घोष परिचय
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समग्र हिंदु समाज को संगठित करने के लिए कटिबद्ध है। इस लिए संघ में सामूहिक व्यायाम, समता, संचालन, खेल आदि को विशेष प्राधान्य दिया गया है। सांघिक कार्यक्रम, सांघिक समता, संचलन आदि के साथ सुस्वर लयतालबद्ध घोषवादन भी हो तो सोने में सुहागे की बात बनती है। सामूहिक समता, संचलन, योग व्यायाम आदि प्रांगणीय कार्यक्रमों में सांघिकता, तालबद्धता तथा प्रदर्शनीयता लाने की महत्त्वपुर्ण भूमिका घोष निभाता है। घोष के कारण इन कार्यक्रमों में भव्यता, सांघिकता, उत्साह, व लयबद्धता की निर्मिति होती है। यही कारण है कि हम संघ के कार्यक्रमों में प्रायः प्रारंभ से ही घोष का प्रयोग करते आएं हैं।
प्राचीन काल की सेनाओं में शंख, नगाड़े, तुरही, ढोल आदि वाद्यों के प्रयोग का उल्लेख मिलता है। किंतु उन वाद्यों द्वारा सैनिकों में युद्धोन्माद उत्पन्न करने के अतिरिक्त समता, संचलन में प्रमुख किसी प्रागणीय वादन की परंपरा हमारे अतीत में थी या नहीं, इस संबंध में अधिक कुछ ज्ञात नहीं हो पाया है। उसी प्रकार अपने प्राचीन संगीत ग्रंथों में सैन्य-व्यूह, समता, संचलन आदि के लिए वाद्यों का प्रयोग तथा तत्संबंधी रचनाओं की जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। ऐसी स्थिति में हमें पाश्चात्य देशों में विकसित घोष पद्धति को अंगीकार करना क्रमप्राप्त था।
दिसंबर 1926 में केवल एक शंख तथा एक ही आनक के साथ संपन्न हुए संघ के प्रथम पथ-संचलन से हमें आनंद और गौरव की अनुभूति अवश्य हुई थी। पंरतु केवल उतने से न हम संतुष्ट थे, न ही अंध परानुकरण हमें अभिप्रेत था। पाश्चात्य वाद्यों के समवेत अनेक भारतीय वाद्यों का समायोजन करते हुए विगत कई दशकों में संघ ने घोष की समग्र संकल्पनाएं, रचनाएं तथा उसके विविध पहलुओं में गणनीय प्रगति की है। उसके पश्चात्, अब तक संघ ने न केवल विभिन्न वाद्यों का अपने घोष में समावेश किया है, वरन् घोष की मूल संकल्पनाओं तथा रचनाओं का भारतीयकरण करने की दिशा में अनेक दृढ़ कदम बढ़ाएं हैं।
भारतीय रागों और तालों पर आधारित अनेक नवीन रचनाओं का निर्माण एवं प्रत्यक्ष प्रयोग किए हैं। इस प्रकार संघ ने घोष को भारतीय रागदारी के आधार पर सुगठित करने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। संघ की आवश्यकताओं के अनुरूप घोष की जो पद्धति विकसित हुई है वही यहां पर दी गयी है। यह कोई घोष या संगीत का विवेचनात्मक लेख नहीं है; न ही इस में संगीत की विविध पद्धतियों के शास्त्रों की गहराई में जाने का प्रयास किया है। संघ की आज की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके इस दृष्टि से 'सामान्य वादकों के लिए सूचनाएं तथा दिशानिर्देश' इतना मात्र इसका स्वरूप रखा गया है। इसमें भी सब बातों का समावेश नहीं किया जा सकता। लेख के अनुसार वादन करने वाले कुशल, अनुभवी शिक्षकों से सीखना चाहिए। उस कार्य में सहायक हो, इतना ही इस लेख का उद्देश्य है।
वाद्यों के प्रकार
1) सुषिर वाद्य :-
सुषिर वाद्य फूँक कर बजाएं जाते हैं। इन में वंशी, नादस्वर, शहनाई, स्वरद आदि वंशीज वाद्य तथा शंख, शृंग, प्रतूर्य, गोमुख, पौंडू, वेणु आदि शंखज वाद्यो का समावेश होता है। कपित पत्ती, अवरुद्ध वायु आदि के कारण इनमें से ध्वनि उत्पन्न होती है। मुंह में डालकर बजाए जाने वाले वाद्य 'वंशीज', तथा होंठों पर रखकर बजाए जाने वाले वाद्य 'शंखज' कहलाते है।
2) अवनद्ध वाद्य :-
इसे चर्मवाद्य भी कहा जा सकता है । इनमें आनक, पणव, तबला, मृदंग, खर्जानक, पखवाज, चंडे, ढोल आदि का समावेश होता है। तने हुए चर्म अथवा प्लास्टिक आवरण पर हाथ अथवा शारिका से आघात करने से इन वाद्यों में ध्वनि उत्पन्न होती है।
3) घन वाद्य :-
धातु के वाद्य, जैसे त्रिभुज, इल्लरी आदि का इसमें समावेश होता है। नादकारक धातु पर आघात करने से इन वाद्यों में कम्पन्न तथा उसके फलस्वरूप ध्वनि निर्माण होती है।
4) तत वाद्य :-
अर्थात् तंतुवाद्य। ताने हुए तार में कंप तथा उससे ध्वनि उत्पन्न होती है। इसमें सितार, सारंगी, वीणा, वायोलिन, सन्तुर आदि का समावेश होता है। तत वाद्यो का प्रयोग हमारे घोष में नहीं होता, क्योकि वे नाजुक होते हैं; तथा इन वाद्यो की आवाज दूर तक नहीं जाती है। इसलिए प्रागणीय वादन के लिए ये वाद्य उपयुक्त नहीं है।
सामान्यतः जिन वाद्यों का सर्वत्र प्रयोग किया जाता है, उन तथा तत्संबधित समता के बारे में संक्षिप्त जानकारी यहां प्रस्तुत है।
1. आनक
परिचय
आनक का कोश साधारणतः 28 से.मी. ऊँचा, तथा 36 से.मी. व्यास का पीतल, अल्युमिनियम, स्टेनलेस-स्टील, लकड़ी अथवा फायबर का बनाया हुआ दण्ड गोलाकार तथा दोनों ओर खुला रहता है। दोनों ओर चर्म अथवा प्लास्टिक का आवरण लगाया जाता है। यह आवरण पहले धातु या लकड़ी के "अंतर-वलय" पर चढ़ाया जाता है। ऐसे आवरणांकित अंतर-वलय के ऊपर धातु या लकड़ी का ही बाह्यवलय बिठाया जाता है। दण्ड गोलाकार कोश के दोनों ओर बाह्यवलय रखने के बाद रस्सी द्वारा बांधकर या धातु के शलाकाओं द्वारा कसा जाता है. बाह्यवलयों को कसकर आवरणों को ताना जाता है। रस्सी कसने के लिए प्रयुक्त चमड़े या अन्य माध्यम के साधन को “चर्मबंध” कहते हैं। एक आनक में ऐसे आठ चर्मबंध या पांच-छः कसने की शलाकाएं (रॉड) होती हैं। आनक के ऊपर वाले बाह्यवलय पर एक “हुक” लगा रहता है, जिसे "सृणि" कहते हैं। इसी के सहारे आनक पट्टे से लटकाया जाता है। इसी बाह्यवलय पर आनक के छोटे-छोटे "क्षुर" (पाए) भी होते हैं, जिनके आधार पर आनक जमीन पर रखा जाता है । आनक के नीचे वाले आवरण पर "तांत" या लोहे का स्प्रिंग तानकर बांधा जाता है। इसे कसने के लिए एक “नट” की व्यवस्था रहती है। इससे "रणन" की प्राप्ति तथा नियंत्रण में सुविधा होती है। इसीलिए इसे "कंपन-नियंत्रक" भी कहा जा सकता है। आनक का पट्टा दाहिने कंधे से कमर की बायीं ओर आवे इस तरह धारण किया जाता है। इस पट्टे से लटकाने पर आनक का नीचे वाला बाह्यवलय साधारणतः बाएं घुटने के ऊपर रहना चाहिए। आनक का वादन शारिकाओं के आघात से होता है। इसमें एक ही प्रकार का नाद उत्पन्न होता है; जिसे "तंकार" कहते हैं।
शारिकाएं पकड़ने की पद्धति
दाहिने हाथ से :-
सामान्यतः शारिका के मोटे छोर से 10 या 12 से.मी. पर आनेवाले शारिका के संतुलन बिंदु को दाहिने हाथ के अंगूठे तथा तर्जनी के मध्य में रख कर, मोटे छोर वाला हिस्सा अंगूठे के नीचे हथेली के मासल भाग पर, और उसका मोरा छोर मणिबंध के मध्य पर। तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका इनके छोर से शारिका पकड़ी हुई स्थिति में। अंगूठे का छोर तर्जनी पर। शारिका का नियंत्रण तीनों उंगलियों के छोर से करना।
बाएं हाथ से :-
दाहिने शारिका के समान ही बाएं शारिका का संतुलन बिंदु आएगा। अंगूठे से शारिका पकड़ी हुई, उसका मोटा छोर बाहर की ओर; तर्जनी तथा हथेली से सामान्यतः समकोण रहेगा। शेष तीन उगलियां हथेली को न चिपके ऐसी स्थिति में मुड़ी हुई तथा मध्यमा के छोर के आधार पर शारिका टिकी हुई। शारिका का नियंत्रण अंगूठे से करना।
आनक समता
1) दक्ष :-
बायां हाथ ऊपरी बाह्यवलय पर बायीं ओर रखा हुआ, शारिका आनक मध्य पर। दाहिनी शारिका वलय के ऊपर दाहिनी ओर, मुट्ठी वलय के बाहर। दाहिनी शारिका बायीं शारिका पर आनक के मध्य में साधारणतः 90 से 100 अंश का कोण बनाती हुयी।
2) आरम् :-
बायां पैर बाजु में, दाहिना हाथ दाहिने पैर से सटा हुआ, शारिका का छोटा छोर जमीन की ओर, तर्जनी शारिका के ऊपर, बायां हाथ वलय पर ही रख कर, शारिका सामने से तिरछी जमीन की ओर। आरम् से दक्ष करते समय शारिकाएं परस्पर एक बार टकराना।
3) स्थलानक :-
3.1. विभागशः 1. दाहिने हाथ से ऊपरी बाह्यवलय को सुणि के पास तथा बाएं हाथ से निम्न वलय को ठीक दाहिने हाथ के नीचे पकड़ना।
3.2. विभागशः 2. सृणि को पट्टे के छल्ले से निकालकर आनक सामने को ओर जमीन के समानांतर, दोनो हाथों से सहज स्थिति में पकड़ना।
3.3. विभागशः 3. नीचे झुककर, आनक अपने सामने उसकी तांत ऊपर आए ऐसी स्थिति में रखना। इससे सब आनकों का सम्यक् ठीक रहेगा। इस स्थिति में "प्रचल" अपेक्षित होने पर, एक पद "दक्षिण/वाम सर" करते हुए "प्रचल" कर सकते हैं।
3.4. विभागशः 4. दक्ष, दोनों शारिकाओं के छोर जमीन की ओर।
4) स्कंधानक :-
4.1. विभागशः 1. सामने झुक कर, स्थलानक वि, 3. के अनुसार आनक को दाहिने हाथ से सृणि के पास तथा बाएं हाथ से ऊपर के बाह्मवलय को पकड़ना।
4.2. विभागशः 2. स्थलानक के वि.2. की स्थिति।
4.3. विभागशः 3. बाएं हाथ की सहायता से सृणि को पट्टे के छल्ले में बिठाकर दोनों हाथ उसी स्थिति में।
4.4. विभागशः 4. दक्ष स्थिति।
4.5. सांधिक क्रिया आने की दृष्टि से "स्थलानक" तथा "स्कंधानक" आज्ञाएं विभागशः में देना उचित रहेगा।
5) सिद्ध :-
दोनों हाथ ऊपर उठाकर शारिकाओं को नाक के नीचे एक सरल रेखा में जमीन से समांतर इस प्रकार से पकड़ना कि शारिकाओं के नुकीले छोर का लगभग 5 सें.मी. हिस्सा एक दूसरे से सटा रहे। दाहिने शारिका ऊपर तथा बायीं नीचे रहेगी। हाथ सहज स्थिति में।
6) अवनम :-
सिद्ध स्थिति से दक्ष स्थिति में आने के लिए अवनम आज्ञा का प्रयोग करते हैं। "सिद्ध" से "दक्ष" में आते समय शारिकाएं परस्पर एक बार टकराना।
7) प्रचल :-
'1' की स्थिति - बायां पैर तथा दाहिना हाथ आगे, दाहिनी तर्जनी शारिका पर ओर शारिका सामने हाथ की सीध में। बायां हाथ "दक्ष" जैसी स्थिति में।
'2' की स्थिति - दाहिना पैर आगे, बायां हाथ वृत्ताकर घुमाते हुए ऊपर, सिद्ध स्थिति के अनुसार, बायीं शारिका का छोर नाक के नीचे, दाहिना हाथ पीछे।
8) प्रार्थना के समय :-
दोनों शारिकाएं बाएं हाथ में, दाहिना हाथ प्रार्थना की स्थिति में।
सूचना :- वादन प्रारंभ के रणन में तथा चरणान्त पर जब यति आती है, तब शारिकाएं "सिद्ध" स्थिति में लानी चाहिए।
2. पणव
परिचय
पीतल, अल्युमिनियम, स्टेनलेस-स्टील, लकड़ी या फायबर से बना यह वाद्य आनक जैसा ही किन्तु व्यास में बड़ा होता है। सामान्यतः घोष में 72 सेमी. व्यास तथा 28 से.मी. ऊँचाई का पणव उपयोग में लाते है। इसके कोश के दोनों ओर, आनक जैसा ही, चर्म या प्लास्टिक का अवरण लगया जाता है। कितु इस में तांत नहीं होती। इसके दोनों आवरणों पर "तालक" से आघात कर ध्वनि निर्माण की जाती है, जिसे “ध्वंकार” कहते है। तालक सामान्यतः बेंत का होता है। इसके एक छोर पर ऊन का गोलक होता है, जिससे पणव बजाया जाता है। तालक के दूसरे छोर पर एक फन्दा होता है, जिसमें हाथ डालकर तालक के नेत वाले छोर को पकड़ा जाता है। पणव को पट्टे की सृणि में लटकाने के लिए उसके कोश के बहिर्भाग पर मध्य में एक छल्ला रहता है। घोष में पणव का स्थान महत्वपूर्ण है। उसकी ध्वनि बहुत दूर तक पहुंचती है। वादन की लय संभालना, ध्वंकार-द्रय बजाकर संकेतों की ओर वादकं का ध्यान आकर्षित करना, यह पणच-वादक का काम है।
पणव समता
1) दक्ष :-
हाथ सीधे नीचे 'दक्ष' की स्थिति में, तालक का ऊनी गोलक हाथ की सीध में नीचे, तर्जनी वेत पर सीधी, शेष तीन उगलियां तथा अंगूठे से तालक पकड़ा हुआ।
2) आरम् :-
आरम् की स्थिति, हाथ तालक के साथ पीछे; बाएं तालक पर दाहिना तालक।
3) स्थलानक :-
3.1. आज्ञा होते ही, आनक के साथ पणव भी नीचे रखना चाहिए । "स्थल-पणव" ऐसी स्वतंत्र आज्ञा नहीं है ।
3.2. विभागशः “1” और “2” पर, तालक हाथ में रखते हुए, दोनों हाथों से पणव के बाह्यवलय पकड़कर, पणव को पट्टे की सृणि से बाहर निकालना ।
3.3. विभागशः “3” स्थलानक में जैसे आनक सामने रखा जाता है, उसी तरह पणव भी सामने रखना चाहिए।
3.4. विभागशः “4” 'दक्ष' की स्थिति।
3.5. उपविश के बाद समारंभ या अन्य संदर्भ में यदि अधिक समय तक बैठने की अपेक्षा हो, तो पणव-वादक पणव को, आनक की तरह, क्षुरों के आधार पर जमीन पर रखेगा।
4) स्कंधानक :-
4.1. विभागशः 1. झुककर पणव को पकडना।
4.2. विभागशः 2 और 3. पणव को उठाकर सृणि में लटकाना।
4.3. विभागशः 4. "दक्ष" की स्थिति।
5) सिद्ध :-
दोनों हाथ शरीर से कुछ ऊपर उठाना, शरीर और हाथों में साधारणतः 135 अंश का कोण रहेगा। कोहनियां किचित् मुड़ी हुई। तालकों के मध्य भाग में समकोण रहेगा।
6) अवनप :-
वापस 'दक्ष' स्थिति में।
7) प्रचल :-
संचलन पद्धति के अनुसार हाथ हिलाना। तालक की स्थिति 'दक्ष' के समान।
8) स्तभ् :-
समता पद्धति के अनुसार "स्तभ्" करना।
9) प्रार्थना के समय :-
दाहिना हाथ प्रणाम की स्थिति में। तालक "दक्ष" जैसी स्थिति में।
3. त्रिभुज
परिचय
इस्पात के त्रिकोण आकृति वाद्य से, इस्पात के ही तालक द्वारा आघात करने पर जो ध्वनि निकलती है, उसे "टकार" कहते है।
त्रिभुज-समता
1) दक्ष :-
त्रिभुज बाएं हाथ में डोरी से पकड़ा हुआ। दाहिना हाथ में तालक, दाहिनी तर्जनी तालक पर; दोनों हाथ सीधे नीचे 'दक्ष' को स्थिति में।
2) आरम् :-
बायां पैर बायीं ओर। बाएं हाथ के ऊपर दाहिना हाथ। दोनों हाथ शरीर के पीछे।
3) सिद्ध :-
त्रिभुज की वादन- भुजा सामने कमर के ऊँचाई के ऊपर। दाहिना हाथ उठाया हुआ, वादन की स्थिति में।
4) अवनम :-
वापस "दक्ष" स्थिति में।
5) प्रचल :-
बायां हाथ “दक्ष” के अनुसार स्थिर, दाहिना हाथ हिलाना।
6) स्तभ् :-
समता के अनुसार स्तभ् करना।
7) प्रार्थना के समय :-
बायां हाथ सीधा नीचे। तालक के साथ दाहिना हाथ प्रणाम की स्थिति में।
4. झल्लरी
परिचय
यह साधानणतः 22 से.मी. से 40 से.मी. तक, या उससे भी अधिक व्यास के, पीतल या कांसे के वृत्ताकार पतरो की जोडी होती है। इसके बीच का भाग गोलाई के आकार में बाहर की ओर उभरा हुआ होता है। इस उभरे भाग के केद्र में बाहरी ओर फदे लगे रहते हैं, जिनमें हाथ डालकर इल्लरी की पतरे पकड़ी जाती हैं।
झल्लरी-समता
1) दक्ष :-
बायां हाथ बाएं झल्लरी के फंदे में फसाकर, झल्लरी के दोनों पतरो को बाएं हाथ में पकड़ना; बायां हाथ सीधा, 'दक्ष' की स्थिति में। झल्लरी शरीर से सरी हुई। दाहिना हाथ दक्ष स्थिति में।
2) आरम् :-
बायां पैर बायीं ओर, दाहिना हाथ पीछे; बायां हाथ दक्ष जैसी स्थिति में।
3) सिद्ध :-
हाथ नमस्कार जैसे सीने के सामने, झल्लरी की दोनों पतरे दोनो हाथों में पकड़ी हुई।
4) अवनम :-
दोनो हाथ नीचे, दोनों हाथों में झल्लरी रहेगी।
5) प्रचल :-
वादन विरहित स्थिति में, झल्लरी की दोनों पतरें बाएं हाथ में पकड़ी हुई, बायां हाथ स्थिर। दाहिना हाथ संचलन के अनुसार हिलाते हुए प्रचल करना।
6) स्तभ् :-
समता के अनुसार स्तभ् करना।
7) प्रार्थना के समय :-
इल्लरी के दोनों पतरो के साथ बायां हाथ "दक्" स्थिति में, दाहिना हाथ प्रणाम की स्थिति में।
5. वंशी
परिचय
वंशी साधारणतः पीतल, अन्य धातु, एबोनाइट, बांस अथवा प्लास्टिक की बनायी जाती है। वंशी के जिस छोर को मुंह में रखकर फूंक भरी जाती है, उसे 'मुखाग्र' कहते हैँ । मुखाग्र से फूंकने पर ही स्वर प्राप्त होते हैं। वंशी में छः 'स्वर -रंघ्र' होते है। ऊपरी तीन स्वर -र॑ध्रो के लिए बाएं तथा निम्न तीन रंध्रों के लिए दाहिने हाथों की तर्जनी, मध्यमा ओर अनामिका इन उंगलियों का क्रम से उपयोग करना चाहिए। दोनों हाथ के अंगूठे वंशी के पीछे की ओर लेकर वंशी को पकड़ना चाहिए दोनों कनिष्ठिकाएं मुक्त रहेंगी। रंध्र बंद-खुला करने के लिए उंगलियों में सख्ती या कड़ाई लाने की आवश्यकता नहीं है। रंध्र थोड़ा सा भी खुला रहे तो अपस्वर आता है। वशी पर साधारणतः ढाई स्वर-सप्तक प्राप्त होते हैं। केवल बाएं तर्जनी का स्वर-रंध्र खुला (या बंद) रखकर सहजता से फूंकने पर "मध्य-षड्ज" प्राप्त होता है। मध्य-षड्ज का रंध्र बंद करके, नीचे से एक-एक रंध्र खोलते हुए फूंकने पर, मध्य सप्तक के क्रमश ऋषभ, गांधार, मध्यम, पचम तथा धेवत स्वर प्राप्त होते हैं। नीचे के तीन रंध बंद कर ऊपरी तीन रंध्र खोलते हुए वंशी फूंकने पर मध्य-निषाद स्वर मिलता है। सब रधर बंद रखते हुए हलकी फूंक लगाने पर आनेवाला स्वर "मध्य-षड्ज" कहलाता है। फिर उपरोक्त क्रम से रंध खोलकर फूंकने से "मंद्र-सप्तक" प्राप्त होता है।
वंशी - समता
1 ) दक्ष :-
तर्जनी मुखाग्र पर रखते हुए वंशी बाएं हाथ में, स्वर रधर हाथ की ओर, वंशी प्रकोष्ठ से सटी हुई, प्रकोष्ठ शरीर से समकोण बनाता हुआ जमीन से समांतर। दाहिना हाथ 'दक्ष' की स्थिति में।
2) आरम् :-
बायां पैर बायीं ओर, दोनो हाथ पीछे।
3) सिद्ध :-
3.1. विभागशः 1. वंशी के नीचेवाले तीन रंध्रों पर दाहिने हाथ की उगलियां रखकर वंशी पकड़ना।
3.2. विभागशः 2. वंशी मुंह में रखना, उसी समय बाएं हाथ की उंगलियां ऊपर के तीन रंध्रों पर रखना।
4) अवनम :-
'1' सिद्ध विभागशः 1 की स्थिति । '2' दक्ष स्थिति।
5) प्रचल :-
बायां हाथ दक्ष स्थिति जैसा स्थिर, दाहिना हाथ संचलन के अनुसार हिलाना।
6) स्तभ् :-
समता के अनुसार स्तभ् करना।
7) प्रार्थना के समय :-
दाहिना हाथ प्रणाम की स्थिति में, बायां हाथ 'दक्ष' की स्थिति में।
6. शंख
परिचय
इस वाद्य में तांबे की लगभग डेढ़ से.मी. व्यास की नली अंडाकार छल्ला बनाते हुए, अंत में साधारणत: 90 से.मी. व्यास के "क्षेपक" में समाप्त होती है। छोटे व्यास वाले छोर में पीतल या अन्य धातु का साधन बिठाया जाता है, जिसे 'मुखाग्र' कहते है। इस मुखाग्र में फूंकने पर क्षेपक से नाद सुनाई देता है। वंशीज वाद्यो में दी जानेवाली फूंक से यह भिन्न प्रकार की होने के कारण इसे ‘फूत्कार’ कहते है। शंख में मध्य सप्तक के 'स, ग, प' ये तीन स्वर तथा मंद्रसप्तक के 'स ओर पृ' इन दोनों स्वरों सहित कुल मिलाकर पांच स्वर बजाए जाते है। इनके आगे के स्वर 'नि तथा सं' भी बजाए जा सकते है। प्रथम पांच स्वर पूर्ण नियंत्रण के साथ विनायास आने की दृष्टि से, 'नि तथा सं' का अभ्यास उपयुक्त रहेगा। परंतु रचनाओं में पूर्वोक्त पांच स्वरो का ही उपयोग किया गया है।
शंख समता
1) दक्ष :-
शंख दाहिने हाथ से मध्य में क्षेपक के पास पकड़ना, क्षेपक का वृत्ताकार भाग दाहिनी ओर साधारणतः पट्टे के ऊपर, शंख जमीन से समानांतर, शंख का अंडाकार भाग प्रकोष्ठ से सया हुआ, दक्ष स्थिति में दाहिने पैर की उंगलियों की दिशा में मुखाग्र रहेगा।
2) आरम् :-
बायां पैर बायीं ओर, दोनों हाथ पीछे, बाएं हाथ से दाहिना मणिबंध पकड़ना। शंख दाहिने हाथ में रहेगा।
3) सिद्ध :-
3.1. विभागशः 1. दाहिना हाथ ऊपर, कंधे से कोहनी तक का भाग जमीन से समानांतर, प्रकोष्ठ जमीन से लबरूप। तर्जनी सीधी मुखाग्र की ओर, मुखाग्र आकाश की ओर।
3.2 विभागशः 2. दाहिना हाथ कंधे से कलाई तक सीधा ऊपर तिरछा, (शंख ऊपर लेते समय, कलाई में थोड़ा वृत्ताकार घुमाकर ऊपर लेना), क्षेपक दाहिने पैर के उंगलियों की दिशा में आकाश की ओर, मुखाग्र हाथ की सीध में।
3.3. विभागशः 3. वादन के लिए, एक दूसरे से सख्ती से चिपके हुए होंठों के मध्यमें शंख का मुखाग्र, कोहनी शरीर से दूर, भुजा शरीर से साधारणतः 45 अंश का कोण बनाती हुई।
3.4. उपरोक्त क्रियाएं 'स्थिर' अथवा 'चल' में हर बाएं कदम के अंतर पर करनी चाहिए। शंखवादन संकेत के उपरान्त रणन प्रारंभ होते ही तथा चरण के अंतिम आठ अंक प्रारंभ होते ही 'सिद्ध' की क्रिया आरभ करनी चाहिए।
4) अवनम :-
दक्ष स्थिति में आना।
5) प्रचल :-
बायां हाथ समता के अनुसार हिलाना, दाहिनी कोहनी का कोण कायम रखते हुए दाहिना हाथ स्वाभाविकतः कंधे से थोड़ा हिलाना।
6) स्तभ् :-
समता के अनुसार स्तभ् करना।
7) प्रार्थना के समय :-
"दक्ष” स्थिति में दाहिने हाथ में जैसा पकटते हैं, वैसा ही बाएं हाथ में शंख पकडना। दाहिना हाथ प्रणाम की स्थिति में।