श्री गुरुजी भाग-2


श्री गुरुजी भाग-2

श्री गुरुजी ने 3 जुलाई, 1940 को सरसंघचालक पद का भार सम्भाला था और 5 जून 1973 को उन्हें जीवन के साथ-साथ इस पद के गुरुतर भार से मुक्ति मिली। विश्व में सम्भवत: श्री गुरुजी ही प्रथम नेता थे जिन्होंने अपनी संस्था का 33 वर्ष तक अबाधित गति से नेतृत्व किया हो। 33 वर्षों के अखण्ड कर्ममय जीवन में उन्होंने राष्ट्र को प्रगति का सुदृढ़ आधार बनाया और स्वयं निष्कलंक, नि:स्वार्थ, निराभिमानी चरित्र का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जिसके सामने उनके विचारों से मदभेद रखने वाले भी स्तब्ध एवं नतमस्तक हुए। इस दीर्घ कालावधि में श्रीगुरुजी नें संघकार्य के लिए शरीर का कण-कण चंदन के समान समर्पित किया। दौरा, प्रवास, बैठक, भाषण, शिविर, वर्ग, उत्सव तथा अन्य सार्वजनिक कार्यक्रम अखण्ड रूप से चलते रहे। परिणामत: दौड़, धूप, जागरण शारीरिक तथा मानसिक कष्टों के गरलों को शंकर बन उदरस्थ करते रहे किन्तु कृषकाय देह इतना भार कैसे सह सकती? परिणामत: 1964-66 में पीठ पर छोटी सी गाँठ निकल आयी थी किन्तु पूना के सुप्रसिद्ध होम्योपेथी डॉक्टर नामजोशी की औषधि से ठीक हो गयी किन्तु 2 मई 1970 को श्री गुरुजी के बायीं बगल में एक नयी गाँठ देखी गयी। गाँठ की परवाह न करते हुए श्री गुरुजी अखण्ड प्रवास करते हुए शारीरिक एवं मानसिक कष्ट झेलते रहे। 18 मई 1970 को बम्बई में डॉक्टर फड़के ने ‘कैंसर लगता है।' यह आशंका प्रकट कर दी। जब उन्हें शल्य क्रिया द्वारा तुरन्त उपचार करवाने का परामर्श दिया गया तो श्री गुरुजी का उत्तर था- ‘प्रवास समाप्त होते ही मैं आऊँगा फिर आपरेशन करें।'


1 जुलाई 1970 को श्री गुरुजी के 'कैन्सर' का ऑपरेशन टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में हुआ। शरीर का कैंसर ग्रस्त भाग शल्य क्रिया कर समूल नष्ट किया गया। अपेक्षा से अधिक गाँटें थी, सभी गांठे समूल निकाल ली गई। 22 मार्च 1973 को संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक बुलाई गई। श्री गुरुजी बैठक में सम्मिलित हुए। समारोह के अवसर पर जब 10 मिनट बोलने के लिए कहा गया तो वे 40 मिनट बोले। कार्यकर्ताओं के समक्ष ये उनका अन्तिम भाषण था। भाषण में उन्होंने कहा—'हम लोगों को सोचना है कि आदमी रहे न रहे, इससे संगठन को कोई हानि नहीं होने वाली। अपने देश का पुराना और आज का इतिहास बताता है कि संस्थायें कुछ दिन तक ही अच्छा चलती हैं फिर मतभेद और व्यक्तिभेद उत्पन्न हो जाता है। उन्होंने कहा हमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि हम संगठन के लिए निकले हैं विच्छेद के लिए नहीं इसलिए हम विच्छेद नहीं होने देंगे।


दिनांक 1 जून को वैशाखी अमावस्या के दिन शाम को श्री गुरुजी ने अपनी नित्य पाठ्य पुस्तकें एवं गुरु परंपरा की बची हुई कुछ अध्येय वस्तुओं को एकत्रित किया और उनको व्यवस्था से एक अलमारी में रख दिया। समय से उन्होंने खटिया पर सोना छोड़ दिया और एक बेत की कुर्सी को अपना आसन बनाया। ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी दिनांक 5 जून 1973 रात के 9 बजकर 5 मिनट हुए ही थे कि एक प्रदीर्घ अंतिम साँस बाहर निकली। श्री गुरुजी की आत्मा देह के कारावास से मुक्त हो गयी थी। आकाशवाणी ने समाचार दिया ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी का आज नागपुर में देहान्त हुआ। वे सड़सठ वर्ष के थे। श्री गुरुजी के अन्तिम दर्शन के लिये उनका शव कार्यालय में रखा गया जहाँ लोगों का ताँता लग गया। नागपुर के संघ शिक्षा वर्ग में समाचार पहुँचते ही सारे स्वयंसेवक कार्यालय की ओर दौड़ पड़े। सभी की आँखों से अश्रुओं की अविरल धारा बह रही थी। कई तो अपना शोकावेग सम्भाल नहीं पाये। आधे घन्टे के भीतर कार्यालय के निकट मोहिते संघ स्थान पर सहस्त्रों स्त्री-पुरुषों की लम्बी कतारें खड़ी हो गई। रात्रि भर यह क्रम जारी रहा। लोग श्री गुरुजी का अन्तिम दर्शन करने एक के बाद एक कक्ष में प्रवेश कर चरणों में प्रणाम करते। आज उन्हें कोई टोकने वाला नहीं था कि प्रणाम करने की क्या आवश्यकता है? भारी हृदय से और डबडबायी आँखों से सहस्त्रावधि स्वयंसेवकों, नागरिकों, माता, भगिनियों, युवा, बाल और शिशुओं ने श्री गुरुजी को अंतिम प्रणाम किया।


दिनांक 2 अप्रैल 1973 को श्री गुरुजी द्वारा तीन पत्र लिखे गये थे। तीनों पत्रों में से पहले पत्र में संघकार्य की धुरी श्री बालासाहब देवरस के सशक्त कघों पर सौंपने की सूचना थी।


दूसरे पत्र में श्री गुरुजी ने श्राद्ध न करने को कहा था। उन्होंने लिखा था कि अपना कार्य राष्ट्र पूजक है, ध्येयपूजक है, व्यक्ति पूजा को उसमें स्थान नहीं है। मेरा शरीर अल्पकाल का साथी रह गया है ऐसा डॉक्टर बंधुओं का मन्तव्य प्रतीत होता है। शरीर नश्वर जो है कभी न कभी जायेगा ही। उसके जाने पर शेष सबका श्रंगार आदि बातें विचित्र लगतीं हैं। वैसे ही संघ का ध्येय और दर्शन कराने वाले संघ निर्माता इनके अतिरिक्त और किसी व्यक्ति के नाते उनका महत्व बढ़ाना तथा स्मारक बनाना आवश्यक नहीं हैं। मैंने तो ब्रह्मकपाल में अपना स्वत: का भी श्राद्ध कर रखा है जिसके बाद किसी पर श्राद्ध आदि का बोझ न रहे।


तीसरे पत्र में उन्होंने लिखा था कि इस दीर्घकाल में मेरे स्वभाव के कारण या अन्य न्यूनताओं तथा दोषों के कारण अनेक कार्यकर्ताओं को मानसिक दु:ख हुआ होगा, मैं सबसे करबद्ध क्षमा-याचना चाहता हूँ। अत: मैं श्री तुकाराम जी का वचन उद्धृत कर रहा हूँ जिससे सब भाव समझ में आ सकेंगे।

शेवटची विनवणी। संतजनों परिसावी।
वार तो न पड़ावा। माझ देवा तुम्हांसी।
आतफार बोलो कायी। अवधे पायी। विदित।
तुकाम्हणे पड़तो पायां। करा छाया कृपेची।
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