वेदों का परिचय

वेदों का परिचय

Vedon ka Parichay

वेद शब्द संस्कृत भाषा के “विद्‌” धातु से बना है, तथा संस्कृत भाषा में “विद्‌” का अर्थ होता है: जानना, ज्ञान, इत्यादि, वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई, परंतु अधिकांश हिन्दू रामायण, रामचरितमानस एवं गीता को ही हिन्दुओं के मूल धर्मग्रंथ के रूप में मानते हैं, वास्तविकता यह है कि हिन्दू धर्म में धर्मग्रंथों की भरमार है किन्तु सारे के सारे धर्मग्रंथ बिना किसी मतभेद के वेद को ही हिन्दू धर्म का मूल ग्रंथ स्वीकार करते हैं, उदाहरण स्वरूप रामचरित मानस में स्वयं तुलसीदास जी ने लिखा है :

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस । (रामचरितमानस, बालकांड, १४ (ड) )
अर्थात :- मैं चारों वेदों की वंदना करता हूँ, जो संसार सागर से पार उतरने के लिये नौका के समान है।

इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है :
त्रैगण्यविषया वेदा निस॑त्रैगुण्यो भवार्जुन॥ (गीता, २:४०)
अर्थात :- वेद तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले हैं ।

वेद कुल चार हैं जिनके नाम क्रमानुसार इस प्रकार हैं:
१. ऋग्वेद २. यजुर्वेद ३. सामवेद ४. अथर्ववेद, इन चारों वेदों को एक साथ वेद कहा जाता है, वेद मूल रूप से वैदिक संस्कृत में लिखे हुए है, वेद दुनिया की सबसे पहली किताब के रूप में मान्य है, वेद की रचना किसने की है? इस विषय में दो प्रकार के मत पाये जाते हैं :

  1. वेद का रचनाकार स्वयं ईश्वर (परत्रह्म परमेश्वर) है।
  2. वेद ऋषियों की रचना है। प्रत्येक वेदमंत्र के साथ उसके ऋषि का नाम लिखा पाया जाता है। वही उस मंत्र के रचनाकार हैं।

इन दोनों मतों में से द्वितीय मत को यदि सत्य माना जाये तो स्पष्ट होता है कि संपूर्ण वेद के लगभग २०४६१ मंत्र भिन्‍न- भिन्‍न ऋषियों की रचना हैं, जिन्हें संकलित करके ग्रंथ का रूप दे दिया गया है, इस मत को सत्य मानने से निम्नलिखित  प्रश्न उठते हैं :

  1. यदि वेद वास्तव में ही उन ऋषियों की रचना है तो उन ऋषियों ने स्वयं यह दावा क्‍यों नहीं किया?
  2. वेद में अनेकों मंत्र ऐसे पाये जाते हैं जिनके एक से अधिक ऋषि हैं फिर वे मंत्र उनमें से किस ऋषि की रचना माने जायेंगे?
  3. जब वेद मंत्र विभिन्‍न ऋषियों की रचना हैं तो उनमें आपस में कहीं कोई सैध्दान्तिक टकराव न पाया जाकर एकरूपता क्‍यों पाई जाती है?
  4. वेद के विभिनन मंत्रों में जो ज्ञान-विज्ञान पाया जाता है, ऋषियों को उसकी जानकारी उस युग में किस स्रोत से ज्ञात हुई ?
  5. जिन ऋषियों ने अनंत ज्ञान से भरपूर वेदमंत्रों की रचना की उन ऋषियों के द्वारा रचित अन्य ग्रंथों में वैसा अनंत ज्ञान क्यों नहीं पाया जाता?


उपर्युक्त प्रश्नों के अतिरिक्त और अनेकों प्रश्न इस विषय में उठ सकते हैं जिनका कोई समुचित उत्तर नहीं मिलता, अतः यह द्वितीय मत बुध्दिसंगत नहीं प्रतीत होता, किन्तु यदि प्रथम मत कि वेद ईश्वर की रचना है, को सत्य मान लिया जाये तो उपर्युक्त प्रश्नों का समुचित उत्तर प्राप्त हो जाता है एवं स्वयं वेद की अन्तः साक्षी भी यही है कि वेद ईश्वर (परब्रह्म परमेश्वर) की रचना है, इस मत को मानने से यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि ईश्वर ने स्वयं वेद की रचना ग्रंथाकार में कैसे की ? क्या ईश्वर ने स्वयं इस सृष्टि में सशरीर आकर वेद की रचना की अथवा किसी और माध्यम से वेद की रचना करवाई ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि ईश्वर को कोई भी कार्य करने के लिये इस सृष्टि में आने की आवश्यकता नहीं है, वह अपनी इच्छा मात्र से सारे कार्य कर सकता है, हिन्दू इतिहास के अनुसार वेद का प्रकाश इहलोक के आरंभ में सर्वप्रथम चार ऋषियों पर हुआ, ऋग्वेद अग्नि ऋषि पर, यजुर्वेद वायु ऋषि पर, सामवेद आदित्य ऋषि पर तथा अथर्ववेद का प्रकाश अड़गिरा ऋषि पर हुआ, जैसा के मनुस्मृति में वर्णित है :


अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्मा सनातनम्‌ । 
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजु:सामलक्षणम्‌॥  (मनुस्मृति, १:२३)
अर्थात :- परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजु:, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया ।


वेदों की विशेषता

१. ऋग्वेद :- यह वेद सबसे बड़ा वेद माना है, कलेवर में यह सम्पूर्ण वेद का लगभग आधा है, ऋग्वेद में लगभग १०६३३ मंत्र हैं, ऋग्वेद परिभाषाओं का ग्रंथ कहा जाता है, इस सृष्टि मानव जीवन हेतु आवश्यक समस्त जानकारियाँ पारिभाषिक रूप में ऋग्वेद में प्रदान की गई है, इसके मंत्रों की ही पुनरावृत्ति शेष तीनों वेदों में अनेकों स्थान पर पाई जाती है, ऋग्वेद का प्रकाश इहलोक के आरंभ में अग्नि ऋषि पर हुआ था जिसकी साक्षी अनेकों ऋषियों ने दी है, उनके ही नाम मंत्रों के दृष्टा ऋषियों के रूप में प्रत्येक सूक्त में मंत्रों के साथ दिये गये हैं, ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद है।

२.यजुर्वेद :- यह द्वितीय वेद है, इसकी मंत्र की संख्या लगभग १९७५ है, ऋग्वेद में जो परिभाषायें दी गई हैं, उनका व्यवहारिक पक्ष इस वेद में प्रस्तुत किया गया है, सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था वेद के अनुसार किस प्रकार की होनी चाहिये, यह वेद इन जानकारियों से समन्वित है, यजुर्वेद का प्रकाश इहलोक के आरंभ में वायु ऋषि पर हुआ था, जिसकी साक्षी विभिन्‍न ऋषियों ने दी है, यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है।

३.सामवेद :- यह वेद का तीसरा है, जो कलेवर में सबसे छोटा है, इसकी मंत्र संखया लगभग १८७५ है, ऋग्वेद के अधिकांश मंत्रों की पुनरावृत्ति से यह वेद भरपूर है, सामवेद में प्रमुख रूप से प्रेम या करूणा पक्ष पाया जाता है, गीत संगीत का भी इस वेद से संबंध है, इहलोक के प्रारंभ में इसका प्रकाश आदित्य ऋषि पर हुआ था, जिसकी साक्षी विभिन्‍न ऋषियों ने दी है, गान्धर्ग वेद इसका उपवेद है।

४.अथर्ववेद :- यह वेद का चतुर्थ वेद है, इसकी मंत्र संख्या लगभग ५९३३ है, वेद का एक पाठक अथर्ववेद तक पहुंचते-पहुंचते काफी परिपक्व मानसिकता पा चुका होता है, अतः इस वेद में मानव जीवन का वैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया गया है, इहलोक के प्रारंभ में इसका प्रकाश अंगिरा ऋषि पर हुआ था, जिसकी साक्षी विभिन्‍न ऋषियों ने दी है, स्थापत्य वेद इसका उपवेद है।


तथा भगवान्‌ मनु ने कहा है:
वेदो5खिलो धर्ममूलम्‌। (मनुस्मृति, २:६)
अर्थात :- वेद धर्म का मूल है।

महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं की :
यज्ञानां तपसां चैव शुभानां चैव कर्मणाम्‌ ।
वेद एव द्विजातीनां निःश्रेयसकरः पर: ।। (याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय:४०)
अर्थात :- यज्ञों, तपस्याओं और (उपनयनादि ) शुभ कर्मों का अवबोधक होने से वेद ही द्विजातियों के लिए परम उपकारक होता है दूसरा नहीं ।

अधीत्य सर्ववेदान्वै सद्यो दुःखात्प्रमुच्यते ।
पावन चरते धर्म स्वर्गलोके महीयते ॥ (बृहस्पतिस्मृति, क्लोक: ७९)
अर्थात :- सम्पूर्ण वेदों का पडने वाला शीघ्र ही दुःखों से छूट जाता है, और पवित्र धर्म का करने वाला स्वर्गलोक में पूजित होता है।


वेदांग

परंतु वेदों का अध्ययन अथवा उसको समझने के लिए वेदांग का समझना आवश्यक है, वेदांग दो शब्दों से जुड़कर बना है, वेद+अंग, अर्थात वेदों के अंग, मुंडकोपनिषद में वर्णित है:

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदो5थर्ववेद: शिक्षा कल्पो व्याकरण निरुक्तं छन्‍्दो ज्योतिषमिति ।॥। (मुंडकोपनिषद प्रथम खंड, क्लोक : ५)
अर्थात :- जिसमें ऋग, यजुष साम, अथर्व, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्‍द और ज्योतिष का ज्ञान होता है वह अपरा विद्या है।

अतः विद्वान इसी वेदांग का उल्लेख निम्नलिखित प्रकार से करते हैं :
शिक्षा व्याकरण छन्दो निरुक्ते ज्योतिषं तथा ।
कल्पश्चवेति षडड्ड्ग्गानि वेदस्याहुर्मनीषिण: ॥ (डॉ. कपिलदेव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, अध्याय 6, पृष्ठ, 90)
तथा कुछ विद्वान इसको इस प्रकार उल्लिखित करते हैं: "उदाहरण स्वरूप पुशविंदर कुमार की पुस्तिका 'वैदिक- साहित्य में षड़वेदांग पर एक आध्यात्मिक दृष्टिको” में उल्लेखित है :

शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्‍्दसां चय:
ज्योतिषामयनं चैव वेदाड़गनि षडेव तु ॥
अर्थात :- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छन्द, ये वेदांग ६ विद्यायें है, जिनका विभिन्‍न वेदाड्ड़्गीय ग्रंथों से अभ्यास कराया जाता है।


१. शिक्षा : इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है, स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो, उसे शिक्षा कहा जाता है, इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है, शिक्षा का उद्धव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उद्देश्य से हुआ है, यदि वेद मन्त्रों का उच्चारण शुद्ध ना हो तो उसके अर्थ का अनर्थ हो जाता है, उदाहरण स्वरूप :
स्वजन: ध्वजनो मा भूत्‌ू, सकल शकल, सकृत्‌ शकृत्‌। अर्थात :- स्वजन (अपना), श्वजन (कुतेका बच्चा), सकल (सम्पूर्ण) शकल (टुकड़ा) सकृत्‌ (एकबार ) शकृतू। बिष्ठा) अश्व (घोड़ा) अस्व (पराया) ते यह भेद है वेद के उच्चारण करने में, ठीक इसी प्रकार हर जुबान में भेद है बोलने या उच्चारण करने में तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है।


२. कल्प : वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है, इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है, इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।


३. व्याकरण : इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात, अनुदात तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है, वेद-शास्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है, इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है


४. निरुक्त : वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्था का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरुक्त में किया गया है।


५. ज्योतिष : इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है, यहाँ ज्योतिष से तात्पर्य वेदांग ज्योतिष से है।


६. छन्द : वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्‍दों की रचना का ज्ञान छन्दशाख््र से होता है। इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है, ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं, इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।


उपरोक्त में उल्लेखित ६ विद्याओं का वेदों से बहुत गहरा संबंध है, वेदरूपी पुरुष के अंगों के रूप में वेदांग की कल्पना करते हुए पाणिनीय शिक्षा के क्वोक ४१-४२० में वेदांगों का महत्व बताते हुए कहा है :
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तो कल्पो5थ पठ्यते।
ज्यतिषामयन चक्षुरनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥
शिक्षा प्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरण स्मृतम्‌ ।
तस्मात्‌ साड्ग्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ॥।
अर्थात :- छन्दः शास्त्र वेद के पाद स्थानी है, कल्प ग्रन्थ वेद के हाथ, ज्योतिष नेत्र, निरुक्त श्रोत्र, शिक्षा नासिका तथा व्याकरण वेद के मुख के समान है।

अर्थात जैसे हस्तादि शरीरांग शरीर के उपकारक है, हस्तादि के होने से व्यक्ति कर्म करने में समर्थ हो पाता है, वैसे ही वेदांग भी वेद के उपकारक हैं, वेदांग को जानने वाला विद्वान्‌ ही वेदार्थ करने अथवा उसको समझने में समर्थ हो सकता है।
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