वर्ष प्रतिपदा (चैत्र शुक्ल एकम)
अपेक्षित कार्यकर्ता:
° मुख्य शिक्षक
° गणगीत हेतु
° अमृतवचन हेतु
° एकलगीत हेतु
° प्रार्थना हेतु
° कार्यक्रम अध्यक्ष
° वक्ता
° कार्यक्रम विधि बताने एवं मञ्चासीन बन्धुओं का परिचय कराने हेतु।
° कार्यक्रम स्थल की आन्तरिक (सज्जा आदि) व्यवस्था हेतु ।
° कार्यक्रम स्थल की बाह्य व्यवस्था (स्वागत करते हुए कार्यक्रम में बैठने से पूर्व ध्वज प्रणाम करके बैठना, जूते, चप्पल, वाहन व्यवस्थित एवं यथा स्थान खड़े हों बताने, तिलक लगाने, सूचना देने आदि) हेतु।
आवश्यक सामग्री :
° उपयुक्त एवं स्वच्छ स्थान (विछावन सहित)
° चूना एवं रस्सी (रेखांकन हेतु) ध्वज (सही माप का, धुला एवं प्रेस किया हुआ पुष्पों की लड़ी सहित)
° ध्वजदण्ड (सीधा एवं उपयुक्त नाप का)
° ध्वज दण्ड हेतु स्टैण्ड (यदि स्टैण्ड की व्यवस्था नहीं है तो उचित संख्या में ईंटे/पत्थर/बाल्टी में मिट्टी भर कर रखना
° चित्र (भारतमाता, डॉक्टर जी एवं श्री गुरुजी के मालाओं सहित)
° वक्ता एवं अध्यक्ष जी के लिए मञ्च / कुर्सियाँ।
° सज्जा सामग्री (रिबिन, आलपिनें, सेफ्टी पिनें, चादरें/चाँदनी, पर्दे, सुतली, गोद आदि।)
° पुष्प, थाली, धूपबत्ती, बड़ा दीपक, प्लेट, माचिस, चित्रों हेतु मेज, चादरें।
° तिलक हेतु चन्दन अथवा रोली, अक्षत, कटोरी/थाली।
° कार्यक्रम यदि रात्रि में है तो समुचित प्रकाश व्यवस्था।
° ध्वनि वर्धक बैटरी सहित (यदि आवश्यक हो तो)
कार्यक्रम विधि :
* सम्पत्
* गणगीत
* अधिकारी आगमन
* कार्यक्रम की विधि बताना एवं सूचनायें
* दक्ष
* आद्य सरसंघचालक प्रणाम १,२,३
* आरम
* दक्ष
* ध्वजारोहण
* मंचासीन बन्धुओं का परिचय
* अमृतवचन
* एकलगीत
* वक्ता द्वारा उद्वोधन
* अध्यक्षीय आशीर्वचन
* प्रार्थना
* ध्वजावतरण
* विकिर
विशेष :
वर्ष प्रतिपदा से जुड़े कुछ समाजिक ऐतिहासिक प्रसंग –
1. भारत में प्रचलित सभी संवतों का प्रथम दिन |
2. मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक इसी दिन हुआ।
3. उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन शकों को पूर्ण रूप से परास्त कर विक्रमी संवत् आरंभ किया।
4. सिक्खों के द्वितीय गुरु अंगददेव का जन्म इसी दिन हुआ।
5. महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना इसी दिन की । (1875ई.)
6. माँ दुर्गा की उपासना नवरात्र इसी दिन से प्रारम्भ।
7. सिंध प्रांत के प्रसिद्ध समाजरक्षक वरुणावतार संत झूलेलाल का जन्म दिन भी वर्ष प्रतिपदा ही है। (चेटीचण्ड महोत्सव)
8. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक प.पू. डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्म इसी दिन हुआ (1889 ई.)
9. शालिवाहन शक संवत् (भारत का राष्ट्रीय संवत) का प्रथम दिन |
चैत्र शुक्ल 1 नए वर्ष का प्रथम दिवस है। इसीलिए इसे वर्ष प्रतिपदा कहते हैं। भारतीय प्राचीन वाड्मय के अनुसार सृष्टि का प्रारम्भ इसी दिन से हुआ। सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने चैत्र शुक्ल प्रथम को ही ब्रह्माण्ड की रचना आरम्भ की | यही कारण है कि अपने देश में प्रचलित सभी संवत् इसी दिन से प्रारम्भ होते हैं |
सर्वाधिक प्रचलित संवत् - पश्चिमी संस्कृति के व्यापक प्रभाव तथा ग्रेगेरियन कैलेण्डर की विश्वव्यापी स्वीकृति के बाद भी भारतीय जन-जीवन में आज भी विक्रम संवत् महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुए है। समाज जीवन के बहुत से कार्यकलाप आज भी भारतीय काल गणना और विक्रम संवत् से जुड़े हुए हैं। सम्राट विक्रमादित्य ने आक्रमणकारी शकों को पूरी तरह से भारत भूमि से निकाल कर उन्हें निर्णायक रूप से पराजित किया था। उसी स्मृति में विक्रम संवत् आरंभ हुआ ।
युगाब्द - आजकल प्रचलित व्यक्ति-प्रधान संवतों के स्थान पर काल-संबंधी होने के कारण युगाब्द का महत्व अधिक है। कलियुग के शुरू होने के साथ युगाब्द जुड़ा हुआ है। प्रतिपदा के साथ कलियुग को पाँच हजार से अधिक वर्ष हो गए हैं। इसे युधिष्ठिर संवत् भी कहते हैं।
नए वर्ष का अभिनन्दन
कोई भी व्यक्ति हो या समाज अथवा राष्ट्र उसके जीवन में नया वर्ष नई-नई भावनाएँ, नई-नई अभिलाषाएँ और नई-नई आकांक्षाएँ तथा उमंगें लेकर आता है। हर कोई आशा करता है कि आने वाला वर्ष उसके ही नहीं सभी के जीवन-पथ को नव आलोक से प्रकाशित करके उसमें नयापन लाएगा और विगत वर्षों में किसी भी कारण से यदि कहीं भी और कोई भी कमी रह गई हो तो वह इस वर्ष में अवश्य पूरी हो जाएगी। सामान्यतः नवीनता के प्रति सभी के मन में एक विचित्र सा आकर्षण होता है इसीलिए हर नई चीज को पाने के लिए व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र बहुत लालायित हो उठता है। नूतन वर्षाभिनन्दन भी इसी क्रम की एक कड़ी है।
यह उल्लेखनीय है कि भारत के सामाजिक जीवन में जो कुछ भी मान्यताएँ, विश्वास और धारणाएँ स्थापित की गई हैं उनके पीछे कोई न कोई महत्वपूर्ण आधार अवश्य है। हमारे नए वर्ष की मान्यता के पीछे भी विशुद्ध सांस्कृतिक, प्राकृतिक और आर्थिक कारण हैं। सृष्टि-निर्माण दिवस की स्मृति के रूप में यह हमारी संस्कृति का उज्ज्वल और महत्वपूर्ण दिन है। जहाँ तक प्रकृति का प्रश्न है इस अवसर पर वह स्वयं ही नूतनता के परिवेश में डूबी हुई होती है, जिसका आभास चारों ओर छाए वातावरण में आए पूर्ण परिवर्तन से मिलता है। वसन्त के बाद का सुहावना मौसम चारों ओर छाया हुआ होता है। वृक्षों पर नई-नई कोपलें आई हुई होती हैं, आम के वृक्षों पर पूरी तरह से छाया बौर अपनी मीठी-मीठी सुगन्ध चारों ओर फैला रहा होता है, जिससे वातावरण में मोहकता भर जाती है। प्रकृति के इस परिवर्तन का कोयल कुहुक-कुहुक कर स्वागत करती है और जहाँ तक व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि का प्रश्न है वह भी इसी समय से शुरू होती है। हमारा देश, कृषि प्रधान देश है। घर-घर में खेतों से जौ, गेहूँ, चना आदि नया धान्य कट-कटकर आना शुरू हो जाता है। उस समय हर व्यक्ति एक नए उत्साह और नई उमंग में डूबा होता है। उसमें एक नयापन आ जाता है। नूतनता के ऐसे आनन्दमय परिवेश में ही हमारा नया वर्ष आता है और वह स्वयं हमारे यहाँ व्यक्ति या समाज अथवा राष्ट्रजीवन में आनन्द का सर्जक होता है।