिलता है अतः तत्काल निर्णय और जीतने का दृढ़ निश्चय अत्यंत आवश्यक है।
त्वरा
अर्थात् अपने कार्य की सिद्धि के लिए अदृश्य प्रयोग जिसका परिणाम दृश्य अर्थात् बिजली के समान गति से प्रयोग करना।
सहज क्रिया
अर्थात् किसी भी प्रयोग का इतना अभ्यास करना कि वह शरीर में समा जाए। आवश्यकता पड़ने पर सहज रूप से वह प्रयोग अपने आप हो जाए,उसके लिए बुद्धि पर जोर न देना पड़े कि क्या करना हे जैसे प्रारंभिक दिनों में साईकल सीखते समय बुद्धि से सोचकर चलाते हैं, इसलिये कभी ब्रेक लगाना भूल जाते हैं, तो कभी पैडल मारना भूल जाते हैं। किन्तु कुछ दिनों के अभ्यास के बाद हम स्वाभाविक रूप से साईकल चलाते है तथा भीड़ मे भी साईकल लेकर चले जाते है। इसी अभ्यास साधना का नाम “सहज क्रिया” हैं।
वज्राघात
अर्थात् प्रतिस्पर्धी पर वज्र के समान आघात करना। अपने उद्देश्य के लिए पहला और अंतिम प्रयोग, उसको दुबारा न करना पड़े यह “वज्राघात” है। प्राणायाम तथा विभिन्न प्रकार क॑ व्यायामों के अभ्यास द्वारा अपने शरीर के प्रहारक अंगों को मजबूत बनाया जा सकता है।
चमत्कृति
अर्थात् सब मिलाकर जो परिणाम प्रतिस्पर्धी या दर्शक पर होता है उसे “चमत्कृति” कहते है। “एक को मारे, दस मरि जावे, बाकी खेत छोड़ भाग जावे" इसके अतिरिक्त किसी भी ऐसे स्थान से स्वयं तत्काल हट जाना भी चमत्कृति है।
शरीर सिद्धता
इस विषय में सफलता प्राप्त करने के लिए शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की सिद्धता प्राप्त करनी पड़ती है। इनको प्राप्त करने के लिये विभिन्न प्रकार के व्यायामों का अभ्यास करना चाहिए। यहाँ पर उनमें से कुछ आवश्यक व्यायाम दिए गए हैं जिनके अभ्यास से शरीर सिद्धता प्राप्त की जा सकती है।
शिथिलीकरण -
आसनों मे जो स्थान शवासन का है, वही स्थान कोई भी व्यायाम करने से पूर्व शरीर के शिथिलीकरण का है।
स्थान - खुला, स्वच्छ एवं हवायुक्त। स्थिति - दक्ष, अंगुलिया सीधी।
1. श्वॉँस भरते हुए दोनों हाथ एवं एड़ी ऊपर उठाते हुए खींचना।
2. श्वॉस छोड़ते हुए दोनों हाथों को सामने से पीछे खींचते हुए नीचे लाकर सीना उभारना। उसी समय एड़ी नीचे रखकर पैर की अंगुलियाँ तानकर ऊपर उठाना। इसकी 40 बार.आवृत्ति करना एवं तत्काल आरम, स्वस्थ करना व शरीर को स्वाभाविक प्रक्रिया में शिथिल होनें देना।
स्कंध संचालन - स्थिति - दक्ष, अँगुलिया सीधी।
दाहिना हाथ ऊपर बायाँ हाथ नीचे। तैराकी की भांति दोनों हाथ आगे से पीछे चक्राकार घुमाना। यही काम विपरीत दिशा मे समान संख्या मे करना।
रीढ़ के व्यायाम -
रीढ़ 33 मनकों की एक संयुक्त श्रृंखला है जिसमें नीचे के 9 मनके आपस में मिलकर 2 हिस्सों मे बैँट जाते है। इस प्रकार 26 मनके अलग अलग हैं किन्तु उनका भी परस्पर चिपकना चालू रहता है। उनका चिपकना बुद्धि की कमजोरी, शरीर में तरह तरह के रोग एवं शिथिलता बढ़ाता है। उसको ऊपर की ओर खींचकर दाहिने-बायें मरोड़ने से लचीलापन आता है। उसका प्रभाव श्वसन पर भी पड़ता है। युद्ध के समय एकाग्रता, चपलता एवं विश्वास बढ़ाने के लिए ही सर्प अपना फन निकालकर तथा बैल अपनी पूंछ खड़ी कर फुंफकारते या गरजते हैं। यह एक प्रकार से रीढ़ खींचना ही होता है। रीढ़ का लचीलापन बढ़ाने के लिए, जिसे वह आवश्यकतानुसार खींच सकें निम्न व्यायामों का अभ्यास आवश्यक हैं।
1. उछलकर पैर खोलना, दोनों हाथ सिर के पीछे, भुजदंड पकड़कर बांधना जिसमे रीढ़ ऊपर की ओर खींची जाए। अब 4-4 चक्कर दाहिनी एवं बायीं ओर से (बगल में आगे, बगल में पीछे) लगाना।
2. उपरोक्त स्थिति में गर्दन की मालिश करते हुए हाथ कमर पर, सिर तथा स्कंध की पंखुड़ियाँ पीछे की ओर खींचते हुए कमर से आगे झुकना एवं कुछ देर रूक कर धीरे -धीरे हाथ टखनों पर ले जाना। श्वास स्वाभाविक रखना।
3. उपरोक्त स्थिति में हाथ बगल में खोलकर तेजी से दाहिने पैर का अंगूठा बाएँ हाथ से एवं बाएँ पैर का अंगूठा दाहिने हाथ से छूना। उपरोक्त व्यायामों को करने के पश्चात् धीरे-धीरे क्रमशः एड़ी, पंजों को पास लेते हुए तनाव मुक्त होना व उछलकर वापस आना।
संतुलन के व्यायामः-
इन व्यायामों को करने से शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार का संतुलन बनता है। मस्तिष्क का बायाँ भाग शरीर के दाहिने अंग पर संतुलन साधने से मस्तिष्क का बायां भाग एवं इसके विपरीत करने से दाहिना भाग सक्रिय होता है।
1. दाहिना हाथ दाहिने पैर की कनिष्ठिकाधार की ओर से, घुटने से अंदर हाथ से जाकर बाहर से पकड़ना एवं सामने, बगल में, ऊपर खींचते हुए दोनों हाथों से पकड़कर अंगूठे से माथा छूना। यही क्रिया बाएँ पैर से करना।
2. बायाँ पैर मोड़कर टखने के पास से पीछे से बाएँ हाथ से पकड़कर अधिकतम खींचते हुए ऊपर उठाना। (दाहिना हाथ संतुलन के लिये ऊपर उठाना पुनः संतुलन कहाँ और क्यों बिगड़ता है, इसको देखकर ठीक करना।)
3. दाहिना हाथ तथा पैर एक साथ झटकना, इसी प्रकार बायाँ हाथ एवं बायाँ पैर झटकना, यही क्रिया 3-3 बार दोहराना। इससे शरीर मे विशेष चैतन्यता आती है।
पैर की गद्दियों पर करने वाले व्यायाम :-
उछलने के प्रयोग पैर की गद्दियों पर ही करने चाहिए। इसका प्रभाव दिल व फेफड़ों पर पड़ता है तथा श्वॉस -प्रश्वॉस गहरे और लम्बे हो जाते है। इससे फेफड़ें बलवान बनंते है। उछलते समय एड़ियाँ जमीन पर लाने से मस्तिष्क पर आघात होता है।
1. पैरों की गद्दियों पर जमीन को न छोड़ते हुए उछलना।
2. घुटने सीधे रखते हुए जमीन पर उछलना। क्रमशः उछाल बढ़ाते जाना।
3. दाहिना पैर दाहिनी ओर हवा मे ले जाते समय बाएँ पैर के गद्दी पर दो बार उछलना, दाहिना पैर जमीन पर आते ही बायाँ पैर बायीं ओर हवा मे ले जाते समय दाहिने पैर की गद्दी पर दो बार उछलना।
4. घुटने मोड़ते हुए उछलकर नितम्बों पर एड़ियाँ मारना।
5. उछलकर घुटने मोड़ते हुए सीने को लगाना।
अन्य व्यायाम:-
इन व्यायामों में स्थिति ठीक आने के पश्चात् गति बढ़ाने 'का प्रयास करना चाहिए। प्रत्येक प्रयोग दस-दस बार करना।
1. उछलकर पैर खोलना, दोनों हाथ श्वास लेते हुए ऊपर करना व कमर से पीछे झुकना। श्वॉस छोड़ते हुए नाभि अंदर लेते हुए दोनों हाथ व पैरों के बीच से पीछे की ओर जमीन के पास लाना।
2. सूर्यनमस्कार 3 की स्थिति, उछलकर पैर बदलते हुए करना।
3. मेंढक की स्थिति में बैठकर, दोनों एड़ियाँ जोड़कर (फैलाकर भी) पीछे सीने की ऊँचाई तक फेंकना व वापस मेंढ़क की स्थिति में आना।
4. सूर्यनमस्कार 4 की स्थिति में डिप्स लगाना।
5. दोनों पैरों में पर्याप्त अंतर लेकर, दोनों हाथ सामने रखते हुए (हथेंलियाँ जमीन की ओर ) दाहिने पैर पर बैठना (एड़ी जमीन पर), बायाँ पैर सीधा, एवं पंजा ऊपर उठाया हुआ। यही काम बायीं ओर करना। (अवडीन के समान)
6. दोनों पैरों में पर्याप्त अंतर लेकर धीरे-धीरे दोनों पैरों को (एड़ी तथा पंजों को) खिसकाते हुए फैलाना, जंघायें जमीन पर लाना।
मर्मस्थल :-
सामान्यतः: शरीर के किसी भी अंग पर आघात करने पर चोट पहुँचाई जा सकती है । परंतु शरीर के कुछ अवयव ऐसे होते हैं, जिन पर साधारण आघात से ही शरीर एवं मन का संतुलन बिगड़ जाता है, मृत्यु या अत्याधिक शारीरिक अथवा मानसिक क्षति हो जाती है। इन अवयवों को मर्मस्थल कहते है | मनुष्य के शरीर में कम से कम 115 मर्मस्थल हैं, परंतु साधारणत: सामने से नजर आने वाले करीब 20-25 मर्मस्थल है, जिनकी जानकारी निःयुद्ध के लिए आवश्यक होती है।
1. तालू 2. ग्रीवापृष्ठ 3. कुंभ 4. आँखें 5. नासिका 6. जबड़ा 7. कर्ण 8. कर्णमूल 9. हनु 10. कण्ठमणि 14. कण्ठनाल 12. कण्ठकूप 13. कॉलर की हड्डी (हंसली) 14. सूर्यचक्र 15. कक्ष 16. पार्श्वास्थि 17. जठर 18. उदरमध्य 19. रीढ़ की हड्डी 20 वृषण 2. जानु 22. पदृष्ठ 23. हाथ पैर की अँगुलियों के जोड़ 24. हड्डियाँ तथा मांसपेशियों के जोड़ 25. कार्पर।
प्रहारक अंगः-
नैसर्गिक रुप से हमें ईश्वर ने कुछ ऐसे अवयव भी दिये हैं जिनका शस्त्र के रुप में प्रयोग करने से प्रतिद्वंद्वी पर आघात लगाया जा सकता है।
(क) पदप्रहार :-
1. जानु प्रहार 2. खर प्रहार 3. पार्ष्णी प्रहार 4. पाष्णीचाप 5.ऊर्ध्वपाद 6. कोणपाद 7. चक्रपाद 8. भ्रमणपाद 9. पार्श्वपाद
(ख) कार्पर आघात :-
1. दंती 2. वराही 3. श्रंगी।
(ग) मुष्ठिका प्रहार :-
1. प्रांगुली 2. मुष्ठिमुख 3. मुष्ठिपार्श्व (कनिष्ठिकाधार या अंगुष्ठाधार की ओर से) 4. मुष्ठिपृष्ठ
(घ) हथेली :-
1.कनिष्ठिकाधार 2. करमूल 3. करपुट
(च) अंगुली :-
1. अंगुली शूल 2. द्विअंगुलिशूल 3. क्षुराधार
(छ) सिर :-
सिरप्रहार (अग्रतः, पृष्ठत:)