संघ संस्थापक डॉ० केशवराव बलिराम हेडगेवार भाग -1


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संघ संस्थापक डॉ० केशवराव बलिराम हेडगेवार

डॉ० हेडगेवार का जन्म युगाब्द 4991 की चैत्र शुक्ल अर्थात दिनांक 01 अप्रैल, 1889 ई० को नागपुर के एक गरीब वेदपाठी परिवार में हुआ था। पुरोहित की आजीविका चलाने वाला उनका परिवार नागपुर की एक पुरानी बस्ती में निवास कर रहा था। घर का वातावरण आधुनिक शिक्षा और देश के सार्वजनिक जीवन से सर्वथा अछूता था। उम्र के आठवें वर्ष में ही उनके मन में ऐसा विचार आया कि इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया का राज्य पराया है और उसके साठ साल पूरे होने की खुशी में जो मिठाई बाँटी गयी, उसे खाना हमारे लिए लज्जा की बात है। और मिठाई का वह दोना उन्होंने एक कोने में फेंक दिया। चार साल बाद एडवर्ड सप्तम का राज्याभिषेक-समारोह जब बड़े ठाठ-बाट से मनाया गया तब उसमें भी केशव ने भाग नहीं लिया। बालक केशव ने कहा "पराये राजा का राज्याभिषेक समारोह मनाना हम लोगों के लिए घोर लज्जा की बात है।" विद्यालय में पढ़ते समय नागपुर के सीताबर्डी के किले पर अंग्रेजों के झण्डे ‘युनियन जैक' को देखकर उन्हें बड़ी बेचैनी होती थी और मन में लालसा जगती थी कि उसके स्थान पर भगवा झण्डा फहराया जाए। एक दिन एक अनोखी कल्पना उनके मन में उभरी कि किले तक सुरंग खोदी जाए और इसमें से चुपचाप जाकर उस पराये झण्डे को उतारकर उसकी जगह अपना झण्डा लगा दिया जाये। तद्नुसार उन्होंने अपने मित्रों सहित सुरंग खोदने का काम शुरू भी किया था।


वे जब नागपुर के नीलसिटी हाईस्कूल में पढ़ रहे थे, तभी अंग्रेज सरकार ने कुख्यात रिस्ले सक्र्युलर जारी किया। इस परिपत्र का उद्देश्य विद्यार्थियों को स्वतन्त्रता-आन्दोलन से दूर रखना था। नेतृत्व का गुण केशवराव हेडगेवार में विद्यार्थी अवस्था से ही था। पाठशाला के निरीक्षण के समय उन्होंने प्रत्येक कक्षा में निरीक्षक का स्वागत 'वन्देमातरम्' की घोषणा से करने का निश्चय किया और उसे सफलता के साथ पूरा कर दिखलाया। विद्यालय में खलबली मच गयी, मामला तूल पकड़ गया और अंत में उस सरकार-मान्य विद्यालय से उन्हें बाहर निकाल दिया गया। फिर यवतमाल की राष्ट्रीय शाला में उन्होंने मैट्रिक की पढ़ाई की, किन्तु परीक्षा देने से पूर्व ही वह शाखा भी सरकारी कोप का शिकार हो गयी। 'काल' और 'केसरी' सरीखें समाचार-पत्रों के आग उगलते लेख, लोकमान्य तिलक के गरजते भाषण, अंग्रेजी साम्राज्यवाद का दमनचक्र, बंग-भंग के विरोध में उभरा उग्र आन्दोलन, क्रान्तिकारियों के साहस भरे कार्य और उनका बलिदान आदि बातें, केशवराव पर असर करतीं गयी। उन्होंने सन् 1910 में कलकत्ते के नेशनल मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी की शिक्षा के लिए प्रवेश लिया ताकि उनका बंगाल के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क आ सके और बाद में वह वैसा ही कार्य विदर्भ में कर सकें। वहाँ पुलिनबिहारी दास के नेतृत्व में 'अनुशीलन समिति' नामक क्रान्तिकारियों की एक टोली काम कर रही थी। इस समिति के साथ केशवराव का गहरा संबंध स्थापित हुआ और वे उसके अंतरंग में प्रवेश पा गये। कलकत्ते के मेडिकल कॉलेज में पाँच वर्ष का पाठ्यक्रम पूरा कर वह 'डाक्टर' बन गये। इस पाँच वर्ष के कालखण्ड में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अगुवाई करने वाले नेताओं का उन्होंने स्नेह प्राप्त किया। स्थान-स्थान के क्रान्तिकारियों से उनकी घनिष्ठता बढ़ी और उन सभी को शस्त्रास्त्र इधर-से-उधर गुपचुप पहुँचाने के काम में उनकी सावधानी, संयम, योजकता आदि गुणों का परिचय प्राप्त हुआ। इस काम में प्रान्त और भाषा की अड़चन उनके आड़े नहीं आयी। बंगाली भाषा उन्होंने भली-भाँति सीख ली थी और अनेक लोगों से मैत्री-संबंध जोड़ लिए थे। बाढ़, महामारी आदि संकटों के समय उन्होंने अपने तरुण मित्रों को साथ लेकर परिश्रमपूर्वक नि:स्वार्थ सेवा की। केशवराव जब डॉक्टरी की उपाधि प्राप्त कर नागपुर वापस आये और लोकमान्य तिलक के अनुयायी बनकर कांग्रेस के आन्दोलन में कूद पड़े। लोकमान्य तिलक के प्रति डॉक्टर साहब की इतनी भक्ति थी कि एक बार जब कलकत्ते की एक जनसभा में एक वक्ता ने तिलक जी को अपशब्द कहे तो डॉक्टर साहब ने मंच पर जाकर उसे ऐसा जोरदार थप्पड़ मारा कि उसका थोबड़ा लाल हो गया। वे पूर्ण स्वतन्त्रता के पक्षधर थे और अपनी यह बात बड़े आग्रह के साथ रखा करते थे। जहाँ भी अवसर मिलता, वे अत्यन्त उग्र एवं उत्तेजक भाषण दिया करते थे। डॉक्टर साहब ने काँग्रेस के अन्दर ही उग्र विचारों का एक गुट खड़ा किया था। सन् 1919 का काँग्रेस-अधिवेशन अत्यन्त तनावपूर्ण वातावरण में अमृतसर में सम्पन्न हुआ और अगले वर्ष का अधिवेशन नागपुर में करने का निश्चय किया गया। अमृतसर के अधिवेशन में डा० हेडगेवार उपस्थित थे। सन् 1915 से 1920 तक नागपुर में रहते हुए डॉक्टर साहब राष्ट्रीय आन्दोलनों में अत्यन्त सक्रिय रहे। प्रवास, सभा, बैठक आदि कार्यक्रमों में वे सदा व्यस्त रहा करते थे। किन्तु तरुणों में पूर्ण स्वतन्त्रता की आकाँक्षा धधकाने पर वे विशेष ध्यान देते थे। हाथ में लिए काम में अपने आप को झोंक देने, सहयोगियों को जोड़ने और नि:स्वार्थ भाव से काम करने के उनके गुणों के कारण नेता लोगों को उनका सहयोग अत्यन्त मूल्यवान् प्रतीत होने लगा। स्वयं को जो लगता था उसे बिना लाग-लपेट के बड़े नेताओं के सामने रखने का साहस भी डॉक्टर जी में था। सन् 1920 के नागपुर काँग्रेस अधिवेशन में उनके इन गुणों का अनुभव सबको हुआ और मतभेदों के होते हुए भी संस्था के अनुशासन का पालन करने का उनका एक और अनुकरणीय गुण भी सबको देखने को मिला। अधिवेशन में आए साढ़े चौदह हजार प्रतिनिधियों की सुख सुविधा और अन्य व्यवस्थाएँ संभालने के लिए डॉ०ल०वा पराङजपे और डॉ० हेडगेवार के नेतृत्व में एक स्वयंसेवक दल का गठन किया गया था। यह सारी जिम्मेदारी उन्होंने इतने अच्छे ढंग से निभाई कि वे सभी की प्रशंसा के पात्र बन गये ।


सन् 1922 से 1925 तक के तीन वर्षों का वह काल उनके गहरे विचार-मंथन का काल कहा जा सकता है। तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए डॉक्टर साहब इस व्यावहारिक निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि अलगाववाद पर चलने वाले मुस्लिम कट्टरपंथियों तथा उनको उकसाने वाले अंग्रेजों का सफलतापूर्वक सामना करना है तो उसका एकमात्र उपाय यह है कि यहाँ के वास्तविक राष्ट्रीय समाज यानि हिंदू समाज को संगठित किया जाय। उनकी दृष्टि में समस्त समस्याओं को सुलझाने का एकमेव मार्ग भी यही था।


डाक्टर साहब जिन दिनों अपना जीवनकार्य तय कर रहे थे, उन दिनों हिंदू राष्ट्र का विचार वायुमण्डल में पहले से ही विद्यमान था। सार्वजनिक कार्य करने के जो तरीके उन दिनों प्रचलित थे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जिस प्रकार के प्रयत्न किए जा रहे थे, उनसे अलग हटकर उन्होंने अपनी प्रतिभा से 'शाखा' की एक नयी पद्धति खोज निकाली। अनुशासनपूर्वक नित्य चलाई जा सकने वाली इस पद्धति में स्थायी संस्कार देने की क्षमता थी। इस पद्धति की मुख्य बात यह थी कि नियमित रूप से कुछ समय देने की लोगों को आदत डाली जाये और उनके मन की धीरे-धीरे राष्ट्र के लिए ही तन-मन-धन पूर्वक जीने की तैयारी करवायी जाये। संगठन की अपनी यह कल्पना उन्होंने अनेक लोगों को बतायी और उस पर उनसे चर्चा भी की। किन्तु उन दिनों के बड़ी आयु के सार्वजनिक कार्यकर्ताओं को वह ठीक से समझ में नहीं आयी। अंत में मुट्ठी भर तरुणों की एक बैठक बुलाकर डॉक्टर साहब ने घोषणा कर दी कि "हम संघ की स्थापना कर रहे हैं।" वह युगाब्द 5027 अर्थात् सन् 1925 की विजयादशमी का पवित्र दिन था। इस पहली बैठक में संघ स्थापना की घोषणा अवश्य हुई, किन्तु नाम तय नही हुआ। फिर भी, ऐतिहासिक महत्व की बात यह कि उस दिन संघ-कार्य का बीज बोया गया। लम्बे चिन्तन के पश्चात् उन्होंने अपने जीवन-कार्य का शुभारम्भ पुरुषार्थ की प्रेरणा देने वाले उस राष्ट्रीय पर्व पर किया। उस समय डॉक्टर साहब की उम्र मात्र 36 साल थी। तथा उसके पास न पैसा है, न कोई साधन; पीछे न कोई बड़ा नेता है और न हिंदू राष्ट्र के विचार को जनता में मान्यता ही है। उल्टे, परिस्थिति पूरी तरह विपरीत है। हिंदू समाज अनेक जाति, पंथ, भाषा और प्रान्तों में विभाजित होने के कारण दीर्घकाल से गुलामी में रहता आ रहा था। हिंदू राष्ट्र की बात समझना तो दूर, वैसा बोलना भी निरा पागलपन माना जाता था।


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