घोषदंड एवं संकेत

घोषदंड एवं संकेत

घोषदंड द्वारा घोष का संचालन किया जाता है। घोष-वादन न हो, तब आज्ञाएं मौखिक ही होंगी, तथा वादन में घोषदंड द्वारा ही आज्ञाएं दी जाएंगी। घोषदंड के आकर्षक घुमाने से घोष की शोभा बढ़कर वह अधिक प्रेक्षणीय बनता है। घोषदंड का उपयोग दो प्रकार से किया जाता है। 1. संकेत व 2. शोभाचलन।

घोषदंड

Ghosh dand

घोषदंड के तीन प्रमुख अंग होते हैं। 1. कलश, 2. शेष तथा 3. शेषपुच्छ। कलश और शेषपुच्छ प्रमुख धातु के बने होते हैं; और इन दोनों के मध्य भाग को शेष कहते हैं। "शेष" लकड़ी, फायबर या बेंत का बनाया जाता है। कलश गोलाकार तथा पोला होता है। उस के विविध प्रकार भी हो सकते हैं। कलश के ऊपर "स्वयमेव मूरगेंद्रता" सिंह की प्रतिमा बिठाई जाए तो अधिक अर्थपूर्ण और शोभादायक होगा। घोषदंड दर्शनीय हो इसलिए, शेष पर विविध प्रकार के अलंकार किए जाते हैं। शेष की जंजीर (चेन) से सजावट करने से, हाथ को चाटे आने की संभावना रहती है।

घोषदंड की ऊंचाई सामान्यतः घोष प्रमुख के कंधे तक होती है। उसका संतुलन बिंदु कलश के नीचे वाले हिस्से से करीब 20 से.मी. की व्याप्ति (Range) में हो तो, शोभाचलन के लिए सुविधाजनक होता है। संकेत तथा शोभाचलन करने के लिए घोषदंड का वजन संतुलित रखना चाहिए।

घोषदंड समता

Ghosh dand Samta

1) दक्ष :- घोषदंड दाहिने हाथ में, दाहिना प्रकोष्ठ जमीन से समानांतर, दाहिनी कोहनी में समकोण, दाहिने पैर की उंगलियों की दिशा में दाहिना हाथ, भुजा शरीर से सरी हुई, शेषपुच्छ दाहिनी पादांगुलि के पास जमीन पर । बायां हाथ शरीर से सा हुआ।

2) आरम् :- बायां पैर बायीं ओर, बायां हाथ "दक्ष" की स्थिति मे। दाहिना हाथ कंधे से कलाई तक सीधा करते हुए, घोषदंड दाहिने कर्णकोन में, दाहिने पैर की उगलियां की दिशा में।

3) स्वस्थ :- घोषदंड की पकड़ कुछ ढीली कर, आवश्यकतानुसार हाथ नीचे-ऊपर कर सकते हैं।

4) प्रचल :- प्रचल करते समय घोषदंड का कोई भी शोभाचलन किसी भी हाथ से किया जा सकता है। घोषदंड-रहित हाथ संचलन के नियमानुसार हिलाना चाहिए।

5) स्तभ् :- दाहिना पैर बाएं से मिलाना; घोषदंड 'दक्ष' को स्थिति में।

6) प्रार्थना के समय :- शेषपुच्छ वहीं रखते हुए घोषदंड दाहिने हाथ से बाएं हाथ में; बाएं हाथ को स्थिति, 'दक्ष' में घोषदंडयुक्त दाहिने हाथ की स्थिति जैसी होगी। दाहिना हाथ प्रार्थना की स्थिति में।

सूचनाः

1. उपरोक्त सभी क्रियाएं घोषदंड बाएं हाथ में पकड़कर भी की जा सकती हैं। तथापि आरम् के समय यदि घोषदंड बाएं हाथ में हो, तो बाएं पैर के साथ शेषपुच्छ भी उठा कर बायीं ओर रखना अवाश्यक होगा।
2. 'ध्वजप्रणाम' आज्ञा के बाद जब वादन अपेक्षित है, तब केवल घोष प्रमुख घोष प्रतिनिधि के रूप में ध्वज प्रणाम करेगा; तथा वादन अपेक्षित न हो, तब घोष के सभी स्वयंसेवक ध्वज प्रणाम करेंगे। ऐसे संदर्भ में "ध्वज प्रणाम" आज्ञा के पश्चात् , पहले अंक पर दाहिना हाथ, सब वाद्यो तथा घोषदंड की स्थिति "प्रार्थना के समय" के दाहिने हाथ,
वाद्यो तथा घोषदंड की स्थिति जैसी रहेगी; दूसरे अंक पर नतमस्तक और तीसरे अंक पर 'दक्ष' स्थिति के अनुसार हाथों, वाद्यो तथा घोषदंड की स्थिति रहेगी।
3. केवल ‘ध्वजारोपणम्’ तथा 'प्रत्युत प्रचलनम्’ के पश्चात् ही ‘ध्वजप्रणाम’ का वादन अपेक्षित है। अन्य समय में सब के साथ वादक भी ध्वज प्रणाम करेंगे।

घोषदण्ड संकेत

घोषदंड द्वारा दिए गए आज्ञाओं को 'संकेत' कहते हैं। घोषदंड द्वारा दिए जानेवाला संकेत के सामान्यतः तीन भाग होते हैं। 1. पूर्व सूचना, 2.सूचना, 3. पालनार्थ संकेत। संकेत का यह तीसरा भाग विशेष महत्व का होता है। इनकी हरेक कृति में स्पष्टता और लयबद्धता होनी चाहिए। प्रत्येक संकेत ठीक ढंग से वादकों को दिखायी दें इसकी सतर्कता घोषप्रमुख को बरतनी चाहिए। 'पालनार्थ' संकेत के पूर्व, संचलन गति के कम से कम चार अंक तक घोषदंड को उसी स्थिति में रखना चाहिए। वादन में निमग्न वादकों का ध्यान संकेत की ओर आकर्षित करने के लिए पणव पर ध्वंकारद्रय बजाना उपादेय होगा। संकेत करते समय घोष प्रमुख का वादकों के सम्मुख रहना आवश्यक है, जिससे सब को संकेत दृगोचर हो सकें।

घोषदंड के संकेत बाएं हाथ से करने से उनके अर्थ में कोई अंतर नहीं पड़ता। रात्रि के समय, घोषदंड के स्थान पर प्रकाशिका अथवा अन्य माध्यम का प्रयोग किया जा सकता है। घोषदंड के संकेत में वाद्यनिर्देश तथा गत्यंतर के संकेत 'पूर्वसूचनात्मक' हैं। वादनात,चल व स्तभ् संकेतों से 'सूचना' तथा 'पालनार्थं' निर्देश मिलता है। भ्रम के संकेत से भ्रमण की 'सूचना' मिलती है, जिस का पालन घोष प्रमुख से प्रारंभ होकर, बाद में ततिशः होता है।

घोषदंड के संकेत निम्नानुसार होते हैं।

1) वादनान्त :- 

Ghosh Dand Vadananta

“1” शेषपुच्छ दाहिने हाथ मे, तर्जनी घोषदंड पर कलश की ओर, हाथ कर्णरेखा मे सीधा ऊपर, कलश आकाश की
ओर, घोषदंड जमीन से लंबरूप। यह स्थिति वादनान्त की सूचना होगी । 

“2” दाहिना हाथ नीचे लाना, प्रकोष्ठ जमीन से समानांतर, भुजा शरीर से सटी हुई, घोषदंड जमीन से लंबरूप, प्रकोष्ठ तथा भुजा में 90 अंश का कोण। यह क्रिया सामान्यतः चरण के अंतिम गणारंभ के प्रारंभ में पूर्ण होगी।

विशेष आवश्यकता होने पर, किसी भी गणारंभ के प्रारंभ में संकेत पूर्ण किया जा सकता है। “चल” स्थिति में यह संकेत मिलने पर, वादन मात्र रुकेगा; प्रचल (मंदचल) उसी गति में जारी रहेगा।

2) वाद्यनिर्देश :- इसके चार प्रकार होते हैं।

VadyaNirdesh

आनक :- दाहिने हाथ की पकड़ 'दक्ष' स्थिति जैसी रखकर घोषदंड दोनों हाथों में जमीन से समानांतर; हाथ सीधे नीचे, दाहिनी मुष्टि की उंगलियां तथा बायां मुष्टिपृष्ठ सामने की ओर।

वंशी :- घोषदंड कंधो के सामने जमीन से समानांतर, दोनों हाथों में पकड़ने की स्थिति आनक-वाद्य निर्देश जैसी; हाथ कोहनी में पूर्णतः मुड़े हुए।

शंख :- घोषदंड दोनों हाथों में पकड़ने की स्थिति आनक-वाद्यनिर्देश जैसी, हाथ कर्णरेखा में सीधे ऊपर, घोषदंड जमीन से समानांतर।

शृंग :- घोषदंड पर हाथों की पकड़ आनक-वाद्य निर्देश जैसी। बायां हाथ कंधे की सीध में सामने जमीन से समानांतर। घोषदंड जमीन से साधारणतः 45 अंश का कोण करता हुआ, दाहिना हाथ सीधा सामने से ऊपर तिरछा।

3) वाद्यनिर्देश सहित वादनान्त :- 

Vadya Nirdesh Sahit Vadananta

“वाद्यनिर्देश” पूर्व सूचनात्मक होने से संकेत पूर्ण नहीं होता बल्कि उसके साथ 'वादनान्त' जोड़ने पर ही संकेत पूर्ण होता है। उसके बाद, रणन आरंभ कर निर्देशित वाद्य पर पूर्वघोषित रचना बजायी जाती है। यह प्रक्रिया विशेषत: अनुवाद के समय सोलह अंको में कर सकते हैं। पहले आठ अंक “वाद्यनिर्देश” का संकेत दिखाने के लिए, यह संकेत की "पूर्वसूचना” है; ‘वादनान्त' संकेत में हाथ बदलने के लिए नौवां और दसवां अंक; ग्यारह से चौदहवे अंक ‘वादनान्त' संकेत दिखाने के लिए, यह संकेत की सूचना है; पंद्रहवे अंक पर संकेत पूर्ण होना चाहिए। सोलहवे अंक का अंतर छोड़कर, बाद में शोभाचलन कर सकते है। यह प्रक्रिया रचना के किसी भी चरण मे कर सकते हैं।

4) चल :- यह संकेत दो प्रकार का होता है। 1. प्रचल और 2. मंदचल।

Chal, Prachal and Mandchal

प्रचल :- “1” शेषपुच्छ आकाश की ओर करते हुए दाहिना हाथ कर्णरेखा मे सीधा ऊपर, कलश कंधे के ऊपर किन्तु दूर, घोषदंड जमीन से लंबरूप जमीन से लंबरूप। यह “चल” की पूर्वसूचना होगी।  “2” दाहिना हाथ कोहनी में मोड़कर कलश कंधे के निकट सामने की ओर, घोषदंड जमीन से लंबरूप। यह 'पालनार्थं' संकेत है। यदि संकेत दाहिने पैर पर पूर्ण होता है, तो अगले बाएं पैर से अथवा संकेत बाएं पैर पर पूर्ण होता है, तब दाहिने पैर का अंतर छोडकर, अगले बाएं पैर से चलना प्रारंभ करेगे।

मंदचल :- “1” दाहिने हाथ में घोषदंड पकड़ने की स्थिति प्रचल “1” की स्थिति के समान, घोषदंड सहित सीधा दाहिना हाथ दाहिनी ओर तिरछा, करीब 135 अंश के कोण में । यह 'सूचना' है। “2” घोषदंड की स्थिति वही रखते हुए दाहिना हाथ कोहिनी में मोड़कर, कलश सीने के सामने। यह ‘पालनार्थं' संकेत होगा।

मंदचल से प्रचल :- 'प्रचल' संकेत दाहिने पैर पर समाप्त होगा । पश्चात् बायां पैर मंदचल की गति से रखते ही प्रचलन प्रारंभ होगा।

प्रचल से मंदचल :- 'मंदचल' संकेत बाएं पैर पर समाप्त होगा। पश्चात् दाहिना व बायां पैर प्रचल की गति से रखकर, अगला दाहिना पैर मंदचल की गति से रखना। बायां पैर रखते ही हाथों की हलचल बंद होगी।

5) स्तभ् :- 

Stabh

“1” शेषपुच्छ पकड़कर हाथ सीधा बाजू में तिरछा, शरीर से साधारणतः 110 अंश का कोण बनाता हुआ, कलश सिर पर आवे इस प्रकार घोषदंड तिरछा। यह स्तभ् की ' सूचना ' है। “2” कलश उसी बिंदु पर स्थिर रखते हुए, दाहिना पैर आगे लाते समय, दाहिना हाथ ओर शेषपुच्छ सीने के सामने लाना। भुजा ओर प्रकोष्ठ प्रणाम जैसी स्थिति में। इस से “पालनार्थ' संकेत मिलता है। पश्चात् उसी ताल में बायां पैर आगे रखकर, उससे दाहिना पैर मिलाना। मंदचल के स्तभ् में भी इसी प्रकार की कृति करना। वादन के साथ प्रचल (मंदचल) के समय यह संकेत मिलने पर, प्रचल (मंदचल) का ‘स्तभ् ' होगा और वादन उसी गति में जारी रहेगा।

6) वादनान्त सहित स्तभ् :- 

“1”. वादनान्त विभागशः ‘1' की क्रिया “2”. स्तभ् 'सूचना" की क्रिया। (यदि वादनान्त संकेत से ही हाथ नीचे लाया गया तो वादको मे संभ्रम उत्पन्न हो सकता है। इसलिए उसी स्थिति से हाथ सीधा ’स्तभ्’ संकेत की ओर लेना चाहिए। "3". स्तभ् 'पालनार्थं' याने स्तभ् विभागशः '2' का संकेत देना। इससे वादनान्त तथा प्रचल अथवा मंदचल स्तभ् एक साथ होगा।

7) भ्रम :- इसमे दक्षिण, वाम और प्रति ये तीन प्रकार के भ्रमण समाविष्ट हैं।

Dakshin Bhram, Vaam Bhram

दक्षिण भ्रम :- घोषदंड सीने के समीप जमीन से समानांतर, दाहिना हाथ प्रणाम के स्थिति जैसा घोषदंड पकड़ा हुआ, कलश दाहिने कंधे के सामने, बायां हाथ बायी ओर सीधा तना हुआ, चारो उगलियां सीधी मिलायी हुयी, बायीं हथेली सामने की ओर, शेष बाएं हाथ के अंगूठे तथा तर्जनी के मध्य रखा हुआ, शेषपुच्छ बायीं ओर। इससे दक्षिण-भ्रम की 'सूचना' मिलती है।

वामभ्रम :- हाथ और घोषदंड की दिशा बदलकर उपरोक्त दक्षिण भ्रम संकेत जैसी क्रिया करना। इससे वाम भ्रम की 'सूचना' मिलती है। घोषप्रमुख के भ्रमण के साथ ही भ्रमण की क्रिया प्रारंभ होगी। प्रथम दो ततियों का भ्रमण पूर्ण होने पर घोषदंड पूर्व स्थिति में लाना। पथ संचलन का एक अंग बनकर घोष पथक संचलन करते समय अथवा 'वाम' भ्रमण का संकेत अलग से देने की आवश्यकता नहीं है।

प्रति भ्रम :- 1. (चल स्थिति में) संचलन करते समय घोष प्रमुख स्तभ् कर “दक्ष” स्थिति में खड़ा रहेगा। यही "प्रति भ्रम” का संकेत होगा। 2. (स्थिर स्थिति में) प्रचल संकेत देने के बाद कम से कम एक पद पुरस्सर करते हुए घोष प्रमुख 'दक्ष' स्थिति में खड़ा होगा अथवा घोष प्रमुख अर्धवृत् कर, प्रचल या मंदचल का संकेत देगा। यही ' प्रतिभ्रम' का संकेत होगा।

8) गत्यंयर :- वादन की गति बदलने के लिए यह संकेत है। 

शेषपुच्छ का थोड़ा ऊपर का हिस्सा दाहिने हाथ में, तर्जनी घोषदंड की दिशा में, घोषदंड दाहिने बाजू में, दाहिना हाथ और घोषदंड एक ही सीध में शरीर से साधारणत: 135 अंश का कोण बनाते हुए, शेषपुच्छ प्रकोष्ठ पर। यह गत्यंतर की "पूर्वसूचना” है । घोषदंड की दिशा तथा कोण वही रखते हुए दाहिना हाथ सीने के पास लाना, कोहनी में प्रणाम की स्थिति जैसा मुड़ा हुआ। यह गत्यंतर “पालनार्थ” संकेत है। चल स्थिति में यह संकेत मिलने पर वादन के साथ चलने की गति भी बदलेगी।

सूचना :-

1. मौखिक आज्ञाओं का प्रयोग वादन प्रारंभ करने तक ही करें। तत्पश्चात् घोषदंड के माध्यम से ही संकेत देना चाहिए।
2. “पूर्व सूचना' या 'सूचना' के उपरांत, एक चरण तक यदि कोई “पालनार्थ” संकेत नहीं दिया गया है, तो उस पूर्व सूचना" या 'सूचना' को निरस्त माना जाए।
3. प्रचल, मंदचल, स्तभ्, वादनांत सहित स्तभ्, भ्रमण, तथा गत्यंतर के संकेत, वादन के किसी भी बिंदु पर दिए जा सकते हैं।

शोभाचलन

एक संकेत पूर्णं होकर दूसरे संकेत तक, बीच मे घोष की शोभा बढ़ाने के हेतु घोषदंड घुमाया जाता है। उसे शोभाचलन' कहते हैं। शोभाचलन निम्न प्रकार का होता है।

घोषदंड :-

1. शरीर के बाजू में वृत्ताकार घुमाना।
2. शरीर के सामने वृत्ताकार घुमाना।
3. ऊपर उडाना।
4. प्रणाम जैसी स्थिति में शरीर के सामने घुमाना।
5. अन्य प्रकार।

घोषदंड के उपरोक्त शोभाचलन में हमारी प्रतिभा तथा कौशल के अनुसार अन्यान्य उप- प्रकार का शोभाचलन भी कर सकते है। उसी तरह से शोभाचलन में प्रदर्शनीय विन्यास अनेक विध से किए जा सकते है। लेकिन उन सबका प्रयोग करना ही चाहिए ऐसा कोई बंधन नहीं है।

सूचना :-

1. शोभाचलन का अभ्यास पहले दंड के साथ करना तथा आत्मविश्वास व पकड़ आने पर घोषदंड के साथ शोभाचलन करना उचित होगा।
2. शोभाचलन के सभी प्रकार अनिवार्यतः प्रयोग मे लाना ही चाहिए ऐसा नहीं है। जिनका प्रयोग सही अर्थ मे शोभावृद्धि करेगा ऐसा आप को लगता है, उन्हीं प्रकारो का णोभाचलन करना ठीक रहेगा।
3. विशेष कार्यक्रमों के संदर्भ में शोभाचलन का प्रयोग उत्कृष्ट होगा इसका ध्यान रखा जाए।
4. किसी भी प्रकार का शोभाचलन करते समय, घोष प्रमुख अपने स्थान तथा घोषदंड की गरिमा एवं मर्यादा का विशेष ध्यान रखेगा।

संकेत के विन्यास में स्थिति झटके से ओर आवर्तनात्मक गति में स्थिर होती है। वे लयबद्ध होते हैं तथा सुनिश्चित अर्थ स्पष्ट करते है। शोभाचलन गति में स्थिति गतिमान होने से उस में से किसी सुनिश्चित अर्थ, संकेत या आदेश की अपेक्षा नहीं है। यह बात संकेत तथा शोभाचलन के बीच की अलगता प्रकट करती है। संकेत ओर शोभाचलन के विन्यासो में साधर्म्य या सादृश्यता होने पर संकेतों के संबंध में संभ्रम निर्माण हो सकता है। ऐसी अवस्था मे संकेतों को सही महत्त्व देना आवश्यक है। घोषदंड के किसी विन्यास से संभ्रम उत्पन्न न हो इसकी सावधानी घोषप्रमुख को रखनी चाहिए।


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