जप विधि
जप तीन प्रकार के बतलाए हैं -
मानस जप -
जिस जप में मंत्र की अक्षर पंक्ति के एक वर्ण से दूसरे वर्ण, एक पद से दूसरे पद तथा शब्द और अर्थ का मन द्वारा बार - बार मात्र चिंतन होता हैं, उसे 'मानस जप' कहते हैं । यह साधना की उच्च कोटि का जप कहलाता है । विशारदों का कथन है कि मानस जप हजार गुना फल देता है ।
उपांशु जप -
जिस जप में केवल जिह्वा हिलती है या इतने हल्के स्वर से जप होता है, जिसे कोई सुन न सके, उसे 'उपांशु जप' कहा जाता है। यह मध्यम प्रकार का जप माना जाता है। विशारदों का कथन है कि उपांशु जप सौ गुना फल देता है ।
वाचिक जप -
जप करने वाला ऊंचे - नीचे स्वर से, स्पष्ट तथा अस्पष्ट पद व अक्षरों के साथ बोलकर मंत्र का जप करे, तो उसे 'वाचिक' जप कहते हैं । विशारदों का कथन है कि वाचिक जप एक गुना फल देता है ।
अन्य दो विधियां
सगर्भ जप -
प्राणायाम के साथ किया जाता है विशारदों का कथन है कि सगर्भ जप मानस जप से भी श्रेष्ठ है ।
अगर्भ जप -
प्रारंभ में व अंत में प्राणायाम किया जाता।
- विशारदों का कथन है कि मंत्र - मुख्यतया साधकों को उपांशु या मानस जप का ही अधिक प्रयास करना चाहिए ।
मंत्राधिराज कल्प में तेरह प्रकार के जप बतलाएं हैं -
रेचक, पूरक, कुंभा गुण त्रय स्थिरकृति स्मृति हक्का ।
नादो ध्यानं ध्येयैकत्वं तत्त्वं च जप भेदाः ॥
- रेचक जप - नाक से श्वास बाहर निकालते हुए जो जप किया जाता है वो रेचक जप कहलाता है।
- पूरक जप - नाक से श्वास को भीतर लेते हुए जो जप किया जाए वो पूरक कहलाता है।
- कुंभक जप - श्वास को भीतर स्थिर करके जो जप किया जाए वो कुंभक जप कहलाता है।
- सात्विक जप - शांति कर्म के निमित्त जो जप किया जाता है वो सात्विक जप कहलाता है।
- राजसिक जप - वशीकरण आदि के लिए जो जप किया जाए उसे राजसिक जप कहते हैं।
- तामसिक जप - उच्चाटन व मारण आदि के निमित्त जो जप किया जाए वो तामसिक जप कहलाता है।
- स्थिरकृति जप - चलते हुए सामने विघ्न देखकर स्थिरतापूर्वक जो जप किया जाता है उसे स्थिरकृति जप कहते हैं।
- स्मृति जप - दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर स्थिर कर मन में जो जप किया जाता है उसे स्मृति जप कहते हैं ।
- हक्का जप - श्वास लेते समय या बाहर निकालते समय हक्कार का विलक्षणतापूर्वक उच्चारण हो उसे हक्का जप कहते हैं ।
- नाद जप - जप करते समय भंवरे की आवाज की तरह अंतर में आवाज उठे उसे नाद जप कहते हैं ।
- ध्यान जप - मंत्र पदों का वर्णादिपूर्वक ध्यान किया जाए उसे ध्यान जप कहते हैं ।
- ध्येयैक्य जप - ध्याता व ध्येय की एकता वाले जप को ध्येयैक्य जप कहते हैं ।
- तत्त्व जप - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - इन पांच तत्त्वों के अनुसार जो जप किया जाए वह तत्त्व जप कहलाता है।
आसन एवं मुद्रा का निर्धारण करके कर्म करने चाहिए
आकर्षण कर्म - दण्डासन - अंकुश मुद्रा
वशीकरण कर्म - स्वस्तिकासन - सरोज मुद्रा
शांति एवं पौष्टिक कर्म - पदमासन - ज्ञान मुद्रा
स्तंभन कर्म - वञ्रासन - शंख मुद्रा
मारण कर्म - भद्रासन - बञ्रासन मुद्रा
विद्वेषण व उच्चाटन कर्म - कुक्कुटासन - पल्लव मुद्रा
समय एवं दिशा का निर्धारण निम्न प्रकार से करना चाहिए
शांति कर्म - अर्द्धगत्रि में - पश्चिमाभिमुख होकर
पौष्टिक कर्म - प्रभात काल में - नैक्रत्याभिमुख होकर
वशीकरण कर्म - दिन में बारह बजे से पहले (पूर्वाह्न में) - उत्तराभिमुख होकर
आकर्षण कर्म - दिन में बारह बजे से पहले (पूर्वाह्न में) - दक्षिणाभिमुख होकर
स्तंभन कर्म - दिन में बारह बजे से पहले (पूर्वाह्न में) - पूर्वाभिमुख होकर
विद्वेषण कर्म - मध्याह्न में - आग्नेयाभिमुख होकर
उच्चाटन कर्म - दोपहर बाद अपराह्न में - वायव्याभिमुख होकर
मारण कर्म - संध्याकाल में - ईशानाभिमुख होकर
पूजा या मंत्र जाप कहाँ करे (वेदों में और शिव पूरण में कहा गया है) .....
गृहे सतगुणम् प्रोक्तम् उद्याने सहस्त्र फलम् स्मृतम्।
तीर्थ लक्षगुणम् प्रोक्तम् अनन्त फलम् शिव सन्निधौ ॥
- घर में पूजा या जाप करने से - १ गुना फल मिलता है।
- गाय या गौशाला के पास करने से - सौ गुना फल मिलता है।
- वन, बगीचे तीर्थ स्थान में कने से - हजार गुना फल मिलता है।
- पर्वत पर - दस हजार गुना फल मिलता है।
- पवित्र नदियों के तटपर करनेसे - कई लाख गुना फल मिलता है।
- देवालय में करने से - करोड़ गुना फल मिलता है।
- शिव मंदिर में पूजा-पाठ करने से - अनंत गुना फल मिलता है।
मंत्र - जप निषेध
- नग्नावस्था में कभी भी जप नहीं करना चाहिए ।
- सिले हुए वस्र पहनकर जप नहीं करना चाहिए ।
- शरीर व हाथ अपवित्र हों तो जप नहीं करना चाहिए ।
- सिर के बाल खुले रखकर जप नहीं करना चाहिए ।
- आसन बिछाए बिना जप नहीं करना चाहिए ।
- बातें करते हुए जप नहीं करना चाहिए ।
- आधिक लोगों की उपस्थिति में प्रयोग के निमित्त जप नहीं करना चाहिए ।
- मस्तक ढके बिना जप नहीं करना चाहिए ।
- अस्थिर चित्त से जप नहीं करना चाहिए।
- भोजन करते, रास्ते चलते व रास्ते में बैठकर जप नहीं करना चाहिए ।
- निद्रा लेते समय भी जप नहीं करना चाहिए ।
- उल्टे - सीधे बैठकर या पांव पसारकर भी कभी जप नहीं करना चाहिए ।
- अंधकारयुक्त स्थान में जप नहीं करना चाहिए ।
- अशुद्ध व अशुचियुक्त स्थान में जप नहीं करना चाहिए ।
- जप के समय छींक नहीं लेनी चाहिए , खंखारना नहीं चाहिए , थूकना नहीं चाहिए , नीचे के अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए व भयभीतावस्था में भी जप नहीं करना चाहिए ।
मंत्रों का जप हेतु ध्यान देने वाली बातें -
- मानसिक रूप से पवित्र होने के बाद किसी भी सरल मुद्रा में बैठे जिससे कि वक्ष, गर्दन और सिर एक सीधी रेखा में रहे।
- माला के 108 मनके हमारे हृदय में स्थित 108 नाड़ियों के प्रतीक स्वरूप हैं। 1 माला का 109 वां मनका सुमेरु कहलाता है।
- जप करने वाले व्यक्ति को एक बार में 108 जाप पूरे करने चाहिए। इसके बाद सुमेरु से माला पलटकर पुनः जाप आरंभ करना चाहिए।
- माला को अंगूठे और अनामिका से दबाकर रखना चाहिए और मध्यमा उंगली से एक मंत्र जपकर एक दाना हथेली के अंदर खींच लेना चाहिए।
- माला के दाने कभी-कभी 54 भी होते हैं। ऐसे में माला फेर कर सुमेरु से पुनः लौटकर एक बार फिर एक माला अर्थात् 54 जप पूरे कर लेना चाहिए।
- तारक मंत्र के लिए सर्वश्रेष्ठ माला तुलसी की मानी जाती है।
- मंत्र जप पूरे करने के बाद अंत में माला का सुमेरु माथे से छुआकर माला को किसी पवित्र स्थान में रख देना चाहिए।
- मंत्र जप में कर-माला का प्रयोग भी किया जाता है।
- जिनके पास कोई माला नहीं है वह कर-माला से विधि पूर्वक जप करें। कर-माला से मंत्र जप करने से भी माला के बराबर जप का फल मिलता है।