शाखा चलाने हेतु शिक्षण विधि

 शाखा चलाने हेतु शिक्षण विधि

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प्रतिदिन शाखा द्वारा ही हम अपना ध्येय साध्य कर सकेंगे ऐसी दृढ श्रद्धा और वह शाखा मैं दृढतापूर्वक चलाऊगा, ऐसा निश्चय हर शिक्षक का होना चाहिए यदि वह निश्चय हुआ तो शाखा चलाने के लिए सभी प्रकार की कुशलता वह प्राप्त कर सकता है। शाखा चलाने के लिए शाखा का समय छोड़कर अन्य समय में व्यक्तिगत संबंध बढ़ाना, नये लोगों की शाखा में भर्ती करना और शाखा में स्वयंसेवकों का गुण-वर्धन हो, इस प्रकार के कार्यक्रम योजनापूर्वक उत्तम रीति से लेना आवश्यक रहता है।


एक स्वयंसेवक उत्तम शिक्षक बनते समय निम्न बातों पर ध्यान देता है :- 

1. स्वयं कुछ प्रयोग करना,

2. उन प्रयोगों का वर्णन व स्पष्टीकरण कैसे करना चाहिए ?

3. प्रयोग का विभाजन कैसा करना चाहिए ? 

4. उपर्युक्त बातें समझकर उसके वैयक्तिक और सांघिक काम में कुशलता, चपलता और सौंदर्य इत्यादि आते है क्या ? 

5. प्रयोगों में अंकताल या सीटी का उपयोग कैसे किया जाता है ? 

6. गलतियाँ ध्यान में कैसे आती हैं और उनमें सुधार कैसे किया जाता है? 

7. गण पर नियंत्रण रखने के लिए क्या करना चाहिए ? 

8. आज्ञाएँ किस प्रकार देनी चाहिए ?

9. आज्ञाओं का अर्थ क्या है ? 

10. किसी भी प्रयोग को नए स्वयंसेवकों को किस प्रकार सहजता से सिखाया जा सकता है ? 

ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर देने वाला शिक्षणशास्त्र ही शिक्षणविधि है। संघ शिक्षा वर्गों में इस शास्त्र को शिक्षार्थियों के मन में पक्का बिठाने के लिए शिक्षणविधि के अंतर्गत दिए गए बिंदुओं को रोचकता से बताना चाहिए। केवल भाषण ही न देते हुए अलग-अलग प्रयोग करवाकर इन बिंदुओं को समझाना चाहिए | 


1. गण की संरचना :- 

शिक्षक के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उसका गण पर पूर्ण नियंत्रण हो और अच्छा तभी हो सकता है जब गण के प्रत्येक स्वयंसेवक को यह अनुभव हो कि शिक्षक की दृष्टि उस पर है। इसके लिए योग्य प्रकार से गण की रचना करना आवश्यक है। गण की संरचना करते समय निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए। 

1.1. विषय : अलग-अलग विषयों के लिए दो स्वयंसेवकों के तथा दो ततियों के बीच में कम / अधिक अन्तर की आवश्यकता होती है। 

1.2. स्वंयसेवकों की संख्या : समता विषय को छोड़कर अन्य सभी विषयों में लगभग चौरसाकृति रचना उपयोगी सिद्ध होती है। 

1.3. सहजता तथा निर्भयता : कोई भी प्रयोग स्वयंसेवक सहजता से तथा निर्भयता से (जेसेः-बाजू के या पीछे के स्वयंसेवक का दण्ड लगने का डर न हो) कर सके। अतः पर्याप्त व उचित अन्तर रखना चाहिए। 

1.4. सुन्दरता : गण की लम्बाई तथा गहराई में रचना का सौन्दर्य रहे। 


2. दर्शनकक्षा :- 

गण पर नियंत्रण रहने हेतु सभी स्वयंसेवक शिक्षक की “दर्शनकक्षा” में हो। दर्शनकक्षा प्रत्येक की अलग-अलग होती है । वह प्रयत्न करके अपनी दर्शनकक्षा का विस्तार कर सकता है। 

प्रयोग : गण को तति में खड़ा कर एक स्वंयसेवक को गण के आगे अधिक दूरी पर गण की ओर मुख करके गण के मध्यभाग के सीध में खड़ा करना और उस गण के मध्य के स्वयंसेवक को देखते हुए एक-एक कदम आगे बढ़ने के लिए कहना, वह तब तक आगे बढ़ता जाएगा, जब तक सामने की ओर देखते हुए भी उसे गण के दोनों छोर के स्वयंसेवक भी दिखाई देते रहेंगे। जिस स्थान से आगे बढ़ने पर उस छोर के स्वयंसेवक दिखना बंद हो जाएँगे, वही स्थान उसके खड़े रहने के लिए उचित है, क्योंकि वहाँ से वह सब स्वयंसेवकों को सुविधा से देख सकेगा। दोनों छोर के स्वयंसेवकों के द्वारा उनकी आँखों पर जो कोण बनेगा, वहीं उस स्वयंसेवक शिक्षक की “दर्शनकक्षा”होगी ।


3. गण की लंबाई :-

प्रयोग : गण को दण्ड सिखाने के लिए दो-दो स्वयंसेवकों के बीच पर्याप्त अंतर देकर उन्हे एक तति में ही खड़ा करवाना और एक स्वयंसेवक को शिक्षक बनाकर उसके गण के सामने इतने अन्तर पर खडे रहने के लिए कहना जिससे सब स्वयंसेवक उसकी दर्शनकक्षा में रहें। पहले की अपेक्षा अब उसे अधिक दूर खड़ा होना पड़ेगा, इस बात की ओर ध्यान दिलाकर स्वयंसेवको को यह समझाना कि दूर खड़े रहने पर गण के स्वयंसेवक़ों को अपनी बात सुनाने एवं समझाने तथा उनकी गलतियाँ पकड़ने में कठिनाई होगी।

इसके बाद गण की क्रमशः दो, तीन, चार ततियाँ बनवाना और लंबाई कम होने से शिक्षक गण के अधिक निकट खड़ा हो सकता है, यह बात उनके ध्यान में लाना। दूसरा यह सिद्धांत बताना कि गण की लंबाई जितनी कम रहेगी, शिक्षक उतना ही गण के पास खड़ा हो सकेगा।


4. गण की गहराई :- 

सामने केवल दो स्वयंसेवक खड़े कर शेष स्वयंसेवकों को उनके पीछे प्रतति में खड़ा करना । सामने की तति में दो ही स्वयंसेवक होने के कारण शिक्षक उनके काफी निकट खड़ा हो सकेगा, कितु प्रतति का अंतिम स्वयंसेवक शिक्षक से बहुत दूर हो जाएगा। यह बात ध्यान में दिलाते हुए स्वयंसेवकों को समझाना कि गण को उतनी ही ततियों में बॉँटना चाहिए जिससे प्रथम तति की लम्बाई भी कम हो और सबसे पीछे की तति का स्वयंसेवक भी बहुत दूर नहीं जाए।

दण्डयुद्ध, निःयुद्ध तथा योगचाप विषय हेतु गण की तत्तियाँ सम संख्या { 2,4,6.........) में हीं रखनी चाहिए । एक-एक स्वयंसेवक को गण की एक विशिष्ट संख्या, एक विषय तथा एक विशिष्ट स्थान बताकर गण को योग्य रचना में खड़ा करने के लिए कहना चाहिए ओर उसकी त्रुटियाँ सुधारते हुए गण की संरचना के सिद्धान्त को स्पष्ट करना चाहिए ।


5. आज्ञाएँ :- 

आज्ञा का उद्देश्य स्वयंसेवकों से अपेक्षित कार्य करवाना है। आज्ञा के सर्वसाधारण रूप से दो भाग होते है--

1. सूचनात्मक शब्द 2. आदेशात्मक शब्द 

जैसे:- वाम/दक्षिण/अर्धवृत आज्ञाओं में वाम, दक्षिण, अर्ध सूचनात्मक शब्द है तथा वृत आदेशात्मक शब्द है | 

अ) आज्ञा के पश्चात्‌ कौनसा काम करना है, इस विषय में स्वयंसेवकों के मन में संभ्रम न हो और वह काम ठीक प्रकार से उनकी समझ में आए, यह सूचनात्मक शब्द का उद्देश्य है। इसलिए सारे स्वयंसेवक सुन सकें इतनी ऊंची आवाज और समझ सकें इतना स्पष्ट और धीमी गति से उच्चारण करते हुए शिक्षक को सूचनात्मक शब्द कहना होगा। सूचनात्मक शब्द सुनने पर आगे की आज्ञानुसार काम करने के लिए स्वयंसेवक तैयार और सावधान रहेंगे |

आ) आज्ञापालन के लिए सारे स्वयंसेवकों के सावधान रहने पर उनका काम एक साथ, चपलता से और सुन्दरता से हो, यह आदेशात्मक शब्द का उद्देश्य रहता है | इस उद्देश्य पूर्ति के लिए यह शब्द अधिक ऊँची आवाज से और एकदम तोड़कर कहना चाहिए, जिससे सारे स्वयंसेवकों की कृति एक साथ आरम्भ हो सके। 

इ) आज्ञा देने के पहले संबोधनात्मक शब्द जैसे गण, संघ, वाहिनी आदि का प्रयोग किया जाता है। इन शब्दों का साधारणतः कब उपयोग किया जाना चाहिए, इसकी जानकारी स्वयंसेवकों को देना आवश्यक है। 

ई) आज्ञाओं के दो भाग सूचना और आदेश के बीच यति (निश्‍चित समय का विराम) देना आवश्यक है। इस यति के कारण प्रयोग समझ में आने के लिए और उसके लिए तैयार रहने के लिए स्वयंसेवकों को समय मिलता है। 

अभ्यासार्थ :- प्राथमिक समता के “दक्ष” से “प्रचलन” तक की आज्ञायें । 


8. अंकताल :- 

स्वयंसेवकों को सांघिकता के लिए अंकताल या सीटी का उपयोग किया जाता है । अंकताल कृति की पूर्णावस्था पर दिए जाते हैं। अतः आज्ञा के बाद किंचित रुक कर अंकताल आरम्भ करना चाहिये। 

अभ्यासार्थ :- व्यायामयोग - 1 से 16 प्रयोग करते समय अंत से पहला अंक जोर से कहना चाहिए जिससे स्वयंसेवक समझ जायें कि प्रयोग समाप्त होने वाला है ।

समता :- 1. स्थिर स्थिति में वर्तन के अंकताल 1-1-2 

              2. प्रचलन के अंकताल 1-2, 1-2 

अंकताल की जगह पर सीटी का उपयोग :- अंकताल की जगह पर सीटी बजाकर कार्य करने का अभ्यास भी स्वयंसेवकों से कराना चाहिए। सीटी बजाते समय जीभ का उपयोग करना चाहिए | 

उपर्युक्त विषयों में सीटी बजाकर कार्य कराने के साथ-साथ आचार विभाग से संबंधित सभी प्रकार की सीटी का अभ्यास भी करवाना चाहिए। 


7. प्रयोग का वर्णन :- 

प्रयोग सिखाने के पहले प्रयोग का वर्णन करना चाहिए। वर्णन करते हुए प्रदर्शन भी करते जाने से प्रयोग स्वयंसेवकों को अधिक अच्छी तरह समझ में आता है। प्रयोग कौनसा सिखाना है, उसका नाम बताते हुए अब तक सिखाए गए प्रयोग में जो नहीं है, ऐसी नई बात इस प्रयोग में कौनसी है, उसे विशेष रूप से स्पष्ट करना चाहिए। 

जैसे :- 1. सिरमार क्रमिका 3 में - ऊनवृत 

2. द्विमुखी क्रमिका 2 में - परिवृत 

3. प्रचल में - वर्तन 

नई विशेषता का स्पष्टीकरण करते समय उसका प्रदर्शन करने से वह ठीक प्रकार से ध्यान में आती है । प्रयोग का वर्णन करते समय गण के सभी छोर के स्वयंसेवकों को शिक्षक की आवाज सुनाई देनी चाहिए। इसलिए स्वयंसेवकों को सुनाई देने वाली आस-पास की सभी आवाजों से शिक्षक की आवाज ऊँची होनी चाहिए। 

प्रयोग के वर्णनात्मक शब्दों का उच्चारण करते हुए कार्य करने के लिए कहना चाहिए। जैसे – 

1. सिरमार क्रमिका 2 - सिरमार क्रमिका 1 व अर्धवृत 

2. निःयुद्ध - पार्श्वास्थि - कर्णमूल - करमूल से हनु.नासिका, सूर्यचक्र-करपुट, कहना और करवाना 

3. दण्डयुद्ध में शिरोघात, कुंभाघात, कोष्ठाघात, जंघास्थि, अधोजंघास्थि, आदि नाम लेकर साथ-साथ आघात करना।


8. प्रयोग का विभाजन :-

प्रयोग सीखनेवालों को प्रयोग बहुत सरल लगे, इस पद्धति से सिखाना चाहिये । इस हेतु और सिखाने की सुविधा के लिए भी प्रयोग के छोटे-छोटे अनेक विभाग करना आवश्यक होता है | 

जैसे :- 1. प्रचल में अर्धवृत 2. सिरमार क्रमिका 3, इन सभी प्रयोगों के छोटे विभागों में विभाजित कर कार्य कराया जाता है। इस समय प्रयोग के नाम के पश्चात्‌ विभागशः 1 कहकर पहला विभाग करना चाहिए और बाद में केवल 2,3,4 कहते हुए आगे के विभाग करना चाहिए। 

जैसेः- सिरमार क्रमिका 3 विभागशः 1 में केवल सिरमार क्रमिका 1 और अर्धवृत का काम करना। 2 में ऊनवृत व अर्धवृत करना और 3 में पुनः ऊनवृत्त व अर्धवृत करना ।

प्रत्येक क्रमांक के पूर्व विभागशः शब्द जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। जब छोटे-छोटे विभाग के अनुसार स्वयंसेवकों को कार्य करना आ जाए तब उनके 2-2. 3-3 विभागों को जोड़कर एक बड़ा विभाग बनाकर कार्य करना चाहिए। जब प्रयोग के विभाग बिलकुल समान होते हैं, तब विभागशः की जगह क्रमशः शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैसे द्वय में दो और चतुष्क में चार समान भाग होते हैं। 

जैसेः- सिरमार क्रमिका 2 द्वय या चतुष्क 

द्विमुखी क्रभिका 2 चतुष्क आदि।

 

9. प्रयोग का प्रदर्शन :- 

वर्णन के पश्चात्‌ जिस प्रयोग का भाग शिक्षक स्वयंसेवको से कराना चाहता है, वह कर के दिखाना आवश्यक है । प्रदर्शन करते समय निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए ।

क) स्वयंसेवक जिस मोहरे पर देखते हुए हैं, उसी मोहरे पर देखते हुए शिक्षक प्रयोग प्रदर्शन करे। अन्यथा स्वयंसेवकों के मन में मोहरे के (दिशा के) बारे में भ्रम हो सकता है और प्रयोगों में अनावश्यक गलतियाँ या कठिनाई निर्माण हो सकती है। 

ख) शिक्षक के प्रदर्शन में जितनी कुशलता, चपलता या सौंदर्य रहेगा, उसमें से ही स्वयंसेवक अधिक ग्रहण करते हैं, इसलिए किंचित्‌ भी गलती न करते हुए तथा चपलता और सौंदर्य के साथ धीमी गति से प्रयोग का प्रदर्शन करना चाहिए ।

ग) प्रदर्शन करते समय शरीर का पूर्ण संतुलन तथा शरीर के अवयवों की हलचल, दृष्टि, मार, इन सबका समन्वय आवश्यक है ।


10. प्रयोग की कार्यवाही :- 

प्रयोग की कार्यवाही करते समय निम्न बातों पर ध्यान रखना आवश्यक है । 

जैसे :- स्वयं दक्ष में खड़े रहना । पर्याप्त दूरी पर खड़े रहना जिससे सभी स्वयंसेवक दर्शनकक्षा में हो । आज्ञाएँ ठीक प्रकार से देना । संबोधनात्मक, सूचनात्मक, आदेशात्मक शब्द का ठीक से उच्चारण करना तथा यति को भी ध्यान में रखना । अंकताल में कृति और अंकताल का समय एक ही रहता है। अंकताल कब प्रारंभ होता है ? दंड में शिरमार कुरु कहने के बाद 1 का अंक तब आता है जब स्वयंसेवक एक की स्थिति मे पहुँच जाता है। इनका अर्थ यह नहीं कि स्वंयसेवकों को देखकर जिस गति या ढंग से वे कार्य करें  वैसा शिक्षक के द्वारा अंकताल दिया जाना चाहिए अपितु इसका अर्थ केवल इतना ही है कि आज्ञा के पश्चात्‌ और अंकताल के पहले जितनी कृति अपेक्षित है, उसके लिए आवश्यक समय का अंतर देकर ही शिक्षक अंकताल देना प्रारंभ करे। भिन्न-भिन्न उदाहरणों द्वारा कुरु एवं पहले अंकताल के बीच के अंतर की बात स्वयंसेवकों को समझानी चाहिए | 


विषयानुसार अंकताल देने की पद्धति में अंतर - 

समता, व्यायामयोग, दंड, सूर्यनमस्कार, योगासन आदि विषयों में भिन्न प्रकार से अंकताल दिए जाते हैं। इन सबका प्रात्यक्षिक कर स्वयंसेवकों को सही अंतर समझाना चाहिए | 


कुछ सूचनाएँ :- 

1. गण का वातावरण आनंददायक और अनुशासनबद्ध हो। 

2. शिक्षक दंड का आधार लेकर खड़ा न हो। 

3. जो प्रयोग करवाना है, उसकी पूर्व तैयारी आवश्यक है। 

4. क्रोध नहीं करना |

5. अपमानजनक शब्दों का प्रयोग नहीं करना तथा पैर से स्पर्श करके सुधार नहीं करना | 

6. प्रयोग का वर्णन करते समय गण को “स्वस्थ“ स्थिति में रखना | 

7. गण ध्वजाभिमुख रहे, ध्वज की ओर पीठ न हो | 

8, अभ्यास के समय त्रुटियाँ दूर करनी चाहिये । 

9, शिक्षक के पास सीटी अवश्य रहनी चाहिये । 

10. सूर्यनमस्कार करते समय भी गण का मुँह ध्वजाभिमुख ही रहे क्योंकि ध्वज सूर्य का ही प्रतीक है ।

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