कालिदास कृत कुमारसम्भवम्

सम्पूर्ण कुमारसम्भवम् 10 मिनट में 

Kalidas Kumarsambhavam


कुमारसम्भव 

राजा हिमालय

भारत के उत्तर में महान्‌ हिमालय पर्वत विराजमान है। उसकी ऊंची-ऊंची श्रृंखलाएं आकाश से बातें करती प्रतीत होती हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में, इन पर्वत श्रेणियों में कई आदिम जातियां निवास करती थीं। उनमें किन्नर तथा गन्धर्व विशेष रूप से प्रसिद्ध थे। पर्वतों की गुफाएं उनके मधुर संगीत से सदा गूंजती रहती थीं। इन मनोरम पहाड़ी दृश्यों के बीच, औषधिप्रस्थ नाम की सुन्दर नगरी स्थित थी। राजा हिमालय उस पर शासन करता था। उसकी सदाचारिणी पत्नी का नाम मेना था। उनके यहाँ एक सुन्दर बालिका का जन्म हुआ जिसका नाम पार्वती रखा गया। वह उमा के नाम से भी प्रसिद्ध थी। उसके गौर वर्ण के कारण बहुत से लोग उसे गौरी भी कहते थे। यद्यपि महाराजा हिमालय का एक पुत्र भी था, किन्तु पार्वती से उन्हें विशेष स्नेह था। वह उनकी लाड़ली बेटी थी। 

पार्वती

बचपन में पार्वती, अपनी साहेलियों के साथ गंगा नदी के तट पर खेलती थी। वह रेत में अक्सर घरौंदे बनाती और तोड़ती। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए, उसका रूप नवोदित चन्द्रमा की तरह दिन-प्रतिदिन खिलता गया। समय आने पर उसका यौवन पूरी तरह निखर उठा। वह अब अनन्य सौन्दर्य की स्वामिनी थी। उसके प्रत्येक अंग में अनोखा आकर्षण था। उसका मुख पूर्णिमा के चाँद की तरह था। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, हरिणी के चंचल नयनों जैसी थीं। उसकी कमर पतली तथा उसकी दोनों गोल बाँहें शिरीप वृक्ष के कुसुमों की तरह कोमल थीं। उसका कण्ठ मोतियों की माला की तरह सुन्दर था। उसका मधुर स्वर कोयल के स्वर-माधुर्य को मात करता था और उसकी चाल, हंस की गति से कहीं अधिक आकर्षक थी। वह रचयिता की सचमुच एक अदू्भूत रचना थी। उसका आकर्षण अद्वितीय था। 

देवर्षि नारद

एक दिन देवर्षि नारद, महाराज हिमालय के पास आये। संयोगवश पार्वती भी उस समय वहीं उपस्थित थी। नारद ने उसे देखते ही भविष्यवाणी की कि, यह कन्या, पति के रूप में महादेव को प्राप्त करेगी। पिता हिमालय का हृदय खुशी से झूम उठा। यद्यपि पार्वती विवाह-योग्य आयु को प्राप्त हो चुकी थी, उन्होंने उसके लिए किसी अन्य वर को खोजने का विचार त्याग दिया। किन्तु उन्होंने यह उचित नहीं समझा कि वे स्वयं शंकर के पास जाकर अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव करे। वे चाहते थे कि भगवान्‌ खुद उन से पार्वती की मांग करे। इसके अलावा महादेव समीप के पर्वतीय वन में घोर तपस्या कर रहे थे। महाराज हिमालय को साहस नहीं हुआ कि वे उनके पास जा कर, उन्हें पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए कहें। अतः उन्होंने पुत्री को परामर्श दिया कि वह अपनी सखियों के साथ जाकर, समाधि में लीन शंकर की सेवा करे और भक्ति-भाव से उनका दिल जीतने का यत्न करे। पार्वती ने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया और सहेलियों सहित हिमालय की उस सुरम्य कुटिया में जा पहुंची जहां भगवान्‌ शिव तपस्या-रत थे। जाते ही पार्वती, शिव की सेवा में लग गई। प्रतिदिन प्रात: वह पुष्प लाती, जगह को साफ करती और पूजा के लिए जल एवं कुश जुटाती। इससे महादेव की तपस्या में कुछ विघ्न तो पड़ा किन्तु अपने संयम पर पूर्ण विश्वास होने के कारण, उन्होंने पार्वती की सेवा पर आपत्ति नहीं की। इस प्रकार पार्वती, बहुत दिनों तक दत्त-चित्त हो कर शिव की सेवा करती रही। 

राक्षस तारक

उन्हीं दिनों, तारक नाम के एक राक्षस ने, ब्रह्मा से मिले वर की सहायता से, अभूतपूर्व शक्ति प्राप्त कर ली थी। उसने देवताओं तक को युद्ध में हरा दिया था और उन्हें निरंतर आतंकित करता रहता था। जब देवता उस भयंकर असुर के अत्याचारों से अत्यधिक त्रस्त ही उठे, तो वे अपने राजा इन्द्र की अगवानी में ब्रह्म्मा की शरण में पहुँचे। देवताओं को शोक-सन्तप्त देख, ब्रह्मा का हृदय करुणा से भर गया। किन्तु देवताओं की सहायता करने में वे असमर्थ थे। राक्षस तारक ने सैंकड़ों वर्षो तक घोर तपस्या की थी और उससे अर्जित तपोबल से समस्त संसार को भस्म कर देना चाहता था। असीम शक्ति से सम्पन्न उस भयानक असुर को शान्त करने तथा विश्व को सर्वनाश से बचाने के लिए ब्रह्मा ने स्वयं वर दिया था जिससे उसे युद्ध में हराना असम्भव-सा हो गया था। ब्रह्मा वरदान के अनुसार, केवल महाप्रभु शंकर से उत्पन्न पुत्र ही दानव तारक को रण में पराजित कर सकता था। उधर शिव ने, प्रिय पत्नी सती के भौतिक देह के त्याग देने पर सन्यास ले लिया था और हिमालय पर्वत की ऊंचाई पर स्थित एक गूफा में जा कर समाधि-लीन हो गए थे। उन्हें विवाह-बन्धन में बंधने के लिए प्रेरित करना सहज नहीं था, किन्तु विश्व में सरल सौन्दर्य से सम्पन्न रूपवती के होते हुए, यह कार्य सर्वथा असम्भव भी नहीं था। वह अनिद्य सुन्दरी हर प्रकार से शिव की पत्नी बनने के योग्य थी। 

इन सभी बातों को विचार कर भगवान्‌ ब्रह्मा ने देवताओं से कहा- “इस स्थिति में केवल पार्वती ही आप के अन्धकारमय जीवन को पुनरालोकित करने का साधन बन सकती है। अतः आप कोई ऐसा उपाय करें जिससे शिव, पार्वती से विवाह करना स्वीकार कर ले। शिव और पार्वती का पुत्र ही आप का सेनापति बनकर, तारक को हरा सकता है और इस प्रकार आपको उसके आतंक से मुक्ति मिल सकती है।” ब्रह्मा के ये शब्द देवों के सन्तप्त हृदयों को अमृत की वर्षा के समान प्रतीत हुए। वे मन में आशा की एक नई किरण संजोए स्वर्ग को लौट गए। 

कामदेव

शीघ्र ही देवराज इन्द्र ने प्रेम के देवता कामदेव को याद किया। उन्हें विश्वास था कि कामदेव ही शिव की समाधि को भंग कर, उन्हें पार्वती के साथ विवाह करने के लिए लुभा सकता है। इन्द्र के स्मरण करते ही कामदेव, पुष्पों से निर्मित धनुष को धारण किए आ उपस्थित हुआ। इन्द्र ने उसे आदर सहित अपने पास बिठाया और उससे प्रेमपूर्वक कहा कि वह महादेव को अपने पुष्प-बाण का लक्ष्य बनाये ताकि वे तपस्या को त्याग, पार्वती से प्रेम करने लगें तथा उनके विवाह-बन्धन से उत्पन्न पुत्र, देवताओं को दानव तारक के अत्याचारों से छटकारा दिला सके।

कार्य सचमुच दुस्‍साहस-पूर्ण था। कामदेव ने सोचा कि यदि वह शिव की तपस्या को भंग करने की चेष्टा करते पकड़ा गया तो निस्सन्देह उनकी क्रोधाग्नि से भस्म हो जायेगा। किन्तु कामदेव अपने स्वामी के आदेश को टाल न सका। वह इस दुःसाध्य कार्य को करने के लिये तैयार हो गया। प्राण-प्रिया पत्नी रति और घनिष्ट मित्र वसन्‍त को साथ लेकर वह हिमाच्छादित पर्वतों में स्थित शंकर की तपोभूमि में जा पहुँचा। उस समय शरद ऋतु पूरे यौवन पर थी। पृथ्वी पर बर्फ की मोटी तह जमी हुई थी। वृक्ष, फूलों और पत्तों से विहीन थे। भयंकर सर्दी से बचने के लिये पशु-पक्षी गफ़ाओं एवं घोंसलों में दुबके पड़े थे। समस्त वन प्राण-हीन सा प्रतीत होता था। किन्तु वसन्‍त के प्रविष्ट होते ही तपोवन में बहार आ गई। सभी ओर नवजीवन का संचार हो गया। प्रकृति सुन्दरी पुनः श्रृंगार कर सजी संवरी दीखने लगी। सभी प्राणियों के हृदय भाव-विभोर हो उठ। आश्रम में रहने वाले ऋषियों ने विचलित होते हृदय को कठिनाई से वश में किया। 

महादेव उस समय, योग-मुद्रा में बैठे थे। मानसिक उत्तेजना को उन्होंने योग-शक्ति से शान्त कर रखा था। ऐसा प्रतीत होता था मानों तरंगों से रहित शान्त सागर हो अथवा पवन-रहित स्थान में दीप-शिखा। कामदेव ने पहले ही कुसुमित वृक्षों की ओट में स्थान ग्रहण कर लिया था। उसने जब देखा कि मादक वातावरण महादेव को तनिक भी प्रभावित नहीं कर सका तो उसे बहुत निराशा हुई। जो कार्य-भार उसे सौंपा गया था, उसकी सफलता पर उसे सन्देह होने लगा। ठीक उसी समय, अनुपम सौन्दर्य की स्वामिनी, पार्वती, अपने देवता के चरणों में फूल चढ़ाने के लिए आगे बढ़ी। ज्यों ही वह प्रणाम के लिए झुकी उसके कानों से पल्लव और बिखरी अलकों से कुसुम गिर पड़े। उसे देखते ही कामदेव के मन में आशा की नई किरण फूट पड़ी। उसने महसूस किया कि महादेव के हृदय के प्रेम-बाण से बींधने का यही सबसे अच्छा अवसर है। कामदेव ने अपने धनुष को दृढ़ता से पकड़ा और उस पर अमोघ पुष्प-बाण रख दिया। जब शिव, पार्वती से कमल के पुष्पों का हार लेने के लिए थोड़ा-सा झुके, तो कामदेव ने धनुष की डोरी को खींचा। महादेव का मन क्षण-भर के लिए इस तरह विचलित हो उठा मानो समुद्र में ज्वार आ गया हो। उन्होंने पहली बार पार्वती के चन्द्र-ज्योत्सनार् समान उज्ज्वल मुख की ओर देखा और उसके दिव्य सौन्दर्य पर मुग्ध हो उठे। पार्वती भी प्रसन्‍नता से झूम उठी। लज्जा की लालिमा उसके मुख को और भी अधिक आकर्षक बना दिया। किन्तु स्वभाव से संयमी होने के कारण, शिव शीघ्र ही सम्भल गये। चंचलता का कारण जानने के लिए, जब उन्होंने आंख उठा कर ऊपर देखा तो सामने धनुष की डोरी खींचे कामदेव दिखाई दिया। शिव की क्रोधाग्नि भड़क उठी। उनके मस्तक का तीसरा नेत्र खुला और उससे धधकती ज्वाला निकल पड़ी। स्वर्ग में देवताओं ने जो अपने साथी कामदेव को इस प्रकार विपद्गग्रस्त देखा तो वे एक साथ चिल्ला उठे- “रोकिए, रोकिए अपने क्रोध को, प्रभो!” किन्तु उनके चीत्कार के शिवजी के कानों तक पहुंचने से पहले ही, उस अग्नि ने कामदेव को भस्म कर दिया। कामदेव की पत्नी रति के लिए यह घोर आपत्ति इतनी आकस्मिक थी कि वह उसे सहन न कर सकी और मूर्च्छित हो कटे हुए वृक्ष की तरह पृथ्वी पर गिर पड़ी। 

इस दुर्घटना के तुरन्त बाद, महादेव उस स्थान को छोड़ कर कहीं और चले गए ताकि उनकी समाधि में फिर किसी प्रकार की विध्न न पड़े। पार्वती भी इस तीव्र आघात से आहत हो उठी। शोक एवं लज्जा से उसका कोमल हृदय टूट-सा गया। उसका अपूर्व एवं अलौकिक सौन्दर्य अपने इष्टदेव को पाने में असफल रहा था। उसके नेत्रों से निरन्तर अश्रुधारा बहने लगी। शोक-सागर में डूबती, वह अपने पिता के पास लौट गई। जब रति को होश आया, तो वह प्रिय पति के बछोह की असह्य यंत्रणा से छटपटाने लगी। कभी वह धरती पर लोटती, कभी बिलख-बिलख कर रोती और कभी विलाप करने लगती। उसका हृदय शोक से फटा जा रहा था। उसे लगा कि पति के बिना उसके जीवन का न तो कोई अर्थ है, न उद्देश्य। अतः उसने प्राणों को त्यागने का निश्चय कर लिया। वह अग्नि में प्रवेश करने ही वाली थी कि आकाशवाणी हई-“जिस दिन शिव का पार्वती से विवाह होगा, तुम्हें अपना पति वापस मिल जाएगा।” रति को इन शब्दों से सांत्वना मिली और उसने आत्म-हत्या करने का विचार छोड़ दिया। वह शिव और पार्वती के सम्भावित विवाह की कामना तथा पति से पुनर्मिलन की प्रतीक्षा करने लगी। 

पार्वती की तपस्या

पार्वती निस्सन्देह प्रथम प्रयास में प्रियतम को पाने में सफल नहीं हुई किन्तु वह उन व्यक्तियों में से नहीं थी जो आसानी से हार मान लेते हैं। जब शारीरिक सौन्दर्य तथा यौवन के बल पर वह इष्टदव को प्राप्त न कर सकी तो उसने महादेव को रिझाने के लिए, साधना एवं तपस्या का मार्ग अपनाने का निश्चय किया। पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर, वह हिमालय की एक दुर्गम कटिया में रहने लगी। वहां उसने कठोर तपस्या आरम्भ कर दी। वह बहुमूल्य वस्त्रों तथा आभूषणों को त्याग, वृक्षों की छाल पहनने लगी तथा जमीन पर सोने लगी। वह दिन-रात भगवान शिव की पूजा करती। शरद्‌ ऋतु की भयंकर सर्दी को उसने बैठ कर काट दिया। वर्षा, हिम-पात तथा बर्फानी तूफानों को झेलती हुई पार्वती निरन्तर शिव के नाम की माला जपती। आरम्भ में उसने जंगली फलों पर गुज़ारा किया। फिर ओस-बिन्दुओं और वृक्षों के पत्तों पर और अन्त में उसने उन्हें भी त्याग दिया। 

एक दिन एक सुन्दर युवा तपस्वी, पार्वती के आश्रम में आया। उस ने मृग-छाला पहन रखी थी और सिर पर जूड़ा बनाया हुआ था। सामान्य कुशल समाचार के बाद, उसने पार्वती की घोर तपस्या का कारण जानना चाहा। जब पार्वती ने बताया कि शंकर के हृदय को जीतने के लिए यह सब कर रही है, तो उसका मजाक उड़ाते हुए युवा तपस्वी बोला- “तुम अजीब औरत हो। उस शिव को प्यार करती हो जो शरीर में भस्म रमाता है, श्मशान-भूमि में रहता है, हाथी की खाल पहनता है तथा कण्ठ में सांपों का हार डाले हुए है। क्या तुम नहीं जानती कि वह बैल की सवारी करता है। कहीं तुम्हारा दिव्य रूप और कहां मस्तक में तीसरा नेत्र लगाए उसकी भौण्डी सूरत!” जब पार्वती ने तपस्वी के मुख से शिव की निन्‍दा सुनी तो वह आपे से बाहर हो गई। भृकुटि तानकर क्रोध से बोली, “तुम वास्तविक महादेव को नहीं जानते, इसीलिए अनाप-शनाप बक रहे हो। किन्तु तुम जो कुछ कह रहे हो, वह यदि सच भी हो, तो भी और अधिक सुनने के लिए तैयार नहीं हूं, क्योंकि मैं उस महाप्रभु की हृदय समर्पित कर चुकी हू।” इतना कहकर, पार्वती ने तपस्वी को वहां से चले जाने की धमकी दी। तभी एक चमत्कार घटा। युवा तपस्वी तत्काल लुप्त हो गया और उसके स्थान पर पार्वती के सम्मुख मुस्कराते हुए भगवान्‌ शंकर आ खड़े हुए। वे उसका हाथ पकड़ कर बोले- “हे सुमुखि! तपस्वी के वेश में मैं केवल तुम्हारी श्रद्धा की परीक्षा लेने आया था। तुमने घोर तपस्या साधना, एवं आस्था से मेरा हृदय जीत लिया है।” 

जब पार्वती ने इन मधुर शब्दों को सुना तो उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसे लगा, मानो वर्षों की घोर तपस्या की थकावट पल भर में दूर हो गई हो। इस अप्रत्याशित घटना से वह कुछ गड़बड़ा-सी गई और समझ नहीं पाई कि क्या कहे। जब पार्वती संभली तो उसने अपनी एक सहचरी से शिव को यह सूचित करने के लिए कहा कि वे विवाह के प्रस्ताव को उसके पिता महाराजा हिमालय के आगे प्रस्तुत करें। पार्वती का यह सुझाव भारतीय परम्परा के अनुकल था, अत: शिव ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। 

शिव-पार्वती विवाह

अपने आश्रम में लौट कर, महादेव ने सप्तर्षि को स्मरण किया। उन्हें याद करते ही वे सातों ऋषि उनके सम्मुख आ उपस्थित हुए। महादेव ने उन्हें कहा- “आप मेरी ओर से औषधिप्रस्थ के राजा हिमालय के पास जाएं और उनसे निवेदन करे कि में उनकी पुत्री पार्वती का पाणि-ग्रहण करना चाहता हू। वे इसके लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करे।” सप्तर्षि ने इस महत्त्वपूर्ण दायित्व को अपने लिए बहुत बड़ा गौरव समझा और तुरन्त औषधिप्रस्थ पहुचे। महाराज हिमालय ने यथोचित सम्मान सहित उनकी आव-भगत की। ऋषियों ने उन्हें भगवान्‌ शिव का सन्देश सुनाया तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। वे तो इसी शुभ घड़ी की प्रतीक्षा में सांसे बिछाए बैठे थे। अपनी महारानी मेना की औपचारिक सम्मति लेकर उन्‍होंने शंकर को जामाता बनाना सहर्ष स्वीकार कर लिया। विवाह के लिए शुभ समय पूछे जाने पर ऋषियों ने बताया कि आज से तीन दिन बाद का लग्न ठीक रहेगा। तत्पश्चात शिव को यह शुभ समाचार देने के लिए वे ऋषि उनके आश्रम की ओर चले गये। 

चूँकि विवाह के लिए बहुत कम समय था, राजा हिमालय ने उस के लिए तुरन्त तैयारियां आरम्भ कर दीं। सभी सम्बन्धी एवं बंधू बान्धव आवश्यक सहायता देने के लिए उसके महल में इकट्ठे हो गए। नगर के सभी मुख्य मार्गों पर पुष्प बिछा दिए गए। विशिष्ट अतिथियों के स्वागत के लिए निर्मित तोरणों को फूल-पत्तियों से सजाया गया जिससे नगर की शोभा को चार चांद लग गए। विदाई के दिन, पार्वती ने दुलहिन के वस्त्रों को धारण किया। तब उस की सखियाँ उसका श्रृंगार करने के लिए ले गईं। उन्होंने उसके करों को सुगन्धित धुएं से सुखा कर संवारा और उन्हें पुष्पों की माला से बांध दिया। पार्वती को आंखों में काजल और पांवों में अलता लगाया गया। फिर उसे बहुमूल्य आभूषण पहनाए गए। नई दुलहिन के वस्त्रों से सुसज्जित तथा आभूषणों से विभूषित पार्वती ऐसे लगती थी मानो नवविकसित पुष्पों से अलंकृत लता हो। 

कैलाश पर्वत पर दुलहिन को विशेष रूप से सजने-संवरने की आवश्यकता नहीं थी। महादेव ने स्वेच्छा से ही अपने आप को नये रूप में ढाल लिया। उनके शरीर पर भस्म, सुगन्धित लेप बन गई। उनके माथे का नेत्र मंगलमय तिलक की तरह चमकने लगा तथा उनके मुकूट पर विराजमान चन्द्रमा ने चूड़ामणि का रूप धारण कर लिया। उन्होंने जो हाथी की खाल पहन रखी थी, वह सुन्दर शाल में बदल गई। जब बारात औषधिप्रस्थ की ओर चलने के लिए तैयार थी, तो ब्रह्मा और विष्णु महादेव का अभिनन्दन करने के लिए आ पहुँचे महादेव ने झुक कर उनके अभिवादन को स्वीकार किया। देवराज इन्द्र तथा अन्य देवता भी शिव के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा व्यक्त करने के लिए वहां उपस्थित थे। शंकर ने तनिक मुस्करा कर उन का स्वागत किया। इस शुभ अवसर पर सप्तर्षि भी मौजूद थे। महादेव ने विवाह को शास्त्र-विधि के अनुसार सम्पन्न करने का कार्य उन्हें सौंपा। जब बारात राजा हिमालय की राजधानी पहुंची, तो वो नगर के नर-नारी प्रतिष्ठित अतिथियों का स्वागत करने के लिए मौजूद थे। महादेव के मनोहर रूप ने नगर की युवतियों पर जादू सा कर दिया। वे बहुत देर तक उन्हें मुग्ध हो कर देखती रहीं। एक ने तो यह भी कहा कि पार्वती ने जो घोर तपस्या तथा कठोर साधना की थी, वह शिव जैसे पति को पाने के लिए कुछ अधिक नहीं थी। 

विवाह की रस्में विधिपूर्वक सम्पन्न की गईं। परोहितों द्वारा मन्त्रों के उच्चारण के साथ-साथ, शिव और पर्वती ने यज्ञ की अग्नि के तीन बार फेरे लिये। तदुपरान्त परोहितों ने उन्हें पति-पत्नी घोषित किया। ब्रह्मा ने पार्वती को वीर-जननी बनने का आशीर्वाद दिया। देवी सरस्वती ने भी नव-दम्पती के लिए आशीर्वचनों का उच्चारण किया। अप्सराओं ने उनके सम्मान में गान एवं नृत्य सहित नाटक प्रस्तुत किया। नाट्य-प्रदर्शन की समाप्ति पर, देवताओं ने महादेव के पास जाकर सविनय प्रार्थना की कि इस शुभ अवसर पर कामदेव को पुनर्जीवन का दान दे दिया जाए। अब महादेव के हृदय में लेशमात्र भी क्रोध नहीं रह गया था। वास्तव में वे अत्यन्त प्रसन्‍न थे। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार कर लिया। कामदेव तुरन्त अपने मौलिक भव्य रूप में प्रकट हो गए। शिव ने उसी प्रसन्न मुद्रा में कामदेव से हंसते हए कहा कि वह अब उन पर जितने भी प्रेम-बाण चलाना चाहे चला ले। शिव और पार्वती औषधिप्रस्थ में एक मास तक रहे। उसके बाद वे हिमालय के अन्य रमणीक स्थानों पर विहार करने के लिए चले गए। उन्होंने पर्वतों के सर्वोच्च शिखरों, सरोवरों, जलप्रपातों तथा अन्य आकर्षक जगहों का भ्रमण किया और सम्पूर्ण आनन्द प्राप्त किया। इस प्रकार सौ वर्ष व्यतीत हो गए। 

कुमार कार्तिकेय

उधर राक्षस तारक के अत्याचारों के कारण, देवताओं को एक एक पल भारी पड़ रहा था। उनकी आशा के प्रतिकूल पार्वती ने अभी तक पुत्र को जन्म नहीं दिया था, यद्यपि शंकर के साथ उनके विवाह को काफी समय व्यतीत हो चुका था। जब देवताओं में तारक की क्रूरता को सहने की शक्ति नहीं रही, तो उन्होंने अग्नि देवता को दूत बना कर भेजने का निश्चय किया ताकि वह शिव के सम्मुख उनकी दयनीय दशा का वर्णन कर सके। अग्नि ने कबूतर का रूप धारण किया और उड़कर उनके निजी कक्ष में घुस गया। शिव को उसके मौलिक स्वरूप को जानने में देर नहीं लगी। इससे पहले कि वे उसे, अपने एकान्त स्थान में अनधिकृत प्रवेश के लिए दण्ड दे, अग्नि हाथ जोड़ कर बड़ी ही नम्नता से बोला- “प्रभो, मैं अपने राजा इन्द्र से आपके लिए एक संदेश लाया हूं। देवताओं ने विनय पूर्वक आपसे प्रार्थना की है कि आप एक पुत्र को पैदा करें जो तारक के विरुद्ध युद्ध में उनका नेतृत्व कर, उन्हें विजय दिला सके तथा दानव के बढ़ते हुए अत्याचारों से उनकी रक्षा कर सके।” शिव ने अग्नि को विश्वास दिलाया कि वे देवताओं की प्रार्थना पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करेंगे। 

समय आने पर महादेव के यहां पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम कुमार कार्तिकेय रखा गया। सभी के लिए कुमार का जन्म एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। देवताओं ने फूलों की वर्षा से उसका स्वागत किया। कुमार कार्तिकेय स्रष्टा की अदभूत रचना थी। वह विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न था। उसने छः दिनों के अल्प काल में न केवल पूर्ण यौवन को प्राप्त कर लिया, अपितु अपने माता-पिता की देख-रेख में, विद्या की भिन्‍न शाखाओं पर अधिकार तथा शास्त्रार्थों के प्रयोग में पूर्ण कुशलता प्राप्त कर ली। 

तब तारक की तानाशाही से त्रस्त देवता, राजा इन्द्र की अगवानी में, कुमार की सहायता प्राप्त करने के लिए, उसके पिता, शिव के निवास कैलाश पर्वत पर पहुंचे। द्वारपाल ने उन्हें अपने स्वामी के सम्मुख प्रस्तुत किया। जब महादेव ने उनके व्यथित चेहरों को देखा और उनके कष्ट की हृदय-विदारक कथाओं को सुना तो उन्हें उनकी दशा पर बहुत दया आई। उन्होंने तुरन्त पुत्र को बुला भेजा और उसे देवताओं के साथ जा कर, उनके शत्रु दैत्य तारक को युद्ध में मार गिराने का आदेश दिया। 

कुमार कार्तिकेय-तारक युद्ध

देवताओं की बहुत बड़ी सेना, महाराज इन्द्र के महल के सामने वाले मैदान में एकत्रित हुई। सेनापति कुमार सब से आगे थे। वे रथ में बैठे थे। उनके एक हाथ में धनुष तथा दूसरे में 'शक्ति' नाम का अस्त्र था। उन के पीछे क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यमराज, कुबेर तथा वरुण थे। उनके बाद देवताओं का एक बड़ा दल था। उन्होंने नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र धारण कर रखे थे। ज्यों-ही सब ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया, कुमार ने कूच करने का आदेश दिया। सेना पताकाएं फहराती आगे बढ़ने लगी। 

जब असुरों को मालूम हुआ कि महादेव का पुत्र कुमार, देवों की एक बड़ी सेना के साथ उनसे युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा आ रहा है, तो वे भयभीत हो उठे। अपने राजा तारक को इस बात की सूचना देने के लिए, वे तुरन्त उसके पास पहुंचे। राक्षस तारक क्रोध से आग-बबूला हो उठा। उसने तत्काल अपने सेनानायकों को युद्ध के लिए तैयारी की आज्ञा दे दी। 

दोनों सेनाओं के बीच घमासान यद्ध हआ। समस्त रण-भूमि दोनों ओर के शवों से भर गई। जब तारक के घातक शस्त्र भी देवताओं का दमन करने में सफल नहीं हुए तो उसने महसूस किया कि उसके सभी प्रयासों को विफल करने का मुख्य कारण कुमार ही है। अतः उसने सबसे पहले उससे युद्ध करने का निश्चय किया। उनके सम्मुख आकर तारक बोला- “हे तपस्वी महादेव के पुत्र इन भयंकर युद्धों के लिए तुम्हारी आयु अभी बहुत छोटी है। तुम अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र हो, तुम जाकर मां की गोद की शरण लो। तुम अपने प्राणों की बलि क्‍यों देना चाहते हो?” जब कुमार ने इन व्यंगात्मक शब्दों को सुना, उनके नेत्र क्रोध से लाल हो उठे उन्होंने उत्तर दिया- “हे दानव! वीर पुरुषों की शक्ति का प्रमाण उनके शब्दों से नहीं, बल्कि उनके बाहुबल से मिलता है। आज मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा लेने आया हूं और तुम्हें युद्ध के लिए ललकारता हूं।”

तारक का अंत

अब दोनों योद्धा एक दूसरे के सामने खड़े थे। तारक ने तीरों की बौछार-सी कर दी किन्तु कुमार ने उन्हें अपने बाणों से काट दिया। तारक ने कुण्ठित होकर आग्नेय अस्त्र से प्रहार किया जिससे देवों की सेना में भयंकर आग लग गई तथा सारा आकाश काले घने धुएं से भर गया। उसके प्रतिकार में, कुमार ने वरुण अस्त्र से प्रहार किया जिस के फलस्वरूप बादलों के गरजने और बिजली के चमकने के साथ मूसलाधार वर्षा होने लगी और सभी जगह आग ठण्डी पड़ गई। जब तारक के सर्वाधिक प्रभावशाली शस्त्रों में से कोई भी कुमार को वश में न कर सका, तो वह अपने रथ से नीचे उतर आया और हाथ में तलवार लेकर कार्लिकेय की ओर लपका। तब कुमार ने अपने अविजेय अस्त्र 'शक्ति!' से प्रहार किया जिससे दानव की छाती फट गई। इस प्रकार शिव के प्रातिभा-सम्पन्न पुत्र कुमार ने भयंकर दैत्य तारक को मौत की नींद सुला दिया। इससे देवराज इन्द्र का साम्राज्य सर्वथा निप्कण्टक हो गया। 


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