विजयादशमी

विजयादशमी (आश्विन शुक्ल दशमी)

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उत्सव प्रसंग

1. अपनी परम्परा में आश्विन शुक्ल दशमी अक्षय स्फूर्ति, शक्तिपूजा एवं विजय प्राप्ति का दिवस है। दैवी तथा दानवी प्रवृति में संघर्ष तथा दैवी प्रवृति द्वारा दानवी प्रवृति पर प्राप्त विजय का यह एक दिव्योज्ज्वल प्रतीक है। किसी भी शुभ सात्विक तथा राष्ट्र-गौरवकारी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह मुहूर्त सर्वोत्तम माना गया है। विजय की अदम्य प्रेरणा इसके द्वारा उत्पन्न होती है। यह उत्सव आसुरी शक्तियों पर दैवी शक्तियों की विजय का प्रतीक है।
2. सतयुग में भगवती दुर्गा के रूप में दैवी शक्ति ने महिषासुर का मर्दन किया। त्रेता में श्रीराम ने वनजातियों का सहयोग लेकर, उन्हें संगठित कर दुष्ट रावण की आसुरी शक्ति का विनाश किया। द्वापर में इसी प्रकार श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में दैवी शक्तियों ने आसुरी शक्तियों का विध्वंस किया।
3. इस दिन शस्त्र पूजन की परम्परा है। बारह वर्ष के वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास के पश्चात् पांडवों ने अपने शस्त्रों का पूजन इसी दिन किया था तथा उन्हें पुन: धारण किया था।
4. प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हिन्दुत्व का स्वाभिमान लेकर हिन्दू पद-पादशाही की स्थापना करने वाले छत्रपति शिवाजी द्वारा सीमोल्लंघन की परम्परा का प्रारम्भ इसी दिवस से हुआ था।
5. रामलीला तथा दुर्गापूजा को इस विजयशाली दिवस की पावन स्मृति लोक-मानस में बनाए रखने की दृष्टि से ही मनाया जाता है।
6. राष्ट्र-जीवन में शक्ति का निर्माण करने के लिए संकल्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य इसी दिन के शुभ मुहुर्त से प्रारंभ हुआ।

शक्ति-उपासना व विजय प्राप्ति का पर्व 

संघे शक्ति कलोयुगे। दुर्गा संघटित शक्ति की प्रतीक। शस्त्र-पूजा भी शक्ति का प्रतीक है। शस्त्र-संचालन के अभ्यास से पौरुष, पराक्रम, साहस, उत्साह, व उमंग का संचार, सीमोल्लंघन याने पराक्रम होता है। उद्देश्य की पूर्ति हेतु संघ शक्ति संचय में लगा है। यह शक्ति आज देश में फैली प्रभात, प्रौढ़, सांय व रात्रि शाखाओं तथा विश्व हिन्दू परिषद्, विद्यार्थी परिषद्, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय किसान संघ, विद्या भारती आदि के रूप में प्रकट हो रही है।

संघ दृष्टि से महत्व

संघ के लिये विजयादशमी का अत्यन्त महत्व है। प.पू. आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार जी ने नागपुर में आश्विन शुक्ल दशमी संवत् 1982 तदनुसार 27 सितम्बर 1925 ई. के इसी दिन संघ कार्य की स्थापना की। पतित, पराभूत, आत्मविस्मृत तथा आत्मविश्वास-शून्य हिन्दू राष्ट्र में नव चैतन्य, आत्मविश्वास एवं विजय की आकांक्षा निर्माणकर उसकी सिद्धि के लिए शक्ति की उपासना हेतु उसे प्रवृत्त करने के निमित्त यह उत्सव एक परम्परा-प्राप्त साधन ही है।

वर्तमान परिस्थिति

पाश्विक और आसुरी शक्ति की उपासना, संघ का मंतव्य नहीं। अन्यायी अत्याचारी तो घबराएँ किन्तु सज्जन संवर्द्धन पाएँ, संघ ऐसी शक्ति चाहता है। कोरी अहिंसा नहीं सुहाती। शक्ति के संबल से ही अहिंसा जीवित रह सकती है | वर्तमान परिस्थितियों में हिन्दू समाज की संगठित शक्ति ही सभी समस्याओं का एक अचूक निदान है।
सामर्थ्यमूलं स्वातंत्र्यमं श्रममूलं  च वैभवम् 
न्यायमूलं सुराज्यं स्यात् संघ मूलं महाबलम् 

“स्वतंत्रता सामर्थ्य पर आधारित है, वैभव परिश्रम से प्राप्त होता है, सुराज्य उसी को कहेंगे जहाँ न्याय सुलभ हो तथा शक्ति का मूल संगठन है।”

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