घोष समता

घोष समता

Ghosh Samta

घोष केंद्र में कनिष्ठतम 3 आनक-वादक, 3 शंख-वादक, 6 वंशी-वादक; पणव, त्रिभुज, इल्लरी का एक-एक वादक तथा घोषप्रमुख मिलाकर घोष की संख्या 16 होती है तथा 4 आनक-वादक, 8 शंख- वादक, 8 वंशी-वादक, पणव, झल्लरी, त्रिभुज का एक- एक वादक और घोष प्रमुख को मिलाकर घोष की संख्या 24 होती है। इस प्रकार आनक, शंख, वशी का अनुपात क्रम से 1:1:2 और 1: 2:2 होता है। उसी तरह 6 आनक वादक होने पर 35 का घोष बनेगा। इन को निम्नानुसार खड़ा किया जा सकता है।

घोषप्रमुख
आनकवादक आनकवादक आनकवादक
त्रिभुजवादक पणवादक इल्लरीवादक
वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक
वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक
शंखवादक शंखवादक शंखवादक
(16)

घोषप्रमुख
आनकवादक आनकवादक आनकवादक आनकवादक
त्रिभुजवादक       पणवादक         इल्लरीवादक
वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक
वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक
शंखवादक शंखवादक शंखवादक शंखवादक
शंखवादक शंखवादक शंखवादक शंखवादक
(25)

घोषप्रमुख
आनकवादक आनकवादक आनकवादक आनकवादक
त्रिभुजवादक       पणवादक         इल्लरीवादक
शंखवादक शंखवादक शंखवादक शंखवादक
शंखवादक शंखवादक शंखवादक शंखवादक
शंखवादक शंखवादक शंखवादक शंखवादक
आनकवादक       पणवादक         आनकवादक
वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक
वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक
वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक वंशीवादक 
(35)

सभी ततियों और विततियो में दो कदम का अंतर रहेगा। अपेक्षित संख्या से कुछ कम वादक हो तो बाहरी विततियां तथा पिछली तति पूर्ण कर अंदर के स्थान रिक्ति रखने चाहिए। घोष-प्रमुख घोष की चौड़ाई के अनुसार पर्याप्त अंतर लेकर, घोष की प्रथम तति से सम-द्विभुज त्रिकोण की स्थिति में खड़ा होगा।

घोष साधनम्

1. अग्रेसर :- 

घोष-प्रमुख द्वारा यह आज्ञा दिए जाने पर, निश्चित किया हुआ अग्रेसर आनक-वादक 'दक्ष' करके संचलन करते हुए घोष-प्रमुख के संमुख तीन कदम पर खड़ा होगा।

2. अग्रेसर आरम् :- 

अग्रसर आरम् करेगा।

3. घोष संपत् :- 

इस आज्ञा पर, सब वादक 'दक्ष' कर, प्रचलन करते हुए, यथानिर्देश संपत् करेगे। दो स्वयंसेवकों के बीच दो कदम का अंतर रहेगा । आनक, वंशी, शंख के दल-प्रमुख अपने-अपने दलों के वादकों के स्थान निश्चित करने में घोषप्रमुख की सहायता करेगे। अग्रेसर आरम् करने के उपरान्त, हरेक वादक, सामने ओर दाहिनी ओर के वादक आरम् करने के पश्चात क्रमश: आरम् करेगे।

4 & 5. दक्ष और सम्यक् :- 

संपत् पूर्ण होने पर, घोष-प्रमुख “दक्ष” और “सम्यक्” आज्ञा देकर, स्वयं अंतर और सम्यक् का निरीक्षण करेगा; तथा 

6 & 7. संख्या व आरम् :- 

“संख्या” व “आरम्” आज्ञाओं के पश्चात संख्या लेकर, आनक-वादकों के प्रथम तति के मध्य से, चौड़ाई के अनुसार, कम से कम पांच कदम आगे, समद्विभुज त्रिकोण में अपना स्थान ग्रहण करेगा। यदि घोष की चौड़ाई अधिक हो, तो घोषपुमुख पर्याप्त अंतर पर खड़ा रहेगा।

8. संख्या :- 

इस आज्ञा पर, वितति का अंतिम स्वयंसेवक, वितति के पहले स्वयंसेवक को संख्या बताएगा। यदि पणव-वादक की संख्या किसी वितति में जोडी नहीं गयी है, तो उसकी तथा घोषप्रमुख की संख्या, स्वयं घोषप्रमुख द्वारा जोड़ी जाएगी। पश्चात् घोषप्रमुख सभी वाद्यं तथा उन के स्वरों का स्वर-मेलन कराते हुए,आनक, वंशी, शंख इन वाद्य का एक बार सांधिक वादन लेकर, घोष को तैयार रखेगा। 

उपरोक्त संपूर्ण प्रक्रिया को “घोष-साधनम्” कहते हैं।

घोष-समता

प्रचल :-

घोष संपत् के वर्णनानुसार सब स्वयंसेवक प्रचल करेगे। चलते समय केंद्र से तथा सामने से सम्यक् देखना तथा अपने वाद्य की स्थिति पर ध्यान रखना चाहिए । प्रथम तति के स्वयंसेवक इस प्रकार चलेंगे, ताकि घोषप्रमुख और उन के बीच का अंतर तथा स्थिति बनी रहें।

दक्षिण (वाम) दिगंतर दक्षिण (वाम) भ्रम :- 

इस आज्ञा अथवा संकेत के बाद प्रथम (अंतिम) वितति के स्वयंसेवक तीन मीटर की त्रिज्या से बनने वाले वृत्त की परिधि पर दस कदमों में यह मंडलच्छेद (1/4 मंडल), 50 से.मी. के कदम डालते हुए भ्रमण करेंगे ओर शेष विततियों के स्वयंसेवक उनसे क्रमशः दीर्घतर कदम डालते हुए, तति का सम्यक् देखते हुए भ्रमण करेगे । स्वयं घोषप्रमुख मध्य के स्वयंसेवक के समान, उसी के त्रिज्या पर, अंतर कायम रखते हुए भ्रमण करेगा।

प्रतिभ्रम :- 

'अर्धवृत' आज्ञा देने से घोष का व्यूह बदल जाता है। घोषप्रमुख घोष के आगे रहै तथा घोषव्युह में भी कुछ बदल न हो, इसलिए 'प्रतिभ्रम' का प्रयोग करते है । तथापि आवश्यकता पड़ने पर 'अर्धवृत्' के बाद "प्रचल" आज्ञा दे सकते है। प्रतिभ्रम की आज्ञा होते ही, विततियो की संख्या सम होने पर, घोषप्रमुख के बायीं ओर के स्वयंसेवक बायीं ओर से तथा दाहिनी ओर के स्वयंसेवक दाहिनी ओर से; और विततियो की संख्या विषम होने पर, सभी स्वयंसेवक दाहिनी ओर से, घोषप्रमुख व प्रथम तति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर घोषप्रमुख से आगे जाकर, चार ह्रस्व पदों में पीछे घूमकर, अपनी वितति के पास से विरुद्ध दिशा में चलेंगे। वितति का प्रत्येक स्वयंसेवक उसी स्थान पर पहुंचकर प्रतिभ्रम करेगा, जहां से उस वितति के प्रथम स्वयंसेवक ने प्रतिभ्रम किया है। 

पणव-वादक भ्रमण-रेखा के कुछ आगे जाकर दाहिनी ओर से भ्रमण करेगा। वितति में न होने पर, पणव-वादक घोषप्रमुख (कि पीछे) से सम्यक् लेगा । प्रतिभ्रम करने के लिए चलते समय पणववादक घोषप्रमुख को अपने दाहिने बाजू में रखकर आगे बढ़ेगा।

घोषप्रमुख जब घोष के आगे चल रहा हो, जब उसका स्तभ् होकर रुकना ही प्रतिभ्रम का संकेत माना जाएगा। यह संकेत होने पर, प्रथम तति के स्वयंसेवक चौड़ाई के अनुसार, घोषप्रमुख से जितना अंतर है, उतना ही अंतर उससे आगे जाकर उपरोक्त पद्वति से भ्रमण करेगे। प्रात्यक्षिक के समय छोटे मोटे बदलाव से प्रतिभ्रम के अनेक प्रकार हो सकते है। घोषप्रमुख घोष के सामने न हो ऐसी स्थिति में, प्रतिभ्रम अपेक्षित हो, तो आनक -दल प्रमुख की आज्ञा पर घोष प्रतिभ्रम करेगा।

मंदचल :- 

यह आज्ञा देते समय 'मंद' तथा 'चल' के बीच में अधिक समय तक रुकना चाहिए। आवर्तनात्मक गति के अनुसार संकेत अपेक्षित है। चलते समय कमर के ऊपर शरीर सीधा और हाथ 'दक्ष' की स्थिति जैसे रहेंगे।

स्थिर स्थिति से मंदचल :- 

विभागशः हो तो अंकों के अनुसार, अन्यथा ताल के अनुसार करना। बायां पैर 75 से.मी. आगे बढ़ाकर रखते ही तुरंत दाहिना पैर 37.5 से.मी. आगे लेना। दाहिना पंजा जमीन से साधारणतः समानांतर और “दक्ष” स्थिति जैसा कुछ बाहर की ओर मुड़ा रहेगा। शरीर का भार बाएं पैर पर रहेगा। इसी स्थिति में क्षण भर रुककर दाहिने पैर के साथ सारा शरीर 37.5 से.मी. आगे बढ़ाकर, दाहिना पैर जमीन पर रखना। एड़ी पहले रखनी चाहिए। दाहिना पैर रखते ही बायां पैर उठाकर, झटके से दाहिने पैर से 37.5 से.मी. आगे बढ़ाना। शरीर का भार उस समय दाहिने पैर पर ही रहेगा। इसी प्रकार मंदचल की गति में आगे बढ़ते जाना।

मंदचल से स्तभ् :- 

बाएं पैर पर आज्ञा पूर्ण होगी। पश्चात् दाहिना पैर मंदचल की गति से आगे लेकर, बाएं पैर से मिलाना।

मंदचल से प्रचल :- 

आज्ञा दाहिने पैर पर समाप्त होगी। पश्चात् बायां पैर मंदचल गति से रखते ही प्रचलन प्रारंभ करना।

प्रचल से मंदचल :- 

आज्ञा बाएं पैर पर समाप्त होगी। पश्चात दाहिना व बायां पैर प्रचल की गति से रखकर, दाहिना पैर मंदचल की गति से डालना। बायां पैर रखते ही हाथों की हलचल बंद होगी।

सूचना :- 

विकिर या विश्रम आज्ञा के पश्चात् बाकी स्वयंसेवक के साथ घोष के स्वयंसेवक भी विकिर या विश्रम करेगे। आवश्यकता होने पर घोषप्रमुख बाद में वादकं को 'वामवृत्' दे सकता है।

वादन प्रारम्भ

“घोष सिद्ध” आज्ञा होते ही समस्त ताल (अवनद्ध एवं घन) वाद्यों के वादक “सिद्ध” स्थिति में आएंगे। पश्चात् घोषप्रमुख जिस वाद्य का वादन अपेक्षित है, उस दल का नाम पुकारेगा ;- 'आनक-दल' 'शंख-दल' या 'वशी-दल'। तत्पश्चात् अपेक्षित लय के अनुसार घोषप्रमुख 'एक दो, एक दो' अथवा 'एक दो तीन, एक दो तीन' के अंक आज्ञा के रूप में देगा। प्रति दो मध्य में कम से कम दो सेकंड का अंतर छोड़ना चाहिए। केरवा और खेमटा के लिए 'एक दो, एक दो ' तथा दादरा के लिए 'एक दो तीन, एक दो तीन' अंक अंकताल के रूप में देना चाहिए। यदि 'प्रचल' या ‘मंदचल' आज्ञा दी जाती है, तो इस प्रकार अंक कहने की आवश्यकता नहीं होगी। (उदा; कोई खास रचना का वादन अपेक्षित हो, तो घोषप्रमुख -'घोष सिद्ध'-(दो सेकंड यति) 'शंखदल, रचना चेतक' ऐसी सूचना देकर, 'एक दो, एक दो' अंकताल देगा; पश्चात् वादन प्रारंभ होगा) उसी अंक के लय में आनक का रणन प्रारंभ होगा। जिस वाद्य-वादन की सूचना होगी, उस वाद्य के वादक रणन के साथ ही 'सिद्ध' स्थिति लेंगे। उस वाद्य का दल प्रमुख, दो रणनों के मध्य की यति में, रचना का नाम पुकारेगा। रणन समाप्त होने पर उस रचना के वादन का प्रारंभ होगा।

सामान्यतः शंख में अग्रवादन के बाद अनुवादन होता है। संख्या पर्याप्त होने पर आनक में भी इसी प्रकार अग्रवादन-अनुवादन कर सकते हैं तथा वंशी वादन सब मिलकर एक साथ ही करते हैं। अग्रवादन करने वाले वादकों को अग्रवादक एवं अनुवादक करने वाले वादकों को अनुवादक कहते हैं।

घोष प्रमुख का दायित्व

घोष के सुयोग्य गठन, प्रशिक्षण तथा संचालन में घोष प्रमुख का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इसलिए अन्य स्थानों पर बतायी गयीं बातों के अतिरिक्त, निम्नलिखित मुद्दों की ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है।

स्वयंसिद्धता

1. स्वर तथा ताल का ज्ञान प्राप्त करना।
2. कम से कम एक वाद्य में वादन-प्राविण्य प्राप्त करना, तथा शेष सभी वाद्यों एवं उनकी रचनाओं की जानकारी रखना।
3. समता करने तथा आज्ञा देने में प्रभुत्व प्राप्त करना।
4. गणवेश तथा अनुशासन में स्वतः का आदर्श प्रस्तुत करना।
5. किसी भी संदर्भ में उचित निर्णय लेने की क्षमता रखना।
6. घोषदंड द्वारा संकेत तथा शोभाचलन का स्वयं ठीक अभ्यास करना।
7. घोष की शिक्षण-विधियों तथा लिपि का अच्छा ज्ञान रखना।
8. स्वयंसेवकों का ध्यानाकर्षण करने की दृष्टि से अपने पास सीटी रखना।

संघटनात्मक

1. सब स्वयंसेवकों को साथ में ले जाने का संगठन- कौशल रखना।
2. सभी घोष-वादकों के साथ अच्छा संपर्क रखना ।
3. घोष भी शारीरिक विभाग का ही एक अंग है यह ध्यान में रखते हुए, घोष का अभ्यास-वर्ग तथा अन्य कार्यक्रम तय करते समय, अधिकारी व शारीरिक शिक्षण-प्रमुख के साथ विचार विनिमय करते हुए निर्णय लेना।
4. सब स्वयसेवकों के साथ मधुर संभाषण तथा योग्य व्यवहार करना।
5. घोष में नए स्वयंसेवकों को जोड़ने की प्रक्रिया सदैव जारी रखना।

वाद्य तथा वादन

1. वाद्यों के अनुरक्षण (मरम्मत) की योग्य व्यवस्था करना। इसी के साथ समारंभ अथवा अन्य कार्यक्रम के लिए बाहर गांव जाते समय तथा आने के बाद भी वाद्य की सही देखभाल करना।
2. सभी वाद्यों को बादन-योग्य रखना तथा वाद्यों की संख्या में आवश्यकतानुसार वृद्धि करना।
3. आनक ओर पणव खोलकर फिर से जोड़ने तथा कसने की विधि का अच्छा ज्ञान रखना।
4. घोष सिखाने की दृष्टि से सप्ताह में एक बार शाखा के रूप में घोष- वर्ग लेना। इस वर्ग मे सब स्वयंसेवक शाखा वेश मे ही आएं ऐसा आग्रह रखना।

कार्यक्रमात्मक

1. कार्यक्रम के 10-15 दिन पहले से सब वाद्य को वादनयोग्य बना कर ठीक तरह से रखना, तथा कार्यक्रम की पूर्वसिद्धता करना।
2. कुल कार्यक्रम में घोष का स्थान, बजाने योग्य रचनाएं, व्यूह-रचना, आदि के बारे में सब संबंधित अधिकारियों के साथ मिलकर योजना तैयार करना।
3. कार्यक्रम से आधा घंटा पहले घोष का संपत् कर, प्रत्येक वादक के गणवेश और वाद्य का निरीक्षण; तथा एक बार सांघिक वादन कराते हुए घोष को तैयार रखना।
4. वादक अपना गणवेश अच्छा बनाते और पहनते हैं इसके बारे में सतर्क रहना।
5. वादक अपना वाद्य उत्तम अवस्था में रखें इसका आग्रह करना।
6. पथ-संचलन का मार्ग पहले ही देखकर, कीन सा वाद्य कहां बजाना इसका अंदाजा लेना उचित रहेगा।
7. कार्यक्रम मे पूर्व 5 दिन, नित्य घोष-वर्ग लेना योग्य होगा।

वाद्यों की व्यवस्था एवं शोभा

घोष की सुश्राव्यता के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि सब वादकं को अपने वाद्य के वादन का उत्तम अभ्यास हो। घोष को अधिक प्रभावकारी बनाने के लिए उसकी दर्शनीयता पर भी ध्यान देना चाहिए। इस लिए जहां सभी वादकों का गणवेश उत्तम हो, वहां वाद्यों का साफ-सुथरा एवं चमकदार होना भी वांछनीय है। इस दृष्टि से कुछ बातों पर ध्यान देना उचित होगा।

घोषदंड :- 

घोषदंड का कलश, शेष तथा शेषपुच्छ पॉलिश किया हुआ तथा चमकीला होना चाहिए। शेष पर ठीक प्रकार से अलंकार करने चाहिए। उपयोग के बाद घोषदंड उस की थैली में ठीक तरह से किसी आधार पर अथवा अन्य व्यवस्था में रखना चाहिए, जिससे वह नीचे गिरकर क्षतिग्रस्त न हो, या अपने ही वजन से अथवा अन्य किसी कारण उस पर कोई दबाव आकर वह टेढ़ा न बन जाए।

पणव तथा आनक :- 

इनके दंडगोलाकार कोष तथा वलयो का रंग ओर चमक अच्छी हो इसका ध्यान रखना चाहिए। पणव तथा आनक के चर्मबंध पक्के सिले हुए हो। वादन के बाद उनके चर्मबंध या शलाकाएं (रॉड्ज) तथा आनक के तात भी ढीले करके रखना चाहिए। चर्मबंध या शलाकाओं को ढीले करते अथवा कसते समय परस्पर विरुद्ध दिशा के चर्मबंध या शलाकाओं को ढीला करना अथवा कसना चाहिए। पणव एवं आनक के चर्म या प्लास्टिक के आवरणो तथा तांत को दीमक व चूहों से बचाना अतीव आवश्यक है। इसी लिए आनक एवं पणव थैली, संदूक या अलमारी में सुरक्षित रखना चाहिए्। आनक की शोभा-रश्मियां साफ- सुथरी ओर सफेद होनी चाहिए। पणव एवं आनक के पट्टे भी साफ और चमकीले करने चाहिए। सभी आनकवादकों की शारिकाओं का रंग साधारणतः एक सा हो, तो दिखने मे उत्तम रहता है। वर्ष में कम से कम एक बार, सब आनक एवं पणव पूरी तरह से खोलकर साफ करना तथा फिर से जोड़कर कसना उचित रहेगा।

शंख एवं वंशी या अन्य सुषिर वाद्य :-

वादन के पश्चात् इन वाद्यं को पानी से धोकर रखना चाहिए प्रत्येक कार्यक्रम के पहले इनको चमकीले बनाना आवश्यक है। कार्यक्रम में वादन के पूर्व शंख को "रश्मि" बांधना शोभावर्धक होगा।

उपवीतक :- 

'उपवीतक' (रेशम या अन्य चमकीले कपड़े की रंगीन पट्टी) पहनने से घोष की शोभा तथा आकर्षकता और बढ़ती है। उपवीतक भिन्न-भिन्न रंगों के हो सकते हैं; कितु एक प्रांत में एक ही रंग तथा प्रकार के उपवीतक रखना उचित होगा। इसे 'सव्य' पद्धति से धारण करना चाहिए। यदि उपवीतक का उपयोग दायित्वदर्शक चिन्ह के रूप में करते हुए, वाहिनी-प्रमुख, अनिकिनी-प्रमुख, मुख्य-शिक्षक आदि उपवीतक धारण करते हैं, तो घोष में केवल घोष प्रमुख उपवीतक धारण करेगा।

प्रत्येक वाद्य के लिए अलग-अलग थैली या पेटिका होना उचित रहेगा। अन्य उपकरण जैसे, त्रिभुज, इल्लरी, शारिका, तालक, पट्टे, कसने की शलाकाएं इत्यादि तथा अलंकरण की वस्तुएं जैसी रश्मियां, शोभारशिमयां, उपवीतक आदि संदूकों या अलमारियों में सुव्यवस्थित ढंग से अलग-अलग रखना अपेक्षित है। वाद्यों, उपकरणों तथा अलंकरण की वस्तुओं के योगक्षेम तथा व्यवस्थित अनुरक्षण की दृष्टि से एक सुयोग्य व्यक्ति को दायित्व सौंप देना उचित होगा।


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