श्री गुरु पूजन (दक्षिणा) कार्यक्रम
अपेक्षित कार्यकर्ता
- सम्पत हेतु
- गणगीत हेतु
- एकलगीत हेतु
- अमृत वचन हेतु
- प्रार्थना हेतु
- वक्ता/मुख्य अतिथि
- कार्यक्रम विधि बताने एवं मंचासीन बन्धुओं का परिचय कराने हेतु।
- कार्यक्रम स्थल से बाहर की व्यवस्था (स्वागत करते हुए, जूते, चप्पल, वाहन व्यवस्थित एवं यथा स्थान खड़े करवाने तिलक लगाने, कार्यक्रम में बैठने से पूर्व ध्वज प्रणाम करना आदि सूचना देने) हेतु।
- श्री गुरु पूजन (दक्षिणा) कार्यक्रम में पूजन हेतु लिफाफे देने एवं सूची बनाने हेतु अलग से कार्यकर्ता अपेक्षित है।
आवश्यक सामग्री :
- मौसमानुकूल उपयुक्त एवं स्वच्छ स्थान (बिछावन सहित)।
- चूना एवं रस्सी (रेखांकन हेतु)।
- ध्वज दण्ड हेतु स्टेण्ड (यदि स्टेण्ड की व्यवस्था नहीं है तो गमला अथवा उचित संख्या में ईटें)।
- चित्र (भारतमाता, डॉक्टर जी एवं श्री गुरुजी के मालाओं सहित)।
- मुख्य अतिथि/मुख्य वक्ता के लिये मंच/कुर्सियां।
- सज्जा सामग्री (रिबिन, आलपिनें, सेफ्टी पिनें, चादरे/ चांदनी, पर्दे, सुतली, गोंद आदि), पुष्प, थाली, धूपबत्ती, प्लेट, माचिस, चित्रों हेतु मेजें, चादरें।
- तिलक हेतु चन्दन अथवा रोली, अक्षत, कटोरी/थाली।
- कार्यक्रम यदि रात्रि में है तो समुचित प्रकाश व्यवस्था।
- ध्वनि वर्धक बैटरी सहित (यदि आवश्यक हो तो)।
विशेष -
श्री गुरु दक्षिण कार्यक्रम हेतु लिफाफे, कागज, कार्बन (सूची बनाने हेतु) एवं पूजन के समय गीत के लिये टेपरिकार्डर एवं अच्छे गीतों की ध्वनिमुद्रिकायें (कैसिट्स)।
कार्यक्रम विधि :
- सम्पत्
- गणगीत
- अधिकारी आगमन
- कार्यक्रम की विधि बताना एवं सूचनाये आदि
- ध्वजारोहण
- मंचासीन बन्धुओं का परिचय
- अमृत वचन
- एकलगीत
- वक्ता/ अतिथि द्वारा उदबोधन
- प्रार्थना
- ध्वजावतरण
- विकिर
विशेष-
- अधिकारी आगमन के समय उत्तिष्ठ की आज्ञा होगी। पश्चात् आरम् एवं दक्ष की आज्ञा पर सभी स्वयंसेवक दक्ष में खड़े होंगे और ध्वजारोहण होगा।
- ध्वजारोहण तथा ध्वजावतरण के समय मुख्य अतिथि/वक्ता अग्रेसर (अभ्यागत) के बराबर तथा माननीय संघचालक/ कार्यवाह अपने निर्धारित स्थान पर खड़े होंगे।
- कार्यक्रम के उपरांत परिचय की दृष्टि से शाखा टोली सहित प्रमुख कार्यकर्ताओं को रोकना।
विचारणीय बिन्दु
- हमारे जीवन विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक।
- यह एक दिन का नहीं वरन् 365 दिन का समर्पण है।
- वर्तमान समय में कार्य की पूर्ति हेतु धन की आवश्यकता। अतः स्वयंसेवक का समर्पण भाव पुष्ट करने हेतु वर्ष में एक बार श्री गुरुदक्षिणा कार्यक्रम।
- हमें सब कुछ समाज से, राष्ट्र से प्राप्त होता है, अतः उसी की सेवा में 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा' की भावना से समर्पण।
- यज्ञ की भावना से- यथाशक्ति नहीं, वरन् संगठन की अपेक्षा-आवश्यकतानुरूप।
- दान सहायता या चंदा नहीं वरन् समाज एवं राष्ट से उण होने का विनम्र प्रयास।
- संघ की इस विशिष्ट पद्धति से स्वयंसेवक का समर्पण भाव बढ़ता है एवं इसी से अपना संगठन आत्मनिर्भर बनता है।
- गुरु द्वारा किये गये अमूल्य उपकार की अनुभूति व्यक्ति को कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण की स्वाभाविक प्रेरणा देती है। भारतीय संस्कारों में कृतज्ञता ज्ञापन स्वाभाविक है। गुरु के प्रति इसी कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतीक श्री गुरुदक्षिणा है। गुरुकुलों में शिष्य शिक्षा समाप्ति के बाद अपने गुरु को दक्षिणा देकर यह कृतज्ञता प्रकट करते रहे हैं। शिष्य अपनी क्षमता अथवा अपने गुरुजी की इच्छानुसार यह दक्षिणा देते थे। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार दक्षिणा की प्रक्रिया ओर स्वरूप भिन्न रहे होंगे। परन्तु दक्षिणा का विधान भारतीय समाज में अविरल दीर्घकाल से मान्य रहा है।
- दक्षिणा पद्धति का प्रारम्भ होने की कोई निश्चित तिथि या काल तय करना कठिन है। परन्तु यह सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग अर्थात् सभी युगों में विद्यमान रही है। सतयुग में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की गाथा है। विश्वामित्र की इच्छानुसार दक्षिणा चुकाने हेतु उन्होने स्वयं को डोम के यहां तथा अपनी पत्नी तथा बालक रोहिताश्व को भी दक्षिणा के बचे हुए धन की पूर्ति हेतु बेचा। द्वापर मे एकलव्य ने अपने दायें हाथ का अँगूठा काटकर गुरु की इच्छानुसार दक्षिणा दी। त्रेता में महाराज रघु ने एक असमर्थ बटुक कौत्स को उसके गुरु की इच्छानुसार धन के रूप में दक्षिणा देने मे सहायता करने के लिये कुबेर पर आक्रमण करने की तैयारी की थी। उस आक्रमण से पूर्व ही कुबेर ने अयोध्या में स्वर्णमुद्राओं की वर्षा कर दी थी। कलियुग मे मूलशंकर (महर्षिं दयानन्द) ने अपने गुरु बिरजानन्द की इच्छानुसार अपना सारा जीवन वेदों को पुनः महिमामण्डित करने में लगा दिया। गुरु यही दक्षिणा रूप में चाह रहे थे। अतः स्पष्ट है कि भारतीय समाज में अत्यंत प्राचीन काल से आज तक दक्षिणा देने की परम्परा विद्यमान है।
- हिन्दू परिवारों में मांगलिक कार्य हो अथवा कोई अशुभ अवसर हों, दक्षिणा देने की परम्परा है। शुभ अवसर जैसे कथा आदि पर आमंत्रित ब्राह्मणों को भोजनोपरान्त दक्षिणा दी जाती है। इसी प्रकार अशुभ अवसरों जैसे मृत्यु आदि पर भी ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देने के दृश्य दिखाई देते है। वर्ष में एक समय ऐसा भी आता है जब हमें अपने आत्मीय दिवंगतों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है। “संघ के प्रारम्भकाल में स्वयंसेवकों ने श्राद्धो मेँ भोजन के बाद मिली दक्षिणा का धन एकत्रित कर घोष खड़ा किया था, यह उल्लेख मिलता है।"
- संघ ने समाज में प्रचलित इस दक्षिणा परम्परा को एक नया रूप दिया है। व्यक्तिगत उपयोग के स्थान पर राष्ट्रकार्य के लिये आवश्यक धन की व्यवस्था दक्षिणा के धन से करने की परम्परा डाली है। अपने गुरु भगवाध्वज के सामने धन अथवा सम्पूर्ण जीवन दक्षिणा रूप में अर्पित करना स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझता है। पुष्पार्चन से भी भगवाध्वज का पूजन किया जा सकता है। स्वयंसेवक स्वयं उपस्थित होकर दक्षिणा करे, यही विधान है।
- दक्षिणा का सही स्वरूप भी समझना अत्यावश्यक है। दक्षिणा दान नहीं है, दान में अहं भाव रहता है। अपना स्वयं का नाम प्रमुखता से सबके सामने आये, यह इच्छा रहती है। दक्षिणा चन्दा भी नहीं है। चंदा देकर अपने प्रभाव से अपने स्वार्थ की पूर्ति बड़े-बड़े धनवान राजनीतिक दलों से करते हैं, यह सभी को पता है। दक्षिणा संघ का सदस्यता शुल्क भी नहीं है। सदस्यता के लिये शाखा आना मात्र पर्याप्त है। जितना धन सुविधा से अपने पास देने हेतु हे, वही भगवाध्वज के समक्ष अर्पित कर दिया तो दक्षिणा के सही भाव को नहीं समझा है, यही माना जायेगा।
- दक्षिणा करने में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रतिदिन अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर वर्ष के अंत में इस संग्रहीत धन को दक्षिणा में देना अभीष्ट हे। अपने जीवन मे प्रतिदिन समर्पण एवं त्याग की वृत्ति व्यावहारिक रूप में प्रकट करने में स्वयंसेवक समर्थ हो, यह अपेक्षा है। दक्षिणा करने पर जीवन में कुछ कष्ट हो, अपनी स्वयं की सुविधायं जुटाने के लिये आवश्यक धन प्राप्त करने में कुछ विलम्ब होता हो तो दक्षिणा की योग्य भावना प्रकट होगी, ऐसा मानना चाहिये। संघ के प्रारम्भ में स्वयंसेवकों ने अपने जेव खर्च से बचाकर तथा स्टेशन पर कुलीगिरी आदि से धन अर्जित कर वर्ष के अंत में संचित धन दक्षिणा रूप में भगवाध्वज के समक्ष अर्पित कर अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित किये हें । उस समय स्वयंसेवक स्वयं धन अर्जन करने की अवस्था में नहीं थे। आज स्थिति बदली है, अतः उसका ध्यान रखकर इस संबंध में विचार करना वांछित है।
- दक्षिणा का एक अन्य महत्वपूर्णं पक्ष यह भी है कि संघ कार्य आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी रहे। इस संबंध में किसी भी प्रकार के दबाव में रहकर कार्य करने की स्थिति न बने, यह स्वयंसेवकों का दृष्टिकोण है। संघ कार्य हेतु आवश्यक धन की व्यवस्था स्वयंसेवक स्वयं ही करते हैं। वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा के मंगलपर्व पर भगवाध्वज का पवित्र भाव से पूजन में दक्षिणा अर्पित कर राष्ट्र हेतु तन, मन, धन से समर्पण एवं त्यागवृत्ति के संस्कारों को वर्षानुवर्ष पुष्ट करते जाते हैं।
- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूलगामी कार्य मनुष्य निर्माण का है। प्रत्येक स्वयंसेवक में राष्ट्र के लिये सर्वस्व त्याग करने का भाव निर्माण हो। राष्ट्र कार्य को अपने अन्य कार्यो के ऊपर वरीयता देने का मन बने। इसके लिये सतत अभ्यास की आवश्यकता है। लगातार मन पर संस्कार करने से यह सम्भव होता है। दक्षिणा कार्यक्रम भी इसी प्रकार के संस्कार देने के क्रम में एक पग है।
"भगवा ध्वज"
राष्ट्रजीवन में ध्वज का स्थान :-
स्फूर्ति केंद्र, एकता तथा दृढ़ता के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थान ध्वज का है। विजय चिन्ह विजिगीषु मनोवृति का प्रतिक। यश, सफलता और सम्मान का प्रतिक।
ध्वज का निर्माण कैसे होता है।
ध्वज अनायास ही नहीं बनते। उसके पीछे होता है राष्ट्र का इतिहास,परम्परा तथा जीवन दृष्टि।अनेक आधुनिक राष्ट्रों के ध्वजों के पीछे केवल राजनीतिक घटनाएं हैं। क्योंकि वह सभी देश( राष्ट्र )नये बने हैं, परन्तु अपना प्राचीन राष्ट्र है, इसी कारण प्राचीन ध्वज "भगवा-ध्वज" ही राष्ट्र का परम्परागत पुरातन ध्वज है।
भगवा ध्वज पुरातन ध्वज।
वेदों में, "अरुणः सन्तु केतवाः" का वर्णन उसके हल्दी जैसे रंग का वर्णन आता है। आदिकाल से जनमेजय तक सभी चक्रवर्ती राजाओं, सम्राटों, महाराजाओं, धर्मगुरुओं, अवतारों और सेनानायकों का ध्वज यही था । जैसे रघु, राम, अर्जुन, चन्द्रगुप्त, शंकरादि, विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, स्कन्दगुप्त, यशोधर्मा, हर्षवर्धन, पृथ्वीराज, महाराणा प्रताप, शिवाजी, गुरुगोबिंद आदि सभी ने इसी ध्वज की रक्षा के लिए संघर्ष किये।
भगवा रंग का महत्व।
भगवा रंग त्याग, ज्ञान, पवित्रता और तेज का प्रतिक है, यज् की ज्वाला से निकली अग्नि-शिखाओं को लिए हुए। प्राचीन काल में जन-कल्याण की भावना से तप-साधना में रत सर्वस्वार्पण करने वाले सन्यासियों का बाना व उनका आदर्श सम्मुख उपस्थित करने वाला।
1926 भगवा ध्वज को राष्ट्र ध्वज स्वीकारा।
1926 को कराँची कांग्रेस में "झंडा कमेटी" की रिपोर्ट में भगवा ध्वज को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार किया गया था, परन्तु तुष्टिकरण के कारण फिर से बदल दिया गया और उसकी नई व्याख्या की।
संविधान के अनुसार अशोक चक्रधारी तिरंगा राष्ट्र (राज) ध्वज है। स्वराज एवं राष्ट्र के घटक होने के नाते हम तिरंगे का आदर करते हैं। उसके मान-सम्मान के लिए सर्वस्वार्पण को सिद्ध हैं।
गुरु दक्षिणा का उद्देश्य
गुरुपूजा और समर्पण भाव -
संस्कृत की "गृ" धातु जिसका अर्थ है अज्ञान "रू" प्रत्यय लगाने से संयुक्त शब्द होता है "गुरु" जिसका अर्थ होता अज्ञान को हरने वाला। गुरु मनुष्य जीवन के विकास में सबसे महत्वपूर्ण है। किसी भी उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना हिन्दु समाज की विशेषता है। गुरुपूर्णिमा पर्व का महत्व इसी दृष्टि से समझने की आवश्कता है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा हिन्दु समाज में गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय समाज में वैदिक काल के समय से ही गुरु शिष्य परम्परा विद्यमान रही है। अपने यहाँ मान्यता है कि बिना गुरु के ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं। जीवन को सही दृष्टि गुरु के मार्गदर्शन से ही प्राप्त होती है। गुरुजनों के प्रति पूज्यभाव यह हमारी प्रकृति है। आध्यात्मिक विद्या का उपदेश देने और ईश्वर का साक्षात्कार करा देने वाले गुरु को अपनी भूमि में साक्षात् परम ब्रह्म कहा गया है। महर्षि दयानन्द जी ने भी गुरु का महत्व समझाते हुए कहा है कि "गु" अर्थात् अन्धकार, "रु" अर्थात् मिटाने वाला गुरु अर्थात् अन्धकार को मिटाने वाला ,अर्थात् ज्ञान देने वाला। इस सृष्टि में "माँ" ही प्रथम गुरु है। भारतीय संस्कृति में व्यक्ति ही नहीं तत्व को भी गुरु के रूप में स्वीकार करने की परम्परा विद्यमान है। गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतिक "गुरु दक्षिणा" यह हमारी प्राचीन पद्धति है जैसे :- आरुणि, शिवाजी, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, कौत्स आदि। संघ में व्यक्ति के स्थान पर तत्व निष्ठा का आग्रह किया गया। संघ ने पवित्र भगवाध्वज को गुरु स्थान पर स्वीकार किया क्योंकि यह राष्ट्र का प्रतिक है। आवश्कता है जिसे गुरु माना उसकी नित्य पूजा अर्थात् उसके गुणों को अपने अन्दर लाने की। "पतत्वेष कायो" एक संकेत मात्र है। इसका वास्तविक अर्थ केवल काया(शरीर) तक सीमित नहीं है। इसका वास्तविक अर्थ है मेरा शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा तथा वह सब कुछ जो मेरे पास किसी भी रूप में है उस सबका समर्पण।
श्री गुरुदक्षिणा ? :-
वर्ष में एक बार स्वयंसेवक श्रद्धाभाव से ध्वज के सम्मुख उपस्थित होकर उसका पूजन करते हैं अर्थात् श्री गुरु के सम्मुख दक्षिणा अर्पित करते हैं। और श्रीगुरुदक्षिणा में धन के समर्पण के साथ-साथ 'मैंने दिया' इस भाव का भी समर्पण है अर्थात् मन में यह भाव भी नही आना चाहिए। यह वार्षिक शुल्क, चन्दा, संग्रह, दान, सहयोग राशि जैसा नहीं, गुरुदक्षिणा में जो दाएं हाथ से अर्पित किया वह बायें हाथ को भी पता न चलने पाएं अर्थात् कही भी इसकी चर्चा व प्रतिफल की लेशमात्र भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। यह 365 दिन का संग्रहीत अत्यंत श्रद्धापूर्वक, पवित्र भाव से, अपनी दैनिक आवश्कताओं में से कुछ कटौती करते हुए सञ्चित धन को गुरु राष्ट्रदेव अर्थात् भगवाध्वज के श्रीचरणों में विनीत भाव से समर्पित करना ही गुरुदक्षिणा हैं।
- समर्पण के परिणाम- स्वयंसेवकों में समर्पण भाव की निरन्तर वृद्धि होना।
- समर्पण राशि की चर्चा व प्रतिफल नहीं के परिणाम- स्वयंसेवकों में हीनता तथा अहंकार नहीं।
- 365 दिन का संग्रहीत समर्पण का परिणाम- नित्य संग्रहण कर दक्षिणा के संस्कारों के कारण धीरे-धीरे लाखों स्वयंसेवकों में समाज के प्रति दायित्व बोध जागृत होता है।
- संघठन आत्मानिर्भर होगा।
- संघठन पर किन्हीं बाहरी लोगों का वर्चस्व नहीं होगा।
श्री गुरू दक्षिणा उत्सव हेतु बौद्धिक
संघ के सभी उत्सव विभिन्न प्रकार के संस्कार देने के लिए हैं यह हम सब जानते है। विजयादशमी का उत्सव विजय की भावना हममे उत्पन्न करने के लिए है। मकर संक्रांति का उत्सव, अपने जीवन में संक्रांति ला सके हैं इसके लिए है। इस प्रकार गुरू पूजन का उत्सव समर्पण-भाव संदेश के लिए है। गुरू पूजा का उत्सव किस प्रकार संघ में विकसित हुआ उसके बारे में आप लोगों के सामने रखना मेरा कर्तव्य है। ऐसा मैं मानता हूँ।
जीवन में गुरू का महत्व-
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रीयता एवं हिन्दुत्व के आधार पर कार्य करने वाला एक संगठन है। हिन्दुत्व के नाते जब हम अपने जीवन के बारे में सोचते हैं। तो अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दुत्व से ही प्रभावित है। अब हिन्दू-जीवन मे गुरू का महत्व बहुत अधिक है। हम अपनी माँ और पिताजी को देव-समान मानते है। उसके बाद हमें समाज में जो स्थान देते हैं, वह अपना गुरू है। इसलिए प्राथमिक प्रकाश जब माता-पिता देते हैं उसके बाद ज्ञान का प्रकाश दुनिया की जानकारी देने वाले व्यक्ति को हम गुरू कहते हैं। इसलिए माता भी देव-समान हैं। गुरू भी देव समान है। इसलिए अपने उपनिषदां में सर्वप्रथम कहा- मातृ देवो भव, माता देव के समान हो, इसके बाद पित् - देवो भव पिता भी ईश्वर के समान उसके बाद तीसरा शब्द है आचार्य: देवो भव गुरू भी देव के समान है। इसलिए जो हमें पाशविक जीवन से मानवीय जीवन की ओर ले जाते हैं सभी हमारे देव हैं। इसलिए माता-पिता गुरू तीनों देव समान है ।
जीवन में गुरू की आवश्यकता-
जब गुरू का महत्व देव समान है तो अपनी संस्कृति ने दूसरा भी एक पाठ सिखाया। आदमी कितना भी बड़ा हो गुरू के बिना उसकी शिक्षा सम्पूर्णं नहीं हो पाती। इसलिए हम देखते हें, साक्षात् श्रीकृष्ण परमात्मा, वे ज्ञान का अधिष्ठाता थे तो भी उनको एक गुरू के यहां जाकर गुरू के चरणों में बैठकर अपनी शिक्षा प्रारम्भ करनी पड़ी और पूर्णं करनी पड़ी। वे स्वयं ज्ञानी थे तो भी संदीपनी महर्षि के आश्रम में जाकर उनको अपना गुरू के नाते उन्होने स्वीकारा। प्रभु रामचन्द्र जी वह भी त्रिकाल ज्ञानी थे तो भी वशिष्ठ को गुरू के नाते उन्होने अपनाया। आदमी अत्यन्त महान हो, तो भी गुरू के नाते और एक व्यक्ति के चरणों के पास जाकर विनम्रता से बैठकर शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। गुरू के बिना ज्ञान सम्पूर्ण नहीं हो जाता यह अपनी संस्कृति की शिक्षा है। इसलिए परम पूज्यनीय डॉ0 साहब ने भी जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू किया तो स्वावरम्बन के आधार पर शुरू किया। संघ का एक प्रसिद्ध वाक्य है स्वयमेव मृगेन्द्रता। हम दूसरों की वैशाखी पर चलना नहीं चाहते हे स्वावलम्बी जीवन। इस प्रकार संगठन चलाना चाहते हैं यह डॉ0 जी का विचार था तो भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुत्व का आधार का संगठन होने के कारण संघ के सामने एक गुरू चाहिये।
व्यक्ति नहीं आदर्श गुरू-
संघ के सामने गुरू कौन चाहिये? डॉक्टर जी का चिन्तन अत्यन्त गहरा था। एक-एक बिन्दु के बारे में बार-बार गहराई से वह सोचा करते थे इसलिए 0 जी ने सोचा संघ का गुरू कोन हो सकता है? उन्होने सोचा स्वयंसेवकों के सामने एक आदर्श ही गुरू होना चाहिये । लक्ष्य ही गुरू होना चाहिये। साथ ही साथ डॉ० जी ने और एक बात सोची । व्यक्ति तो अच्छे हो सकते हे परन्तु व्यक्तियों में मर्यादा है। व्यक्ति नश्वर हे। आज उसका जन्म है कल उसकी मृत्यु त्रुटियाँ व्यक्ति द्वारा हो सकती है। यह दूसरा विचार और तीसरा व्यक्ति आखिर तक, अन्त तक एक पथ पर चलेगा उसका भरोसा क्या है। इसलिए व्यक्ति परिवर्तनीय है इसलिए एक व्यक्ति को जब हमने गुरू के नाते रखा तब शायद जिन्होंने उनको गुरू माना उनका मन इधर-उधर जा सकता है।
अपना आदर्श- अब कोन सा आदर्श अपना आदर्श हैं। यह भारतवर्ष हिन्दू राष्ट्र है। इसका प्राण हिन्दुत्व हैं और हिन्दुत्व के आधार पर ही अपने भविष्य के जीवन की रचना करनी चाहिये। इस प्रकार उन्होने सोचा और संघ का आदर्श ही संघ का गुरू है। इसके बारे में डॉ0 जी ने सोचा।
अपना गुरू भगवा ही क्यो ?-
हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भगवाध्वज को गुरू मानते हैं। सम्पूर्ण इतिहास का प्रतिनिधि है। सम्पूर्ण महात्माओं की मालिका का निचोड हे इसीलिए भगवाध्वज की आराधना करते समय हम सभी महात्माओं की साधना-आराधना करते हैं उनकी पूजा करते हैं उनके आदर्श को स्वीकारते हैं। इसीलिए परमपूजनीय डॉ0 जी ने यह निराकार आदर्श को साकार करके अपने सामने भगवाध्वज को गुरू के नाते रखा। अब ये भगवाध्वज अपने पूर्वजों ने क्यों स्वीकार किया। केवल रंग के कारण किया क्या? रंग में बहुत अधिक आकर्षण है इसीलिए स्वीकार किया क्या ? उसके अच्छे-अच्छे उद्देश्य है। अपने समाज का प्रतीक है। समाज का स्वभाव क्या है ? समाज की पहचान क्या हे समाज की प्रकृति क्या हे ? उसी प्रकार का होना चाहिये अपना प्रतीक। अब राष्ट्र की प्रकृति क्या है? भारत राष्ट्र हिन्दू रा इसको हम कहते हैं, मानते हैँ । वो अनादि है इसीलिए अनादि राष्ट्र का प्रतीक भी अनादि जिसका प्रारम्भ नहीं, आदि नहीं अनादि चाहिये। भारत राष्ट्र का कब जन्म हुआ? उसको कोई नहीं जानता। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि बहुत बड़ा इतिहासकार भी अगर खोज करता है तो भी भारत का उदय कब हुआ यह नहीं जान सकता इसीलिए भारत राष्ट्र को उन्होने कहा अनादि। अब इस अनादि राष्ट्र का प्रतीक भी अनादि होना चाहिये ओर भगवा ध्वज का प्रारम्भ कब हुआ हम जानते हैं क्या वो अनादि हे जैसा राष्ट्र अनादि उसी प्रकार ध्वज भी अनादि। भारत राष्ट्र किस पुरूष के द्वारा स्थापित हुआ हम नहीं जानते है इसीलिए भारत राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र अपौरूषेय है। किस पुरूष ने भारत राष्ट्र की संस्थापना की कोई भी इतिहासकार नहीं बता सकता है। भारत राष्ट अपौरूषेय है। उसका प्रतीक भगवाध्वज भी अपौरूषेय हे । भारत राष्ट्र का लक्ष्य चिरन्तन है और राष्ट्र के प्रतीक यानि भगवा ध्वज का लक्ष्य भी चिरन्तन हैं।
संघ में गुरू दक्षिणा उत्सव क्यो ?
डॉ0 जी ने इसके बारे में भी सोचा था। संघ के प्रारम्भिक दिनों मे परमपूजनीय डॉ0 जी को 2-3 सालों में संघ चलाने के लिए पैसों की आवश्यकता थी इसीलिए वो स्वयं लोगों के पास जाकर जिनसे बहुत अच्छा परिचय था उनका उनसे वो पैसा ठेते थे परन्तु वो जानते थे ये एक अस्थायी व्यवस्था है ये आखिर तक नहीं चलनी चाहिये क्योकि एक संगठन का प्राण उसी के अन्दर रहना चाहिये। कार्यकर्ता संघ के अन्दर के परन्तु कार्यकर्ता के लिए कार्य बढ़ाने के लिए जो धन चाहिये उसका स्रोत संघ के बाहर यह भविष्य में कमजोरी ला सकती है। इसीलिए धन का केन्द्र भी संगठन के अन्दर ही होना चाहिये हम संगठन में काम करने वाले भी संगठन के अन्दर ही होने चाहिये जैसा मैंने शुरू मे कहा - दूसरों की वैशाखी पर चलना एक सक्षम संगठन को शोभा हीं देता और सक्षम संगठन को भविष्य में कमजोर होने की संभावना है। इसीलिए डॉ० जी ने दो बातें अपने सामने रखी। एक संगठन अत्यन्त व्यापक बनाने के लिए अत्यन्त प्रभावी ताकत वाला बनाने के लिए और भविष्य में भी यह संगठन चलाने की क्षमता संगठन के अन्दर ही रहनी चाहिये। इस प्रकार हम कहते हैं कि स्वयं चालक शक्ति संगठन के अन्दर ही होनी चाहिये।
प्रतिबद्धित जन-धन इाक््ति-
इसीलिए उन्होने दो बातों पर जोर दिया एक है प्रतिबद्धित जन शक्ति चाहिये। संगठन के लिए ही काम करने वाले एक ही धुन इस प्रकार सोचने वाले लोग अपने को चाहिये। जो संगठन के लिए ही जियेंगे। संगठन के लिए ही सोयेगे। सोने में, संगठन, जागरण मे संगठन। संगठन, संगठन एक ही धुन। इस प्रकार के प्रतिबद्धित लोगों की शक्ति चाहिये, साथ ही साथ प्रतिबद्धित जन शक्ति को काम करने को प्रतिबद्धित धन शक्ति चाहिये। उसका केन्द्र भी संगठन के अन्दर ही होना चाहिये।
दक्षिणा और अन्य पद्धति में अन्तर -
उसमें से निकला यह गुरू दक्षिणा का भाव। यह दक्षिणा उसका भाषान्तर अंग्रेजी भाषा में नहीं पैसा कमाने का प्रयोग जिसे हम कहते है तरह-तरह के कितने है। एक है जो चन्दा देते हैं। दूसरा है दान। इसमें डॉ0 साहब ने कमियां देखी। संघ में जो आना चाहता है आइये। संघ का सदस्य बनने के लिए संघ में आना चाहिये। दान अच्छा है परन्तु दान देते समय व्यक्ति का पुण्य भाव अपने अन्दर होता है। जब दान देता है इसका पुण्य मुझे मिलना चाहिये। संघ का कार्यकर्ता ही संघ का उपकर्ता और संघ का उपकर्ता ही संघ का कार्यकर्ता। दोनों का संगम होना चाहिये। वो दान से नहीं होता तब दान भी संघ के दृष्टिकोण में अपर्याप्त। तब हम किस प्रकार यह प्रतिबद्धित धनशक्ति खड़ा करेगे- डॉ0 जी ने सोचा। तब डॉ0 जी के मन में आया अपनी प्राचीन संस्कृति में उसके लिए भी एक उत्तर है दक्षिणा। दक्षिणा भगवान के सामने चढ़ाते समय वो दान है क्या। भगवान को हम दान देते हैं? क्या उसको इस प्रकार हम कहेंगे क्या? भगवान को दे सकते हैं क्या? भगवान का भक्त बनाने के लिए चन्दा यह भी कह सकते हैं क्या? परन्तु भगवान के सामने हम दक्षिणा चढ़ाते हैं।
दक्षिणा का महत्व-
इस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह सम्पूर्ण गुरू पूजा का विकास इस प्रकार हुआ। स्वयंसेवक को सोचना चाहिये और इसकी श्रेष्ठता कैसी है? कभी-कभी यह सिखाने के लिए भगवान हमारे सामने भिन्न-भिनन प्रकार के अवसर रख देते हैं। संघ के जीवन मे द्वितीय प्रतिबन्ध अत्यन्त कठोर था। पहला प्रतिबन्ध तो था ही कठोर परन्तु उससे भी कठोरतरम था द्वितीय प्रतिबन्ध। संघ में गुरू दक्षिणा तो छोटी है लगता है आना है प्रणाम करना और देना परन्तु कितना है हम यह देखते है। आज हममे से बहुत स्वयंसेवक गुरूदक्षिणा करते है। उस समय मेरी नजर में एक पुराना स्वयंसेवक ठीक प्रकार देख नहीं सकता परन्तु और एक स्वयंसेवक का सहारा लेकर धीरे-धीरे मंद गति से आगे बढ़ते-बढ़ते शायद ध्वज को उन्होंने नहीं देखा परन्तु ध्वज कहां है वह जानता था। प्रणाम किया, गुरूदक्षिणा किया। इसको कहते है प्रतिबद्धित जन शक्ति। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बहुत बड़ी धन, सम्पत्ति हे। जिसके द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वावठम्बी स्वयंचालन कर सकता हे। इसीलिए आज गुरू दक्षिणा का महत्व क्या हे ? गुरू पूजा का महत्व क्या हे? गुरू का महत्व क्या है 2 जो विचार मेरे मन में आ गये आप लोगों के सामने मेने रख दिये हैं। आप सब पुराने स्वयंसेवक है नयी बात नहीं कहनी आपके सामने। इसलिए जितना सारा आप जानते हैं उसकी पुनरावृत्ति मैंने की और इतना ही कहकर मैं अपना विचार यहां समाप्त कर रहा हूं।
स्वर्णपदक गुरु दक्षिणा में
प.पू. बालासाहब देवरस प्रारम्भ से ही बड़े मेधावी छात्र थे। उन्होने दर्शन शाख आदि से स्नातक, तत्पश्चात नागपुर विश्वविद्यालय से विधि स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। ये सभी परीक्षायें उन्होने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । अनेक बार उन्हें स्वर्ण पदक प्राप्त हुए। उन्होने उन सभी स्वर्ण पदकों से सोना निकालकर उसे संघ की श्री गुरु दक्षिणा में अर्पित कर दिया।
श्री गुरुयूजन (दक्षिणा) हेतु अमृत वचन
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा- हमें जिस राष्ट्रीय मुक्ति की कामना है वह त्याग और कष्ट सहन के रूप में अपनी कीमत लिये बिना नहीं मिल सकती। यह अनुभव करने के लिये जिसके पास हृदय है और जो कष्ट सहन करने के लिये तत्पर है उसे पूजा के पुष्प लेकर आगे आना चाहिये।
एकलगीत
विश्च गुरु तव अर्चना में, भेंट अर्पण क्या करें?
जबकि तन-मन-धन, तुम्हारे ओर पूजन क्या करे?
प्राची के अरुणिम छटा है, यज्ञ की आभा-विभा है,
अरुण ज्योतिर्मय ध्वजा है, दीप दर्शन क्या करे ।।1।।
वेद की पावन ऋचा से, आज तक जो राग गूँजे,
वन्दना के उन स्वरों में, तुच्छ वन्दन क्या करें ।।2।।
राम के अवतार आएँ, कर्ममय जीवन चढ़ाएँ ,
अजिर तन तेरा चलाएँ, ओर अर्चन क्या करें ।।3।।
पत्र-फल और पुष्प जल से, भावना ले हदय तल से,
प्राण के पल-पल विपल से, आज आराधन करे ।।4।।