राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंच परिवर्तन
जब आरएसएस अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है और हमारा राष्ट्र “अमृत काल” युग में प्रवेश कर चुका है। तब अपने राष्ट्र को महान बनाने और 2047 तक एक बेहतर विश्व में योगदान देने के लिए, हमें स्वामी विवेकानंद और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन का अनुसरण करना होगा। एक समाज के रूप में, हमें इन वैश्विक अच्छे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार के साथ मिलकर काम करना होगा। भारतीय समाज में सकारात्मक परिवर्तन को गति देने एवं समाज में अनुशासन व देशभक्ति के भाव को बढ़ाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने व्यापक चिंतन किया और “पंच परिवर्तन” नामक पाँच सूत्र विकसित किए ताकि अनुशासन एवं देशभक्ति से ओतप्रोत युवा वर्ग अनुशासित होकर अपने देश को आगे बढ़ाने की दिशा में कार्य करे। पंच परिवर्तन उभरते भारत की चुनौतियों का समाधान करने में समर्थ है। समाज में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए निर्धारित किए गए ये 'पंच परिवर्तन' हैं। इस पंच परिवर्तन में पांच आयाम शामिल किए गए हैं - (1) स्व का बोध अर्थात स्वदेशी, (2) नागरिक कर्तव्य यानि नागरिक कर्तव्यों के पालन हेतु सामाजिक जागृति, (3) पर्यावरण यानि पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली, (4) सामाजिक समरसता यानि बंधुत्व के साथ समानता एवं (5) कुटुम्ब प्रबोधन यानि पारिवारिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए पारिवारिक जागृति। ये सभी मुद्दे बड़े पैमाने पर समाज से संबंधित हैं। परिवार जागरूकता, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी जीवन शैली, सामाजिक समरसता और नागरिक कर्तव्य के पंच परिवर्तन का संदेश हर गांव और कस्बे तक पहुंचायें और लोगों को उनका अनुसरण करने के लिए प्रेरित करें। यह केवल चिंतन और अकादमिक बहस का विषय नहीं है, बल्कि कार्रवाई और व्यवहार का विषय है और सामाजिक परिवर्तन के लिए सज्जन शक्ति को संगठित करना आवश्यक है। इस पंच परिवर्तन कार्यक्रम को सुचारू रूप से लागू कर समाज में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। 'पंच परिवर्तन' के माध्यम से हिंदू समाज में सामाजिक सद्भाव लाने के प्रयास कर रहे है। इन पांच आयामों को ‘पंच प्रण' भी इसी अपेक्षा से कहा गया है कि भारत के उत्थान की कामना करने वाले सभी लोग संकल्पपूर्वक इनकी पालना करें। ये मूलतः प्रमुख बिंदु हैं।
- स्व बोध : देश की स्वदेशी अर्थव्यवस्था और आत्मनिर्भरता पर जोर तथा नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होंगे।
- पर्यावरण : पृथ्वी को माता मानकर पर्यावरण संरक्षण हेतु जीवनशैली में बदलाव अर्थात सृष्टि का संरक्षण होगा।
- सामाजिक समरसता : समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सौहार्द और प्रेम बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित अर्थात सद्भाव से ऊंच-नीच जाति भेद समाप्त होंगे।।
- नागरिक नागरिक कर्तव्य बोध : प्रत्येक नागरिक का सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन और राष्ट्रहित में योगदान अर्थात कानून की पालना से राष्ट्र समृद्ध व उन्नत होगा।
- कुटुम्ब प्रबोधन : समाज में बढ़ते एकल परिवार के चलन को रोक कर भारत की प्राचीन परिवार परंपरा को बढ़ावा देने की आज महती आवश्यकता है। जिससे परिवार बचेंगे और बच्चों में संस्कार बढ़ेंगे। परिवार को राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली इकाई के रूप में संवर्धित करना।
उक्त पांचों आचरणात्मक बातों का समाज में होना सभी चाहते हैं, अतः छोटी-छोटी बातों से प्रारंभ कर उनके अभ्यास के द्वारा इस आचरण को अपने स्वभाव में लाने का सतत प्रयास अवश्य करना होगा। जैसे, समाज के आचरण में, उच्चारण में संपूर्ण समाज और देश के प्रति अपनत्व की भावना प्रकट हो, प्रत्येक घर में सप्ताह में कम से कम एक बार पूजा या धार्मिक आयोजन हो एवं अपने परिवार के बच्चों के साथ बैठकर महापुरुषों के सम्बंध में सप्ताह में कम से कम एक घंटे चर्चा हो, परिवार के सभी सदस्यों में नित्य मंगल संवाद, संस्कारित व्यवहार व संवेदनशीलता बनी रहे, बढ़ती रहे व उनके द्वारा समाज की सेवा होती रहे, आदि बातों का ध्यान रखकर कुटुंब प्रबोधन जैसे विषय को आगे बढ़ाया जा सकता है। इन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर कार्य करने से हमारे राष्ट्र का भविष्य तय होगा। इसी क्रम में, आइए “स्व बोध” पर विचार करें। अपनी स्थापना के समय से ही, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वामी विवेकानंद के सिद्धांतों का पालन करता रहा है। स्वामी विवेकानंद का उद्देश्य राष्ट्र के गौरव को पुनर्स्थापित करना था, और उन्होंने हमारे बच्चों में भारत में आत्मनिर्भरता की भावना का संचार करने के लिए एक मजबूत सांस्कृतिक और धार्मिक आधार के साथ विभिन्न पहलुओं पर ज़ोर दिया। स्वदेशी के आचरण से स्व-निर्भरता व स्वावलंबन बढ़ता है। फिजूलखर्ची बंद होनी चाहिए, देश का रोजगार बढ़े व देश का पैसा देश में ही काम आए, इस बात का ध्यान देश के समस्त नागरिकों को रखना चाहिए। इसीलिए कहा जा रहा है कि स्वदेशी का आचरण भी घर से ही प्रारंभ होना चाहिए। समस्त नागरिकों के घर में स्वदेशी उत्पाद ही उपयोग होने चाहिए। आरएसएस न केवल आत्मनिर्भर भारत में विश्वास करता है, बल्कि युवाओं के साथ जमीनी स्तर पर काम भी करता है, व्यवसायों का समर्थन करता है और इसे प्राप्त करने के लिए सरकारों के साथ मिलकर काम करता है। देश के वर्तमान परिदृश्य में यह 'पंच परिवर्तन' की अवधारणा कितनी मूल्यवान है, यह अलग से समझाने की आवश्यकता नहीं है। इसकी उपयोगिता देश का प्रत्येक सजग नागरिक भली-भांति समझ सकता है, किन्तु इनके पीछे जो सूक्ष्म दृष्टि और मूल भाव छुपा हुआ है, उसको जाने बिना हम न तो संघ की समाज परिवर्तन की अवधारणा को समझ सकते हैं, न संघ के वास्तविक लक्ष्य को। अतः जिस परिघटना से सम्पूर्ण देश में मूलगामी परिवर्तन की आहट सुनाई पड़ने लगी है, उस पर गंभीरता से विचार किया जाना अपेक्षित है। देखना होगा कि इस पंच प्रण की अवधारणा का वैचारिक आधार क्या है, जिनके द्वारा संघ ने एक उन्नत समाज की संकल्पना के साथ व्यापक सामाजिक परिवर्तन के लिए अपनी कमर कसी है। वस्तुत: समाज की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति है, जो उत्तरोत्तर बड़ी इकाइयों से संयुक्त रहती है। मनुष्य की चेतना का एक छोर उसके भीतर स्थित, उसका 'स्व' है, तो दूसरा छोर बाहर फैले हुए शेष संसार में रहता है। व्यक्ति की चेतना पर इन बाहरी इकाइयों के वलय बने रहते हैं जो परिवार, नगर, प्रान्त, राष्ट्र, समाज आदि के रूप में होते हुए सम्पूर्ण चराचर विश्व तक व्याप्त रहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति स्व और संसार के इन दो, भीतरी और बाहरी ध्रुवों से बंधा रहता है।
इस विकास यात्रा के क्रमश: पांच स्तर हैं- स्वयं की चेतना, पारिवारिक चेतना, राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक चेतना और वैश्विक चेतना । चेतना के इन पांचों सोपानों को पार करने के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को जिन पांच व्रतों की पालना करना आवश्यक है, वे इस प्रकार हैं-
- व्यक्ति स्तर पर स्व का बोध ।
- पारिवारिक स्तर पर कुटुंब प्रबोधन ।
- देश के स्तर पर नागरिक कर्तव्यों की पालना ।
- सामाजिक स्तर पर सामाजिक समरसता ।
- वैश्विक स्तर पर पर्यावरण अनुकूल जीवन ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस पंच परिवर्तन की प्रासंगिकता हमें जाननी चाहिए।
स्व का जागरण
समाज जीवन में परिवर्तन की प्रक्रिया का पहला सोपान व्यक्ति के स्व का जागरण है। स्व जागरण का भाव केवल सैद्धांतिक अवधारणा के लिए नहीं, अपितु जीवन में व्यावहारिक रूप में उतारना आवश्यक है। अपनी जीवनचर्या में स्वदेशी का भाव विकसित करने के लिए विचार, व्यवस्था, वस्तु और वृत्ति, इन सभी का स्वदेशीकरण आवश्यक है। व्यक्ति चेतना पर पड़े हुए औपनिवेशिक गुलामी के आवरण को स्वदेशी आचरण से ही दूर किया जा सकता है। किसी भी नव-स्वतंत्र राष्ट्र के नेतृत्व का सबसे महत्वपूर्ण कार्य उसकी जनता की मानसिकता में आवश्यक परिवर्तन लाना होता है। श्री गुरुजी नव-स्वतंत्र भारत की मानसिकता से भली-भांति परिचित थे। अंग्रेजों ने भारत को न केवल राजनीतिक और आर्थिक रूप से, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी अपने अधीन कर लिया था। वे अपनी कुटिल योजनाओं में काफी सफल रहे थे। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने इस वास्तविकता को पहचाना और स्वदेशी, गोरक्षा, स्वभाषा आदि को बढ़ावा देकर इस आत्मघाती मानसिकता को मिटाने का प्रयास किया। डॉक्टरजी के बाद, श्री गुरुजी ने संघ के माध्यम से इन सिद्धांतों के बारे में जन ज्ञान बढ़ाने के लिए अनेक प्रयास किए। स्वदेशी के बारे में उनकी मान्यताएँ सर्वव्यापी थीं। भारत में हाल ही के समय में देश की संस्कृति की रक्षा करना, एक सबसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में उभरा है। स्वदेशी का उनका दर्शन स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग से आगे बढ़कर दैनिक जीवन के सभी पहलुओं को शामिल करता था, जैसे विवाह के निमंत्रण या कार्यक्रमों की शुभकामनाएँ अपनी मातृभाषा में भेजना और हिंदू परंपरा के अनुसार जन्मदिन मनाना, आदि। भारतीयों को यह समझना चाहिए कि हमारा विकास मॉडल यूरोपीय मॉडल से कहीं बेहतर और अधिक सिद्ध है। यदि हम अपनी जड़ों की और लौटेंगे और शांति, नैतिक सिद्धांतों, पर्यावरणीय पोषण और संतुलन, और सबसे महत्वपूर्ण, वैश्विक विकास, सुख और शांति पर आधारित विकास मॉडल का अनुसरण करेंगे, तो भारत फिर से समृद्ध होगा। समाज की एकता, सजगता व सभी दिशा में निस्वार्थ उद्यम, जनहितकारी शासन व जनोन्मुख प्रशासन स्व के अधिष्ठान पर खड़े होकर परस्पर सहयोगपूर्वक प्रयासरत रहते है, तभी राष्ट्रबल वैभव सम्पन्न बनता है।
कुटुंब प्रबोधन
पारिवारिक स्तर पर चेतना के महत्व की दृष्टि से कुटुंब प्रबोधन एक आवश्यक सोपान है। कुटुंब या परिवार व्यक्ति और समाज के बीच की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है। समाज का लघुतम स्वरूप हम परिवार में अनुभव करते हैं। यह संस्कारों की पहली पाठशाला है, जिसके आचार्य एवं शिक्षक- प्रशिक्षक, माता-पिता और परिवार के बड़े लोग होते हैं। व्यक्ति के समाजगत आचार-विचार- व्यवहार का प्रशिक्षण और प्रबोधन परिवार के ही माध्यम से होता है। बाल्यकाल से ही अनुकूल संस्कारों के आधान और प्रतिकूल संस्कारों के विसर्जन में परिवार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः समाजोपयोगी मूल्यों की शिक्षा के लिए परिवार संस्था को सुदृढ़ बनाए रखना सामाजिक प्रबंधन का दूसरा महत्वपूर्ण सोपान है।
नागरिक कर्तव्यों का पालन
मानवीय चेतना का तीसरा घेरा भौगोलिक परिधि में आबद्ध किसी राष्ट्र अथवा राज्य का होता है, जो देश के विधि-विधान के अनुसार मनुष्य के सामुदायिक कर्तव्यों और आचार-व्यवहारों को निर्धारित करता है। एक अनुशासित और सभ्य समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों की पालना सुनिश्चित करे। यही राष्ट्रीय चेतना का मूल हेतु है। अपने-अपने कर्तव्यों के पालन में ही दूसरों के अधिकार संरक्षित होते हैं। राष्ट्र में सद्भावना, शांति और समृद्धि का यही मूल है। देश में कानून व्यवस्था व नागरिकता के नियमों का भरपूर पालन होना चाहिए तथा समाज में परस्पर सद्भाव और सहयोग की प्रवृत्ति सर्वत्र व्याप्त होनी चाहिए। इन्हें हमारे नागरिक कर्तव्यों के रूप में देखा जाना चाहिए।
सामाजिक समरसता
व्यक्ति चेतना का यह वलय सम्पूर्ण समाज को एकात्मता के सूत्र में बांधता है। मनुष्य की चेतना स्व, परिवार, राष्ट्र के बाद सम्पूर्ण समाज का अंश होती है। समाज में समता और समानता की बात की जाती है, किन्तु यह एक सीमा तक ही संभव है। मनुष्य मात्र में विविधता प्रकृति प्रदत्त है। देश, काल, प्रकृति, स्वभाव, संस्कार, रुचि, क्षमता आदि की भिन्नता के कारण मनुष्यों के विकास के स्तर में भी भिन्नता अवश्यंभावी है। इन विविधताओं के कारण जो भेद रहता है, उसका स्थाई समाधान समरसता में ही सम्भव है। समाज की विविध विशेषताओं को समानता के नाम पर नष्ट भ नहीं किया जा सकता, अपितु समरसता के सूत्र में इन भिन्नताओं के सामंजस्य के साथ बांधा जा सकता है। समानता का वास्तविक व्यावहारिक रूप समरसता में ही प्राप्त होता है। सामाजिक समरसता का अर्थ है अपने वर्ग, जाति और समुदाय से भिन्न लोगों के प्रति सहज सम्मानजनक और भेदभाव रहित व्यवहार । 'अन्य' के प्रति प्रेम और आत्मीयता पूर्ण व्यवहार ही सामाजिक समरसता की कसौटी है। सामाजिक चेतना के जागरण के लिए सम्पूर्ण समाज का अविभक्त और परस्पर प्रेमपूर्ण होना आवश्यक है। इसका प्रमुख हेतु है सामाजिक समरसता का भाव। मंदिर, पानी, श्मशान के सम्बंध में कहीं भेदभाव ना हो। समस्त समाज एक दूसरे के त्यौहारों में शामिल हों ताकि आपस में भाई चारा बढ़े एवं देश में सामाजिक समरसता स्थापित हो सके। समाज में व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन हेतु हम सबको मिलकर प्रयास करने होंगे। विशेष रूप से युवाओं में नशाबंदी समाप्त करने के लिए, मृत्यु भोज रोकने के लिए तथा विभिन्न समाजों में व्याप्त दहेज की कुप्रथा समाप्त करने के गम्भीर प्रयास हम समस्त नागरिकों को मिलकर ही करने होंगे।
पर्यावरण संरक्षण
मनुष्य की चेतना का पांचवा सोपान वैश्विक स्तर तक व्याप्त होता है। हम इस चराचर जगत का अविभाज्य अंश हैं। हमारा अस्तित्व धरती से लेकर अंतरिक्ष तक सम्पूर्ण सृष्टि से सम्बद्ध और उस पर आद्धृत है। अत: पर्यावरण को बचाना सम्पूर्ण चराचर जगत को बचाना है। अन्ततः स्वयं को बचाना है। सृष्टि के साथ संबंधों का आचरण अपने घर से पानी बचाकर, प्लास्टिक हटाकर व घर आंगन में तथा आसपास हरियाली बढ़ाकर हो सकता है। अपने घरों में जल का कोई अपव्यय नहीं हो रहा है एवं अपने परिवार में हरियाली की चिंता की जा रही है। अपने घर में, रिश्तेदारी में, मित्रों के यहां सिंगल यूज प्लास्टिक का उपयोग न करने का आग्रह किया जा रहा है आदि बातों पर ध्यान देकर देश में पर्यावरण को सुधारा जा सकता है।
यह कार्य समुदाय, लिंग, जाति, पंथ, राष्ट्र आदि सभी सीमाओं से ऊपर उठकर मानवमात्र का धर्म है। यह कोई सेवा या प्रसिद्धि का कार्य नहीं, वरन् उसी तरह मौलिक उत्तरदायित्व है जिस प्रकार मनुष्य का अपनी संतानों और आश्रितों का पालन करना। अतः मानवमात्र या प्राणिमात्र के प्रति ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्रकृति-पर्यावरण के प्रति आत्मीय दृष्टि किसी श्रेष्ठ और उन्नत समाज की पहचान होती है। आज संसार भर में परस्पर संघर्ष और प्रतिशोध की लपटें उठ रही हैं। जन समूह अलगाव और असमानता के दो पाटों के बीच पिस रहा है। अलगाव है इसलिए शोषण पर कोई लगाम नहीं। असमानता है इसलिए भेदभाव और संघर्ष बढ़ रहा है। ऐसे परिदृश्य में स्व का जागरण, कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, नागरिक कर्तव्यों का पालन और पर्यावरण संरक्षण, ये ही समग्र सामाजिक विकास के पांच सोपान हैं, जिनको दैनंदिन आचरण और कार्य व्यवहार में उतार कर हम अपने राष्ट्र को परम वैभव की ओर अग्रसर होते देख सकेंगे। तभी अखिल विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता भी अर्जित कर सकेंगे। बल और वैभव से सम्पन्न राष्ट्र के पास जब हमारी सनातन संस्कृति जैसी सबको अपना कुटुंब माननेवाली, तमस से प्रकाश की ओर ले जानेवाली, असत् से सत् की ओर बढ़ानेवाली तथा मृत्यु जीवन से सार्थकता के अमृत जीवन की ओर ले जानेवाली संस्कृति होती है, तब वह राष्ट्र, विश्व का खोया हुआ संतुलन वापस लाते हुए विश्व को सुखशांतिमय नवजीवन का वरदान प्रदान करता है। ‘पंच-परिवर्तन’ के लक्ष्यों के साथ संघ का यह प्रयास निश्चित रूप से भारतीय समाज की दिशा और दशा को नया मोड़ देने वाला साबित होगा।