दशावतार

दशावतार

Dashavatar

जब जब होड़ धरम के हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥ 
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥ 

मत्स्यावतार

प्राचीन काल में सत्यव्रत नाम के एक राजा थे। वे बड़े ही उदार और भगवान्‌ के परम भक्त थे। एक दिन वे कृतमाला नदी में तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अंजुलि में एक छोटी-सी मछली आ गयी। उसने अपनी रक्षा की पुकार की। उस मछली की बात सुनकर राजा उसे कमण्डलु में अपने आश्रम पर ले आये। कमण्डलु में वह इतनी बढ़ गयी कि पुनः उसे एक बड़े मटके में रखना पड़ा। थोड़ी देर बाद वह उससे भी बड़ी हो गयी और मटका छोटा पड़ने लगा। अन्त में राजा सत्यव्रत हार मानकर उस मछली को समुद्र में छोड़ने गये। समुद्र में डालते समय मत्स्य ने राजा से कहा- 'राजन! समुद्र में बड़े-बड़े मगर आदि रहते हैं। वे मुझे खा जायेंगे। इसलिये मुझे समुद्र में न छोड़ें।' मछली की यह मधुर वाणी सुनकर राजा मोहित हो गये। उन्हें मत्स्य भगवान्‌ की लीला समझते देर न लगी। वे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे। 

मत्स्यभगवान्‌ ने अपने प्यारे भक्त सत्यव्रत से कहा- ' सत्यव्रत! आज से सातवें दिन तीनों लोक प्रलयकाल की जलराशि में डूबने लगेंगे। उस समय मेरी प्रेरणा से तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी। तुम सभी जीवों, पौधों और अन्नादि के बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस पर बैठकर विचरण करना। जब तेज आँधी चलने के कारण नाव डगमगाने लगेगी तब मैं इसी रूप में आकर तुम लोगों की रक्षा करूँगा।' भगवान्‌ राजा से इतना कहकर अन्तर्धान हो गये। 

अन्त में वह समय आ पहुँचा। राजा सत्यव्रत के देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी पानी में डूबने लगी। राजा ने भगवान्‌ की बात याद की। उन्होंने देखा कि नाव भी आ गयी है। वे बीजों को लेकर सप्तर्षियों के साथ तुरन्त नाव पर सवार हो गये। सप्तर्षियों की आज्ञा से राजा ने भगवान्‌ का ध्यान किया। उसी समय उस महान्‌ समुद्र में मत्स्य के रूप में भगवान्‌ प्रकट हुए। तत्पश्चात्‌ भगवान ने प्रलय के समुद्र में विहार करते हुए सत्यव्रत को ज्ञान-भक्ति का उपदेश दिया। 

हयग्रीव नाम का एक राक्षस था। वह ब्रह्मा के मुख से निकले हुए वेदों को चुराकर पाताल में छिपा हुआ था। भगवान्‌ मत्स्य ने हयग्रीव को मारकर वेदों का भी उद्धार किया। 

समस्त जगत्‌ के परम कारण मत्स्यभगवान्‌ को हम सब नमस्कार करते हैं। 


कच्छप भगवान्‌

पुराने समय की बात है देवताओं और राक्षसों में आपसी मतभेद के कारण शत्रुता बढ़ गई। आये दिन दोनों पक्षों में लड़ाई होती रहती थी। एक दिन राक्षसों के आक्रमण से सभी देवता भयभीत हो गये। वे भागते-भागते ब्रह्माजी के पास गये। ब्रह्मजी की राय से सभी लोग जगदगुरु की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे। देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा- 'देवताओ! तुम लोग दानवराज बलि से प्रेमपूर्वक मिलो। उनको ही अपना नेता मानकर समुद्र मथने की तैयारी करो। समुद्र मन्थन के अन्त में अमृत निकलेगा। उसे पीकर तुम लोग अमर हो जाओगे।' यह कहकर भगवान्‌ अन्तर्धान हो गये। इसके बाद देवताओं ने बलि को नेता मानकर वासुकि नाग को रस्सी और मन्दराचल को मथानी बनाकर समुद्र-मन्थन शुरू किया। परन्तु जैसे ही मन्थन शुरू हुआ कि मन्दराचल ही समुद्र में डूबने लगा। सभी लोग परेशान हो गये। अन्त में निराश होकर लोगों ने भगवान्‌ का सहारा लिया। भगवान्‌ तो सब जानते ही थे। उन्होंने हँसकर कहा- 'सब कार्यो के प्रारम्भ में गणेशजी की पूजा करनी चाहिये। बिना उनकी पूजा के कार्य सिद्ध नहीं होता।' यह सुनकर वे लोग गणेशजी की पूजा करने लगे। उधर गणेशजी की पूजा हो रही थी, इधर लीलाधारी भगवान ने कच्छपरूप धारण कर मन्दराचल को अपनी पीठ पर उठा लिया। 

तत्पश्चात्‌ समुद्र-मन्थन शुरू हुआ। मथते-मथते बहुत देर हो गयी। अमृत न निकला। तब भगवान्‌ ने सहस्त्रबाहु होकर स्वयं ही दोनों तरफ से मथना प्रारम्भ किया। उसी समय हलाहल विष निकला, जिसे पीकर भगवान्‌ शिव नीलकण्ठ कहलाये। इसी प्रकार कामधेनु, उच्चै: श्रवा  नामक घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ, भगवती लक्ष्मी, वारुणी, धनुष, चन्द्रमा, शद्धु, धन्वन्तरि और अन्त में अमृत निकला। 

अमृत के लिये देवता और दानव दोनों झगड़ने लगे। तब भगवान ने अपनी लीला से अमृत देवताओं को ही दिया। अमृत पीकर देवता लोग अमर हो गये। वे युद्ध में विजयी हुए। विजयी देवता बार-बार कच्छप भगवान्‌ की स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान ने कहा- 'देवताओ! जो लोग भगवान्‌ के आश्रित होकर कर्म करते हैं; वे ही देवता कहलाते हैं। उन्हें ही सच्ची सुख-शान्ति और अमृत या अमृत तत्त्व की प्राप्ति होती है। किंतु जो अभिमान के सहारे कर्म करते हैंः“उन्हें कभी भी अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती।' यह कहकर भगवान्‌ कच्छप अंतर्ध्यान हो गये।  

भक्तों के परम हितैषी कच्छपभगवान् को हम सब नमस्कार करते हैं।


वाराह-अवतार 

अनन्त भगवानू ने प्रलय के जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने के लिये वराह-शरीर धारण किया। कहा जाता है कि एक दिन स्वायम्भुव मनु ने बड़ी नम्नता से हाथ जोड़कर अपने पिता ब्रह्माजी से कहा- ' पिताजी! एकमात्र आप ही समस्त जीवों के जन्मदाता हैं। आप ही जीविका प्रदान करने वाले भी हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। हम ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके? हमें सेवा करने की आज्ञा दीजिये।' मनु की बात सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- ' पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। क्योंकि तुमने मुझसे आज्ञा माँगी है और आत्मसमर्पण किया है। पुत्रों को अपने पिता की इसी रूप में पूजा करनी चाहिये। उन्हें अपने पिता की आज्ञा का आदरपूर्वक पालन करना चाहिये। तुम धर्म पूर्वक पृथ्वी का पालन करो। यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो। प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी।' इस पर मनु ने कहा- 'पूज्यपाद! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा। किन्तु सब जीवों का निवास स्थान पृथ्वी है। इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। मैं पृथ्वी का पालन कैसे करूँ?” पृथ्वी का हाल सुनकर ब्रह्माजी बहुत चिन्तित हुए। वह पृथ्वी के उद्धार की बात सोच ही रहे थे कि उनकी नाक से अचानक अँगूठे के आकार का एक वराह-शिशु निकला। देखते-ही-देखते वह पर्वताकार होकर गरजने लगा। ब्रह्माजी को भगवान्‌ की माया समझते देर न लगी। भगवान्‌ की घुरघुराहट सुनकर वे उनकी स्तुति करने लगे। 

ब्रह्माजी की स्तुति से वराह भगवान्‌ प्रसन्न हुए। वे जगत्‌-कल्याण के लिये जल में घुस गये। थोड़ी देर बाद वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर आये। उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया। उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है। जल से बाहर निकले हुए भगवान्‌ को देखकर ब्रह्मा आदि देवता हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे। इससे प्रसन्न होकर वराह भगवान्‌ ने अपने खुरों से जल को रोककर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। 

पृथ्वी का उद्धार करने वाले वराह भगवान्‌ को हम सब नमस्कार करते हैं। 


नूसिंहावतार 

हिरण्याक्षे के वध से उसका भाई हिरण्यकशिपु बहुत दुःखी हुआ। वह भगवान्‌ का घोर विरोधी बन गया। उसने अजेय बनने की भावना से कठोर तप किया। उसे देवता, मनुष्य या पशु आदि से न मरने का वरदान मिला। वरदान पाकर वह अजेय हो गया। हिरण्यकशिपु का शासन इतना कठोर था कि देव-दानव सभी उसके चरणों की वन्दना करते रहते थे। भगवान्‌ की पूजा करने वालों को वह कठोर दण्ड देता था। उसके शासन से सब लोक और लोकपाल घबराये। जब उन्हें और कोई सहारा न मिला तब वे भगवान्‌ की प्रार्थना करने लगे। देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर नारायण ने हिरण्यकशिपु के वध का आश्वासन दिया। 

दैत्ययाज का अत्याचार दिनों-दिन बढ़ता ही गया। यहाँ तक कि वह अपने ही पुत्र प्रह्लाद को भगवान्‌ का नाम लेने के कारण तरह-तरह का कष्ट देने लगा। प्रह्लाद बचपन से ही खेल-कूद छोड़कर भगवान्‌ के ध्यान में तन्‍्मय हो जाया करते थे। वे भगवान्‌ के परम प्रेमी भक्त थे। वे समय-समय पर असुर-बालकों को धर्म का उपदेश देते रहते थे। असुर-बालकों को उपदेश देने की बात सुनकर हिरण्यकशिपु बहुत क्रोधित हुआ। उसने प्रह्लाद को दरबार में बुलाया। प्रह्लाद जी बड़ी नम्नता से हाथ जोड़कर चुपचाप दैत्यराज के सामने खड़े हो गये। उन्हें देखकर दैत्यराज ने डाँटते हुए कहा- ' मूर्ख! तू बड़ा उदण्ड हो गया है। तूने किसके बल-बूते पर निडर की तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?' इस पर प्रह्लाद ने कहा- 'पिताजी! ब्रह्म से लेकर तिनके तक सब छोटे-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान ने ही अपने वश में कर रखा है। वही परमेश्वर ही अपनी शक्तियों के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मन को सबके प्रति उदार बनाइये।' 

प्रह्लाद की बात को सुनकर हिरण्यकशिपु का शरीर क्रोध के मारे थर-थर काँपने लगा। उसने प्रह्लाद से कहा- 'रे मन्दबुद्धि! तेरे बहकने की अब हद हो गयी है। यदि तेरा भगवान्‌ हर जगह है तो बता इस खम्भे में क्‍यों नहीं दीखता?' यह कहकर क्रोध से तमतमाया हुआ वह स्वयं तलवार लेकर सिंहासन से कूद पड़ा। उसने बड़े जोर से उस खम्भे को एक घूँसा मारा। उसी समय उस खम्भे के भीतर से नृसिंहभगवान्‌ प्रकट हुएं। उनका आधा शरीर सिंह का और आधा मनुष्य के रूप में था। क्षणमात्र में ही लीलाधारी नृसिंहभगवान्‌ ने हिरण्यकशिपु की जीवन-लीला समाप्त कर दी। अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद की रक्षा की। 

सर्वव्यापक नृसिंहभगवान्‌ को हम सब नमस्कार करते हैं। 


वामन अवतार

एक समय की बात है युद्ध में इन्द्र से हारकर दैत्ययाज बलि गुरु शुक्राचार्य की शरण गये। शुक्राचार्य ने उनके अन्दर देव भाव जगाया। कुछ समय बाद गुरुकृपा से बलि ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। प्रभु की महिमा कितनी विचित्र है कि कल का देवराज इन्द्र आज भिखारी हो गया। वह दर-दर भटकने लगा। अन्त में अपनी माता अदिति की शरण में गया। इन्द्र की दशा देखकर माँ का हृदय फटने लगा। अपने पुत्र के दुःख से दुःखी अदिति ने पयोव्रत का अनुष्ठान किया। व्रत के अन्तिम दिन भगवान्‌ ने प्रकट होकर अदिति से कहा- 'देवि! चिन्ता मत करो। मैं तुम्हारे पुत्ररूप में जन्म लूँगा। इन्द्र का छोटा भाई बनकर उनका कल्याण करूँगा।' यह कहकर वे अन्तर्धान हो गये। 

आखिर वह शुभ घड़ी आ ही गयी। अदिति के गर्भ से भगवान ने वामन के रूप में अवतार लिया। भगवान्‌ को पुत्ररूप में पाकर अदिति की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। भगवान को वामन ब्रह्मचारी के रूप में देखकर देवताओं और महर्षियों को बड़ा आनन्द हुआ। उन लोगों ने कश्यपजी को आगे करके भगवान्‌ का उपनयन आदि संस्कार करवाया। उसी समय भगवान्‌ ने सुना कि राजा बलि भृगुकच्छ नामक स्थान पर अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं। उन्होंने वहाँ के लिये यात्रा की। भगवान्‌ वामन कमर में मूँज की मेखला और यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। बगल में मृगचर्म था। सिर पर जटा थी। इसी प्रकार बोने ब्राह्मण के वेष में अपनी माया से ब्रह्मचारी बने हुए भगवान्‌ ने बलि के यज्ञ-मण्डप में प्रवेश किया। उन्हें देखकर बलि का हृदय गद्द हो गया। उन्होंने भगवानू को एक उत्तम आसन दिया। बलि ने नाना प्रकार से वामन की पूजा की। उसके बाद बलि ने प्रभु से कुछ माँगने का अनुरोध किया। उन्होंने तीन पग भूमि माँगी। शुक्राचार्य प्रभु की लीला समझ रहे थे। उन्होंने दान देने से बलि को मना किया। बलि ने नहीं माना। उसने संकल्प लेने के लिये जलपात्र उठाया। शुक्राचार्य अपने शिष्य का हित सोचकर पात्र में प्रवेश कर गये। जल गिरने का रास्ता रुक गया। भगवान ने एक कुश उठाकर पात्र के छेद में डाल दिया। उनकी एक आँख फूट गयी। संकल्प पूरा होते ही भगवान्‌ वामन ने एक पग में पृथ्वी और दूसरे में स्वर्ग नाप लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने-आपको ही सौंप दिया। बलि के इस समर्पणभाव से भगवान्‌ प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे सुतल लोक का राज्य दे दिया। इन्द्र को स्वर्ग का स्वामी बना दिया। कहा जाता है कि भगवान्‌ वामन द्वारपाल के रूप में राजा बलि की और उपेन्द्र के रूप में इन्द्र को नित्य दर्शन देते हैं। 

परम दयालु वामनभगवान को हम सब नमस्कार करते हैं। 


परशुरामावतार

बात है पृथ्वी पर हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार बढ़ गया था। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। गौ, ब्राह्मण और साधु असुरक्षित हो गये थे। ऐसे समय में भगवान्‌ स्वयं परशुराम के रूप में जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका के गर्भ से अवतरित हुए। उन दिनों हैहयवंश का राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन था। वह बहुत ही अत्याचारी और क्रूर शासक था। एक बार वह जमदग्नि ऋषि के आश्रम पर आया। उसने आश्रम के पेड़-पौधों को उजाड़ दिया। जाते समय ऋषि की गाय भी लेकर चला गया। जब परशुरामजी को उसकी दुष्टता का समाचार मिला तब उन्होंने सहस्त्रबाहु अर्जुन को मार डाला। सहस्त्रबाहु के मर जाने पर उसके दस हजार लड़के डरकर भाग गये। सहस्त्रबाहु अर्जुन के जो लड़के परशुरामजी से हारकर भाग गये थे, उन्हें अपने पिता के वध की याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षण के लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था। 

एक दिन की बात है, परशुरामजी अपने भाइयों के साथ आश्रम के बाहर गये हुए थे। अनुकूल अवसर पाकर सहस्त्रबाहु के लड़के वहाँ आ पहुँचे। उस समय महर्षि जमदग्नि को अकेला पाकर उन पापियों ने उन्हें मार डाला। सती रेणु का सिर पीट-पीटकर जोर-जोर से रोने लगीं। परशुरामजी ने दूर से ही माता का करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रता से आश्रम पर आये। वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं। उस समय परशुरामजी को बहुत दुःख हुआ। वे क्रोध और शोक के वेग से अत्यन्त मोहित हो गये। उन्होंने पिता का शरीर तो भाइयों को सौंप दिया और स्वयं हाथ में फरसा उठाकर क्षत्रियों का संहार कर डालने का निश्चय किया। 

भगवान ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये उन्होंने अपने पिता के वध को निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया। भगवान्‌ ने इस प्रकार भूगुकुल में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी का भार बने राजाओं का बहुत बार वध किया। तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ परशुराम ने अपने पिता को जीवित कर दिया। जीवित होकर वे सप्तर्षियों के मण्डल में सातवें ऋषि हो गये। अन्त में भगवान्‌ यज्ञ में सारी पृथ्वी दान कर महेंद्र पर्वत पर चले गये। 

महेंद्र पर्वत पर विराजमान भगवान्‌ परशुराम को हम सब नमस्कार करते हैं।


रामावतार 

बहुत पुरानी कथा है- श्रीहरि के जय-विजय नाम के दो द्वारपाल थे। वे सनकादि ब्रह्मर्षियों के शाप से घोर निशाचर कुल में पैदा हुए। उनके नाम रावण और कुम्भकर्ण थे। उनके अत्याचारों से पृथ्वी काँप उठी। वह पाप के भार को सह न सकी। अन्‍्त में वह ब्रह्मादि देवताओं के साथ भगवान्‌ की शरण में गयी। देवताओं की प्रार्थना से परब्रह्म परमात्मा ने अयोध्या के राजा दशरथ की रानी कौसल्या के गर्भ से राम के रूप में अवतार लिया। भगवान्‌ श्रीराम ने विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न डालने वाले सुबाहु आदि राक्षसों को मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसों की गिनती में थे। जनकपुर में सीताजी का स्वयंवर हो रहा था। वहाँ भगवान्‌ शंकर का विशाल धनुष रखा हुआ था। श्रीराम ने उस धनुष को तोड़कर सीताजी को प्राप्त कर लिया। 

राजा दशरथ की आज्ञा से श्रीराम का चौदह वर्ष का वनवास हुआ। भगवान्‌ ने पिताकी आज्ञा मानकर अपनी पत्नी के साथ वन की यात्रा की। उनके साथ छोटे भाई लक्ष्मण भी थे। वन में पहुँचकर भगवान ने रावण की बहिन शूर्पणखा को कुरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि कामवासना के कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान-प्रधान भाइयों को श्रीराम ने नष्ट कर डाला। शूर्पणखा की दशा देखकर रावण बहुत क्रोधित हुआ। उसने भगवानू से शत्रुता ठान ली। छल से सीताजी का हरण कर लिया। श्रीराम सीताजी के वियोग में बहुत दुःखी हुए। वे अपनी प्राणप्रिया सीताजी से बिछुड़ कर अपने भाई लक्ष्मण के साथ वन-वन भटकने लगे। भगवान ने जटायु का दाह-संस्कार किया। फिर कबन्ध का संहार किया। सुग्रीव आदि वानरों से मित्रता करके बालि का वध किया। तत्पश्चात्‌ हनुमानजी सीता की खोज में लंका गये। वहाँ सीता से मिले। उन्होंने राक्षसों को मारा और लंका को जला दिया। लौटते समय सीता से चूड़ामणि लेकर भगवानू से मिले। अन्त में श्रीराम बंदरों की सेना के साथ समुद्र-तट पर जा पहुँचे। 

भगवान्‌ श्रीराम ने बंदरों आदि की सहायता से समुद्र पर पुल बाँधा। विभीषण की सलाह से भगवान्‌ ने नील, सुग्रीव, हनुमान्‌ आदि प्रमुख वीरों और वानरी सेना के साथ लंका में प्रवेश किया। दोनों ओर की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। भगवान्‌ राम विजयी हुए। शरणागत विभीषण को लंका का राजा बनाया। उसके बाद भगवान्‌ श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटकर राम-राज्य की स्थापना की। भगवान ने नरलीला करके प्राणिमात्र को प्रेम, नम्रता, सदाचार और माता-पिता-गुरु के प्रति आदर भाव का सन्देश दिया। 

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीराम को हम सब नमस्कार करते हैं। 


कृष्णावतार 

शूरसेन नाम के एक राजा थे। शूरसेन के पुत्र वसुदेव विवाह करके अपनी पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिये रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का लड़का था कंस। वह अपनी चचेरी बहिन देवकी को प्रसन्न करने के लिये स्वयं ही रथ हाँकने लगा। जिस समय कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणी ने उसे सम्बोधित करके कहा- 'ओरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बैठाकर लिये जा रहा है, उसकी आठवें गर्भकी सन्‍्तान तुझे मार डालेगी।' 

कंस बड़ा पापी था। आकाशवाणी सुनते ही वह देवकी को मारने के लिये तैयार हो गया। अन्त में वसुदेव ने देवकी के पुत्रों को उसे सौंपने का वचन देकर देवकी की रक्षा की। तत्पश्चात्‌ कंस ने देवकी और वसुदेव को कैद कर लिया। उन दोनों से जो-जो पुत्र होते गये, उन्हें वह मारता गया। किंतु भगवान्‌ के विधान को भला कौन रोक सकता है? आखिर वह समय आ ही गया। देवकी के गर्भ से जगत्‌ के तारनहार नारायण ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया। 

भगवान्‌ के जन्म लेते ही योगमाया की प्रेरणा से कारागार खुल गया। वसुदेवजी बालकृष्ण को सूप में रखकर गोकुल चल दिये। रास्ते में यमुनाजी प्रभु का चरण छूने के लिये व्याकुल हो गयीं। अन्तर्यामी बाल-प्रभु यमुना के मन की बात समझ गये। उन्होंने अपने चरण-स्पर्श से यमुना की व्यथा को दूर किया। वसुदेव ने नन्दबाबा के घर जाकर अपने पुत्र को यशोदाजी के पास सुला दिया। उनकी नवजात कन्या लेकर वे कारागारमें लौट आये। 

बालक श्रीकृष्णको पाकर नन्द और यशोदा की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। यशोदा को पुत्र हुआ है, यह सुनते ही पूरे गोकुल में आनन्द छा गया। वहाँ भगवान्‌ अपनी बाललीला से यशोदा को नित्य रिझाते रहते थे। उनकी वंशी की धुन पर सभी मोहित हो जाते थे। गोपियों के घरों से माखन चुराने के कारण वे माखनचोर कहलाये। श्रीकृष्ण ने बचपन में ही खेल-खेल में पूतना, बकासुर, तृणावर्त आदि का विनाश किया। एक उँगली पर गोवर्धन-पर्वत उठाकर इन्द्र का घमण्ड चूर कर दिया। एक दिन भगवान्‌ अपनी मित्र-मण्डली के साथ गेंद खेल रहे थे। गेंद यमुना में गिर गयी। बालक श्रीकृष्ण गेंद निकालने के लिये यमुना में कूद पड़े। यमुना में कालिय नाग रहता था। भगवान्‌ उसका मान-मर्दन कर उसके फण पर नृत्य करने लगे। इस प्रकार भगवान ने छोटी अवस्था में अनेक लीलाएँ कीं।  

कुछ समय बाद श्रीकृष्ण अक्रूर के साथ गोकुल से मथुरा आये। वहाँ उन्होंने अपने परम भक्त सुदामा, माली और कुब्जा आदि पर कृपा की। तदनन्तर भगवान्‌ ने लीलामात्र से कंस आदि असुरों का संहार कर अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया। 

युद्ध के मैदान में अर्जुन को धर्म, कर्म और शाश्वत सत्य का उपदेश दिया। भगवान्‌ का वह अमर संदेश गीता के रूप में आज भी जन-जन का कल्याण कर रहा है। 

लीलापुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण को हम सब नमस्कार करते हैं। 


बुद्धावतार 

आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले पृथ्वी पर हिंसा बढ़ गयी थी। धर्म के नाम पर निर्दोष, पशुओं का वध हो रहा था। तब जीवों की हत्या रोकने के लिये मायादेवी के गर्भ से भगवान्‌ स्वयं बुद्ध के रूप में अवतरित हुए। उनके पिता का नाम शुद्धोदन था। उनकी राजधानी कपिलवस्तु थी। भगवान्‌ बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ के जन्म के बाद उनकी माता का देहान्त हो गया। सिद्धार्थ का पालन-पोषण उनकी विमाता गौतमीदेवी ने किया। 

ज्योतिषियों ने कहा था कि राजकुमार या तो चक्रवर्ती राजा होंगे या विरक्त होकर जगत्‌ का कल्याण करेंगे। महाराज शुद्धोदन ज्योतिषियों की इस बात से चिन्तित रहते थे। उन्होंने राजकुमार के लिये बहुत बड़ा भवन बनवा दिया था। उस भवन में दुःख, रोग और मृत्यु की कोई बात न पहुँचे, इसकी कड़ी व्यवस्था कर दी थी। राजकुमार का विवाह राजकुमारी यशोधरा से हुआ था। उनके पुत्र का नाम राहुल था। राजकुमार सिद्धार्थ अत्यन्त दयालु थे। एक बार उन्होंने पिता से नगर देखने की आज्ञा माँगी। राज्य की ओर से ऐसी व्यवस्था हो गयी कि राजकुमार को नगर में कोई दुःखद दृश्य न दीख पड़े। लेकिन होनहार को कौन रोक सकता है। नगर घूमते समय एक बूढ़ा आदमी सिद्धार्थ कों दिखायी पड़ा। इसी प्रकार जब वे दूसरी बार नगर घूमने निकले तो एक रोगी उन्हें मिला। तीसरी बार एक मुर्दा उन्होंने देखा। इन दृश्यों को देखकर संसार के सब सुखों से उनका मन हट गया। 

संसार के सुखों से वैराग्य हो जाने पर अमरता की खोज का सिद्धार्थ ने निश्चय कर लिया। एक दिन आधी रात को वे चुपचाप राजभवन से निकल पड़े। वन में कठोर तप करने लगे। अन्‍्त में वे ज्ञान-बोध को प्राप्त करके सिद्धार्थ से भगवान्‌ बुद्ध हो गये। 

भगवान्‌ बुद्ध कहते थे- 'संसार दुःखमय है। संसार के पदार्थो को पाने की तृष्णा ही दुःख का कारण है। तृष्णा का सर्वथा नाश होने से दुःख का नाश होता है। राग, द्वेष और अहंकार को छोड़ देने से ही जीव की मुक्ति होती है।' सत्य, नमग्नता, स॒दाचार, सदविचार, सदगुण, सदबुद्धि, ऊँचा लक्ष्य और उत्तम ध्यान--ये आठ साधन भगवान्‌ बुद्ध ने मनुष्य की उन्नति के लिये बताये थे। 

इस प्रकार उन्होंने संसार में घूम-घूम कर मानव-धर्म का खूब प्रचार किया। यज्ञ में पशु-वध को रोका। जीवों के प्रति प्रेम, अहिंसा और सदभाव का अमर संदेश दिया। आज भी भगवान्‌ बुद्ध के उपदेश जन-जन के लिये कल्याणकारी हैं। 

अहिंसा के अवतार भगवान्‌ बुद्ध को हम सब नमस्कार करते हैं। 


कल्कि अवतार

हमारे धर्मशास्त्रों में भगवान्‌ कल्कि की दसवें अवतार के रूप में चर्चा है। कहा गया कि ज्यों ज्यों घोर कलियुग आता जायेगा, त्यों-त्यों दिनों-दिन धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु और बल का लोप होता जायेगा। कलियुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सदगुणी मानेंगे। जो जितना छल, कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहार-कुशल माना जायेगा। ब्राह्मण की पहचान उसके गुण-स्वभाव से नहीं यज्ञोपवीत से हुआ करेगी। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड करेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायेगा। धर्म का सेवन यश के लिये किया जायेगा। सारी पृथ्वी पर दुष्ठों का बोलबाला हो जायेगा। राजा होने का कोई नियम न रहेगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रों में जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समय के नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में भाग जायेगी। उस समय भयंकर अकाल पड़ जायेगा। लोग भूख-प्यास तथा नाना प्रकार की चिन्ताओं से दुःखी रहेंगे। वे पत्तियों को खाकर पेट भरेंगे। मनुष्य चोरी, हिंसा आदि अनेक प्रकार के कुकर्मों से जीविका चलाने लगेंगे। 

कलिकाल के दोष से प्राणियों के शरीर छोटे-छोटे होंगे। चारों वर्णो के लोग शूद्रों के समान हो जायेंगे। गौएँ बकरियों की तरह छोटी-छोटी और कम दूध देनेवाली हो जायेंगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि गृहस्थों की तरह रहने लगेंगे। लोग धर्मशास्त्रों की खिल्ली उड़ायेंगे। वेद-पुराण की निन्‍्दा करेंगे। पूजा-पाठ कों सिर्फ ढकोसला मानेंगे। धर्म में पाखण्ड की प्रधानता हो जायेगी। इस प्रकार कलियुग का अन्त होते-होते पृथ्वी पर हिंसा और जातीय संघर्ष बढ़ जायेगा। तब ऐसी स्थिति में धर्म की रक्षा करने के लिये स्वयं भगवान्‌ अवतार ग्रहण करेंगे। 

शास्त्र कहते हैं- कलियुग के अन्तिम दिनों में शम्भलग्राम में विष्णुयश नाम के एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार होगा। वे भगवान्‌ के परम भक्त होंगे। उन्हीं के घर कल्कि भगवान्‌ अवतार ग्रहण करेंगे। वे देवदत्त नामक घोड़े पर सवार होकर दुष्टों की तलवार के घाट उतारेंगे। वे पृथ्वी पर विलुप्त धर्म की पुनः स्थापना करेंगे। भगवान्‌ जब कल्कि के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुग का प्रारम्भ हो जायेगा। प्रजा सुख-चैन से रहने लगेगी। 

चराचर जगत के स्वामी भगवान्‌ कल्कि को हम सब नमस्कार करते हैं। 


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