कालिदास कृत रघुवंशम्

सम्पूर्ण रघुवंशम् 10 मिनट में

Kalidas Raghuvansam


रघुवंश

दिलीप

सूर्यवंश सा प्राचीन भारत में, राजाओं का एक सुप्रसिद्ध वंश था। उसने देश में बहुत लम्बे समय तक शासन किया। उस वंश में अनेक प्रतापी एवं यशस्वी राजा हुए। रघुवंश की स्थापना वैवस्वत नाम के राजा ने की थी। उसके उत्तराधिकारियों में दिलीप का नाम सुविख्यात है। वे चरित्रवान्‌ थे और प्रजा के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निष्ठा से पालन करते थे। प्रजा भी उन्हें जी-जान से चाहती थी। अयोध्या उनकी राजधानी थी। ईश्वर की कृपा से उन्हें सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध थे, किन्तु उनके कोई संतान न थी। इस अभाव से वे अत्यन्त दुःखी रहते थे। एक दिन राज्य का कार्य-भार मन्त्रियों को सौंप, राजा दिलीप महारानी सुदक्षिणा के साथ, अपने कुल-गुरु वसिष्ठ के आश्रम की ओर चल पड़े। वहां पहुंच कर दोनों ने गुरु के चरण स्पर्श कर उनका अभिवादन किया। कुशल प्रश्न के बाद, वसिष्ठ ने राजा से उनके आने का कारण पूछा। मन की व्यथा को व्यक्त करते हुए दिलीप ने कहा, “गुरुदेव! पुत्र के न होने के कारण मुझे सारा साम्राज्य और सभी सुख व्यर्थ प्रतीत होते हैं। मुझे कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे मैं पुत्र प्राप्त कर सकूं।”

राजा की बात सुनकर वसिष्ठ कुछ देर के लिए ध्यान-मग्न हो गए। फिर वह बोले, “वत्स दिलीप! तुम्हें याद होगा कि असुरों के साथ युद्ध में देवराज इन्द्र की सहायता करने के बाद जब तुम राजधानी को लौट रहे थे तो रास्ते में तुम कल्पतरु के पास से गुजरे थे जिसके नीचे कामधेनु बैठी थी। अपनी पत्नी के विचारों में खोये होने के कारण तुमने उस दिव्य गौ की ओर यथोचित ध्यान नहीं दिया था। कामधेनु इसे अपना अपमान समझ, रुष्ट हो गई थी और उसने तुम्हें शाप दिया था, जब तक तुम, मेरी संतान की सेवा नहीं करोगे, तुम स्वयं संतान के सुख से वंचित रहोगे।” गुरु वसिष्ठ ने यह भी बताया कि- “कामधेनु पाताल चली गई है किन्तु सौभाग्य से उसकी पुत्री नन्दिनी हमारे पास इसी आश्रम में है। यदि तुम और तुम्हारी पत्नी मन लगा कर उसकी सेवा करो तो हो सकता है कि वह प्रसन्‍न हो कर तुम्हारी मनोकामना पूरी कर दे।” राजा ने गुरु के सुझाव को आदेश मानकर शिरोधार्य किया और पति-पत्नी दोनों दत्तचित्त हो कर, नन्दिनी की परिचर्या में लग गए। 

अगले दिन प्रातः महारानी सुदक्षिणा ने नन्दिनी की विधि-पूर्वक पूजा की। दिलीप ने बछड़े को दूध पिलाया और गाय को चराने के लिये स्वयं वन में ले गये। वे साये की तरह उसका पीछा करते रहे और धनुष-बाण संभाले, सदा उसकी रक्षा के लिए तत्पर रहे। वे उसे हरी और नरम घास खिलाते, उसकी पीठ थपथपाते-और मक्खियों और मच्छरों को उड़ाते। दिलीप तभी बैठते जब-नन्दिनी बैठ जाती और तभी पानी पीते जब वह अपनी प्यास बुझाती। सायंकाल वे उसके पीछे-पीछे आश्रम को लौट आये। सुदक्षिणा ने आगे आकर फिर उस की पूजा की। दूध दुहने के बाद, राजा और रानी काफी देर तक उसकी सेवा-शश्रूषा में लगे रहे और विश्राम के लिए तभी गए जब वह सो गई। इसके बाद उनका यही दैनिक कार्यक्रम बन गया। जब इस प्रकार इक्कीस दिन व्यतीत हो गए तो गौ नन्दिनी ने राजा की श्रद्धा एवं भक्ति की अधिक कठिन परीक्षा लेने की बात सोची। अगले दिन चरते-चरते वह हिमालय की एक गुफ़ा में घुस गई। वहां एक सिंह ने उसे अचानक आ दबोचा। उसकी भयात्र चीत्कार ने राजा का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने सिंह को मारने के लिए, तुरन्त धनुष हाथ में लिया, किन्तु तरकश से तीर निकालने के लिए ज्यों-ही हाथ बढ़ाया, उनकी अंगुलियां उससे चिपक गईं। उन्हें छुड़ाने के लिए उनके सभी प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए। उनका चेहरा क्रोध से लाल हो गया। यह देख कर, सिंह मनुष्य वाणी में बोला- “राजन, मुझे मारने का यत्न मत करो। मैं भगवान शंकर का सेवक हूं। वह देवदार का वृक्ष जो सामने दिखाई देता है भगवान्‌ शंकर को पुत्र की तरह प्यारा है। देवी पार्वती ने उसे बड़े स्नेह से अपने हाथों से सींचा है। एक बार एक जंगली हाथी ने रगड़ से उसकी छाल उखाड़ दी थी। इससे पार्वती को बहुत दु:ख हुआ था। तभी से शंकर ने उस वृक्ष की रक्षा के लिए मुझे नियुक्त कर रखा है। जो भूला-भटका पशु इधर आ निकलता है, उसी को खा कर मैं अपनी भूख मिटाता हूं। सौभाग्य से आज यह गौ यहां ठीक समय पर आ पहुंची है। यह मेरे भोजन के लिए काफी होगी। इसे बचाने का यत्न मत करो। तुम अपने कर्त्तव्य का पालन कर चुके हो। तुमने दिखला दिया है कि गुरु के प्रति तुम्हारे मन में कितनी श्रद्धा है। अब तुम आश्रम को लौट जाओ।” 

जब राजा दिलीप ने हर तरह से अपने आपको विवश पाया तो उन्होंने हाथ जोड़ कर सिंह से प्रार्थना की, “मैं सर्वशक्तिमान्‌ शिव का बड़ा सम्मान करता हूं किन्तु अपने पूज्य गुरु की गौ को अपनी आंखों के सामने मरते हुए नहीं देख सकता। तुम इस गौ को छोड़ दो और मुझे खा कर अपनी भूख को शान्त कर लो।” यह कहकर राजा ने अपने आप को शेर के आगे समर्पित कर दिया और उसके आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे। इसी बीच आकाश से फूलों की वर्षा हुई और दिलीप के कानों में नन्दिनी की मधुर वाणी सुनाई दी- “वत्स, उठो। मैंने केवल तुम्हारी श्रद्धा एवं भक्ति की परीक्षा ली थी। मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। वर मांगो।” राजा ने सिर उठाया। शेर का कहीं पता न था। उन्होंने नन्दिनी को प्रणाम किया और एक ऐसे यशस्वी पुत्र के लिए प्रार्थना की जो उनके वंश को चला सके। नन्दिनी ने राजा की मनोकामना को पूरा करने का वचन दिया और उन्हें एक दोने में दूध दुहकर पीने के लिए कहा। 

तत्पश्चात्‌ राजा और गौ, दोनों सायंकाल आश्रम को लौट आए। दिलीप की प्रसन्‍न मुख-मुद्रा को देख कर गुरु वसिष्ठ को विश्वास हो गया कि राजा के मन की मुराद पूरी हो गई है। नन्दिनी के वरदान की बात सुन कर, महारानी सुदक्षिणा भी आनन्द-विभोर हो उठी। राजा ने बछड़े को दूध पिलाने के बाद, दिव्य गौ के कथनानुसार उसका दूध पिया। उसके बाद शीघ्र ही राजा दिलीप और महारानी सुदक्षिणा, गुरु वसिष्ठ से आशीर्वाद प्राप्त कर, राजधानी को लौट आए। 

रघु

कुछ समय बाद, महारानी सुदक्षिणा ने शुभ घड़ी में पुत्र को जन्म दिया। अयोध्या की समस्त प्रजा, इस सुखद समाचार को पा खुशी से झूम उठी। नवजात शिशु का नाम रघु रखा गया। समय पाकर रघु बड़ा हुआ। वह अब एक सुन्दर एवं मेधावी युवक था। उसने शीघ्र ही शिक्षा की भिन्‍न-भिन्‍न शाखाओं में प्रवीणता प्राप्त कर ली। विद्या ने उसे अधिक विनीत बना दिया। यथा समय उसका विवाह हो गया और पिता ने उसे युवराज घोषित कर दिया। 

महाराज दिलीप ने निन्‍यानवे अश्वमेध यज्ञ किए और उन सब में अश्व की रक्षा का भार रघु को सौंपा गया। जब देवताओं के राजा इन्द्र ने दिलीप के निन्‍यानवे यज्ञों की समाप्ति की बात सुनी, तो वे भयभीत हो उठे क्योंकि सौवें यज्ञ की सफलता से सम्पन्न होने पर, महाराजा दिलीप, उनकी पदवी पर अधिकार जमा सकते थे। इस सम्भावित विपत्ति से बचने के लिए, देवराज इन्द्र ने चुपके से उनके यज्ञ का अश्व चुरा लिया। अश्व की रक्षा के लिए उत्तरदायी सैनिक विचलित हो उठे किन्तु रघु को नन्दिनी के सौजन्य से उस चोरी का पता चल गया और उन्होंने इन्द्र को तुरन्त युद्ध के लिए ललकारा। दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। देवेन्द्र राजकमार रघु के साहस एवं शौर्य को देखकर चकित रह गये। उन्होंने यज्ञ का घोड़ा तो वापस नहीं किया किन्तु महाराजा दिलीप को सौ अश्वमेध यज्ञों से प्राप्य पुण्यों के सभी लौकिक एवं आध्यात्मिक लाभ मिल गए। 

कुछ समय बाद रघु को राज्य-भार सौंप कर महाराजा दिलीप और महारानी स॒दक्षिणा, तपस्या के लिए वनों में चले गए। राजगद्दी पर बैठते ही रघु का प्रताप चारों दिशाओं में फैल गया। देश में सभी ओर सुख-चैन की बंसी बजने लगी। लोगों के मन राजा के प्रति स्नेह सम्मान और श्रद्धा से भर उठे। उनके शासन में प्रजा, राजा दिलीप को भी भूल-सी गई। शरद-ऋतु के आने पर, महाराज रघु बहुत बड़ी सेना लेकर साम्राज्य के विस्तार के लिए निकल पड़े। उन्होंने सर्वप्रथम पूर्व में बंग-देश को पराजित किया। फिर कलिंग को जीत कर वे मलयाचल तक जा पहुंचे। दक्षिण में पाण्ड्य राजा भी उनकी शक्ति के सामने टिक न सका। सह्याद्रि को पार कर वे पश्चिम की ओर बढ़े। पश्चिमी देश में अश्वारोही राजाओं को अपने अधीन करते हुए वे सिन्धु नदी के तट पर जा पहुंचे। उन्होंने हुणों को खदेड़ा। काबुल का राजा भी उनकी ताब न ला सका। कम्बोज को हरा कर वे हिमालय पर्वत पर चढ़ गए। वहां पहाड़ी आदिम जातियों से उन का घमासान युद्ध हुआ। तब वे पूर्व दिशा की ओर बढ़े। लौहित्य नदी को पार कर, रघु की सेनाएं, प्राग्ज्योतिष (असम) में घुस गई। वहां के राजा ने, बिना युद्ध किए उनके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार रघु दिग्विजय करके अयोध्या लौट आए। तब उन्होंने विश्वजित्‌ यज्ञ किया और उसमें सर्वस्व दान कर दिया। 

ठीक उसी समय, महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स वहां आ पहुंचे। गुरु को दक्षिणा देने के लिए उन्हें स्वर्ण म॒द्राएं चाहिएँ थीं। जब मालूम हुआ कि महाराजा रघु अपनी सारी धन-दौलत दान कर चुके हैं तो उन्हें मन की बात कहने में संकोच हुआ। किन्तु राजा के आग्रह करने पर उन्होंने बताया कि गुरु को देने के लिए उन्हें चौदह करोड़ मुहरें चाहिएं। राजा ने उन्हें सादर शाही अतिथिशाला में ठहराया और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे कौत्स जैसे वेदपाठी को निराश नहीं करेंगे। चूंकि आवश्यक धनराशि को प्राप्त करने के लिए राजा के पास कोई साधन नहीं था, उन्होंने धनपति कुबेर देवता पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इस अभियान के लिए अगले दिन प्रातः का समय नियत किया गया किन्तु सेनाओं के प्रस्थान करने से पूर्व ही कोषाध्यक्ष ने महाराज रघु को सूचना दी कि उनके कोषागार में रात भर स्वर्ण की वर्षा हुई है। रघु ने कौत्स को बुला भेजा और सारा स्वर्ण उनके आगे रख दिया। किन्तु विवेकशील शिष्य ने आवश्यकता से अधिक धन लेने से इंकार कर दिया। चलते समय कौत्स ने राजा की आशीर्वाद दिया – राजन तुम्हें भी वैसा ही यशस्वी एवं प्रतापी पुत्र प्राप्त हो जैसा तुम्हारे पिता को मिला है। सूर्यवंशी राजाओं में रघु को जो स्थान प्राप्त है, वह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि बाद में यह वंश रघुवंश के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया। 

अज

कुछ समय बाद, रघु को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम अज रखा गया। शौर्य, गण तथा रूप-रंग में वे अपने पिता के समान थे। समय पाकर वे युवावस्था को प्राप्त हुए। इसी बीच विदर्भ के राजा भोज ने अपनी बहन इंदुमती के स्वयंवर की घोषणा की। उसने अज को भी उसमें आमन्त्रित किया। अज बड़े ठाठ-बाट के साथ विदर्भ पहुंचे। स्वयंवर-मण्डप को सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था। उसकी शोभा देखते ही बनती थी। इंदुमती को जीवन-साथी के रूप में पाने के लिए, वहां भिन्‍न-भिन्‍न देशों के राजकुमार इकट्ठे हुए थे। वे सुन्दर वेष-भूषा तथा बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित थे। किन्तु अज की छवि निराली ही थी। वे उन सबमें इस प्रकार दीख पड़ते थे जैसे तारों में चांद। नियत समय पर इंदुमती एक पालकी में वहां पहुंची। वह सचमुच विधाता की अपूर्व रचना थी। उसके प्रवेश करते ही, सभी राजकुमारों की दृष्टि उस पर जा टिकी। उसकी परिचारिका सुनन्दा, सभी उपस्थित राजकुमारों का बारी-बारी से परिचय देने लगी। उसने राजकुमारी को प्रत्येक पुरुष के वंश, शौर्य तथा उपलब्धियों से अवगत कराया। इंदुमती मगध, अंग, अवन्ति, मथुरा, कलिंग आदि के शासकों को निहारती हुई आगे निकल गई। उसने उनकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। किन्तु राजकुमार अज के पास पहुंचते ही वह रुक-सी गई। चतुर परिचारिका को राजकुमारी का मन भांपने में देर नहीं लगी। उसने अज के अलौकिक गुणों, अद्भुत शक्ति तथा वीरता का विस्तार से वर्णन किया। इंदुमती अज की उपलब्धियों पर बहुत प्रभावित हुई तथा अज के अनन्य रूप ने राजकुमारी का मन मोह लिया। इंदुमती ने अज को पति बनाने का निश्चय कर लिया उसने सुनन्दा के हाथों से वरमाला ली और अज के गले में डाल दी। जब विदर्भ के लोगों ने यह सुखद समाचार सुना तो उन्होंने एकमत से यह राय प्रकट की कि विधाता ने उन्हें वास्तव में एक-दूसरे के लिए बनाया था। इन्दुमति का अज से विवाह बड़ी धूम-धाम से मनाया गया। इन्दुमति के पिता, राजा भोज ने स्वयंवर में भाग लेने के लिए आए हुए अन्य राजाओं एवं राजकुमारों का यथोचित आदर किया और उन्हें सम्मानपूर्वक विदाई दी। यद्यपि शिष्टाचार के नाते उन्होंने उस अवसर पर कुछ नहीं कहा, किन्तु उनके मन में अज के प्रति ईर्ष्या की अग्नि जल रही थी, क्योंकि इन्दुमति ने, उनकी उपेक्षा करते हुए उसे चुना था। अत: जब अज तथा इन्दुमति दल-बल सहित अयोध्या को लौट रहे थे, उन्होंने उन पर आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ। अज अकेले ही उन सबके लिए भारी सिद्ध हुए और उन्हें मुंह की खानी पड़ी। अज विजय की पताका फहराते हुए अयोध्या में प्रविष्ट हुए। महाराज रघु को उनके विवाह एवं युद्ध में जीत का समाचार पहले ही मिल चुका था। उन्होंने वीर पुत्र एवं सुमुखी पुत्रवधु का स्नेहपूर्वक स्वागत किया। 

उसके बाद शीघ्र ही, रघु ने राज-सत्ता को त्याग, तपस्या का मार्ग अपनाने का निश्चय कर लिया। राजकुमार ने पिता से प्रार्थना की कि वे उसे छोड़ कर ना जाए। रघु के मन में पुत्र के प्रति अगाध स्नेह था। वे वनों में न जाने पर राजी हो गए किन्तु वे राज्य- भार से मुक्त हो गए। कुछ समय बाद योग समाधी द्वारा देह त्याग दिया। तदन्तर अज बे रोक टोक शासन करते रहे। कुछ समय बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और उसका नाम दशरथ रखा गया। एक बार महारानी इंदुमती के साथ उपवन में विहार कर रहे थे। उसी समय दक्षिणसागर के तट पर स्थित गोकर्ण तीर्थ में शिवजी की सेवा करने आकाश मार्ग से नारद जी जा रहे थे। स्वर्गीयपुष्पों की माला उनकी वीणा से गिर के इंदुमती के वक्षस्थल पर लगी जिससे उनकी मृत्यु हो गयी और अज शोकसंतप्त हो गए। यह जानकर वशिष्ट जी ने एक शिष्य को भेजा जिसने बताया की इंदुमती एक अप्सरा थी जो शाप के कारण मनुष्य देह को प्राप्त हुई थी और स्वर्गपुष्प के दर्शन से वह शाप से मुक्त हो कर स्वर्ग चली गयी। यह जानकार अज पुनः राज सुचारु रूप से करने लगे। और उचित समय आने पर राजपाट दशरथ को सौप सरयू नदी के संगम पर देह त्याग स्वर्ग चले गए।

दशरथ

दशरथ के राज्य रोग और शत्रुभय से मुक्त दिग्विजय रहे। उनका विवाह मगध, कौशल तथा केकय की राजकुमारियों से हुआ। एक बार राजा दशरथ मृगया खेलने वन गए। और तमसा नदी के तट पर आवाज सुनी। उन्होंने समझा कि कोई हाथी नदी से जल पी रहा है। आव देखा न ताव, दशरथ ने उस दिशा में शब्द-भेदी बाण छोड़ दिया। दुर्भाग्य से वह हाथी न था, बल्कि एक ब्राह्मण युवक श्रवण कुमार था जो अपने अन्धे माता-पिता को कांवर में बिठा कर तीर्थ-यात्रा के लिए निकला था तथा उनकी प्यास बुझाने के लिए घड़े में जल भर रहा था। तीर श्रवण कुमार के कलेजे में लगा और वह वहीं ढेर हो गया। राजा के पश्चाताप का पारावार न था। युवक के वृद्ध नेत्र-हीन माता-पिता इस तीव्र आघात को सहन न कर सके और चल बसे। मरने से पहले उन्होंने राजा दशरथ को शाप दिया कि उसकी मृत्यु भी वृद्धावस्था में पुत्र-वियोग के कारण होगी। शोकाकुल तथा पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए महाराज दशरथ अयोध्या को लौट आए।

राम

दशरथ ने बहुत लम्बे समय तक राज किया। प्रजा की सुख-शान्ति के लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहते तथा जन-कल्याण के लिए उन्होंने बहुत से कार्य किए। अतः लोग उनसे बहुत प्रसन्न थे। किन्तु उनके मन में शान्ति न थी। वे प्रौढ़ावस्था को पार कर चुके थे किन्तु अपने पितामह दिलीप की तरह, वे भी पुत्र के सुख से वंचित थे। शृंगी ऋषि के कहने पर उन्होंने पुत्रेष्ठि-यज्ञ किया। यथा उनके यहाँ चार पुत्र हुए। सबसे बड़ी रानी कौशल्या ने राम को सुमित्रा ने लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न को तथा कैकेयी ने भरत को जन्म दिया। चारों पुत्र प्रियदर्शी थे। उनमें एक दुसरे के लिए अगाध स्नेह और पिता के प्रति असीम श्रद्धा थी। समय पा कर वे यौवन को प्राप्त हुए। अल्प आयु में ही उन्होंने संपूर्ण ज्ञान के मुल तत्वों को ग्रहण कर लिया तथा युध्द-कला में प्रवीण हो गये। एक बार महर्षि विश्वामत्र महाराज दशरथ के दरबार मे आए और यज्ञ की सुरक्षा के लिए राम तथा लक्ष्मण को अपने साथ ले जाने के लिए अनुमति मांगी। राजा ने उनके सुझाव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। जब वे विश्वामित्र के आश्रम की ओर जा रहे थे तो राक्षसी ताड़का ने सहसा उन पर आक्रमण कर दिया। राम ने उसके वार को निष्फल कर दिया और एक बाण से उसे मार डाला। विश्वामित्र ने प्रसन्‍न होकर राम को एक ऐसा दिव्य अस्त्र प्रदान किया जिससे वे किसी भी शक्तिशाली राक्षस का संहार कर सकते थे। तत्पश्चात॒ यज्ञों की राक्षसों के उपद्रवों से रक्षा करते हुए दोनों भाइयों ने सुबाह को मार गिराया जब कि एक अन्य राक्षस मारीच भाग गया। इस प्रकार विश्वामित्र का यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हआ। 

इसके बाद विश्वामित्र ने दोनों राजकुमारों को मिथिला ले जाने का निश्चय किया जहां वे शंकर के विशाल धनुष को देख सकते थे। मिथिला, राजा जनक की राजधानी थी तथा शिवजी ने यह धनुष उनके किसी पूर्वज को दिया था। राजा जनक ने प्रण किया था कि वे अपनी बेटी सीता का विवाह उस वीर पुरुष से करेंगे जो शंकर के उस विराट धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने में सफल होगा। राजा ने महर्षि विश्वामित्र का आदरपूर्वक स्वागत किया। उन्हें उन दो राजकुमारों के सम्बन्ध में जानकर बहुत प्रसन्‍नता हई जिन्हें विश्वामित्र अपने साथ लाए थे। महर्षि ने इच्छा व्यक्त की कि शिव के महान धनुष को लाकर राम को दिखाया जाये। राजा जनक विश्वामित्र के दिल की बात समझ गए और दिल ही दिल में कहने लगे, भला राम जैसा सुकुमार युवक उस कार्य को कैसे सम्पन्न कर पाएगा जिसे देश के बड़े से बड़े योद्धा करने में असफल रहे हैं। किन्तु ऋषि की इच्छा का मान रखते हए उन्होंने ने शिव के चाप को राम के सम्मुख प्रस्तुत करने का आदेश दिया। आठ पहियों के रथ में रख कर कई लोग अपनी पूरी शक्ति लगा कर उस भीमकाय धनुष को वहां ले आए। राम आगे बढ़े। उन्होंने ने एक ही हाथ से उस विराट धनुष को उठाया, दबाया और प्रत्यंचा चढ़ा दी। इस प्रकार उन्होंने जनक की पुत्री के विवाह के लिए जो शर्त रखी गई थी, उसे पूरा कर दिया। राजा जनक आनन्द विभोर हो गए। राजा दशरथ को यह सुखद समाचार देने और उन्हें नि्मन्त्रित करने के लिए जनक ने तुरन्त एक पुरोहित को अयोध्या भेज दिया। दशरथ यह समाचार पाते ही भरत और शत्रुघ्न के साथ, मिथिला की राजधानी जनकपुरी की ओर चल पड़े। राम और सीता का विवाह बड़ी धूम-धाम से हुआ। उसके साथ ही जनक की दूसरी बेटी उर्मिला की शादी लक्ष्मण से कर दी गईं। राम के छोटे भाई, भरत और शत्रुघ्न जनक के छोटे भाई कुशध्वज की पुत्रियों, माण्डवी तथा श्रुतिकीर्ति से ब्याहे गए। पाणिग्रहण संस्कार के बाद, अयोध्या को लौटते समय राम की भेंट परशुराम से हो गई। वे राम से क्रुद्ध थे क्योंकि उन्होंने भगवान्‌ शंकर का धनुष तोड़ डाला था। किन्तु जब परशुराम को इस बात का विश्वास हो गया कि राम वास्तव में अनुपम शौर्य एवं शक्ति के स्वामी हैं तो वे उन्हें आशीर्वाद देकर अपने रास्ते पर चले गए। 

जब दशरथ वृद्धावस्था को प्राप्त हुए, उन्होंने अपने राज्य का कार्यभार अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को सौंप देने का निश्चय किया, किन्तु सबसे छोटी रानी कैकेयी ने उनके मन्तव्य पर पानी फेर दिया। उसकी जिद थी कि राजसिंहासन पर उसके पुत्र भरत को बिठाया जाये और राम को चौदह वर्ष का वनवास दे दिया जाये। कैकेयी ने एक बार रणक्षेत्र में दशरथ की प्राण-रक्षा की थी। बदले में राजा ने रानी को दो वर दिये थे जिन्हें वह अपनी सुविधानुसार मांग सकती थी। अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए कैकेयी ने इस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया। रानी के दुराग्रह से राजा के हृदय को तीव्र आधात लगा किन्तु राम ने यह सोच कर कि पिता अपने वचनों से झूठे न पड़ जाये, कैकेयी की इच्छा को उनका आदेश समझ और भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता को साथ ले कर, वनों को चले गए। राजा दशरथ प्रिय पुत्र के वियोग को सहन न कर सके और स्वर्ग सिधार गए। 

भरत उस समय अपने ननिहाल गये हुए थे। जब वे लौटे तो मां के आचरण से अत्यंत दुःखी हुए। उनके मन में राजगद्दी के लिए तनिक भी मोह नहीं था। ज्येष्ठ भ्राता राम को लौटा लाने के लिए वे वन चले गये। राम को वापस लाने में तो वे सफल नहीं हुए, किन्तु उनकी पादुका को अपने साथ ले आये। उन्होंने बड़े आदर के साथ उन खड़ाऊं को राजसिंहासन पर रखा, और राम का प्रतिनिधि बन कर राजकार्य चलाने लगे। 

जब राम पंचवटी नामक स्थान पर निवास कर रहे थे तो लंका के राजा की छोटी बहन शूर्पणखा ने उनके रूप और तेज की चर्चा सुनी। वह वहां जा पहुंची और उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। दोनों में काफी नोक-झोक हुई और इसी गर्मा-गर्मी में लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक-कान काट दिए। वह रोती-पीटती अपने भाइयों खर और दूषण के पास पहुंची। उन दोनों ने तुरन्त राम पर आक्रमण किया किन्तु अपने सैनिकों सहित मारे गए। जब रावण ने अपनी बहन के अपमान तथा सगे-सम्बन्धियों के वध की बात सुनी तो वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने मामा मारीच को कपट-मृग बना कर राम के आश्रम पर भेजा और धोखे से सीता का हरण कर लिया और उन्हें अपने साथ लंका ले गया। सीता के हरण हो जाने से दोनों भाई, राम और लक्ष्मण अत्यन्त दु:खी हुए और उनकी खोज में वन-वन भटकने लगे। 

बाली तथा सुग्रीव दो भाई थे। उनकी आपस में नहीं बनती थी। बाली बड़ा दुष्ट था। उसने सुग्रीव को देश से निर्वासित कर, उसकी पत्नी को छीन लिया था। सीता को खोजते हुए राम वानरों के राजा सुग्रीव से मिले। उसे विपद्-ग्रस्त देख राम ने उसका साथ दिया। युद्ध में बाली को मारकर उन्होंने सुग्रीव को पुनः राज सिंहासन पर स्थापित किया। बदले में वानरों के राजा ने सीता को खोजने में राम की यथासम्भव सहायता की। जब यह पता चल गया कि राक्षस रावण ने सीता को लंका की अशोक वाटिका में बन्दी बना कर रखा है, तो सुग्रीव ने अपने वीर नायक हनुमान्‌ को उनका कुशल-समाचार पाने और ढाढ़स बंधाने के लिए लंका भेजा। हनुमान्‌ समुद्र पारकर, सीता के पास पहुंचे और उनसे यथेष्ट जानकारी प्राप्त कर राम के पास लौट आए। राम ने वानरों की सहायता से तुरन्त रावण पर आक्रमण करने का निश्चय किया। जब वे समुद्र तट पर पहुंचे तो रावण का भाई विभीषण उनसे आ मिला। वानरों ने समुन्द्र पर पुल बनाया और राम की सेना ने शीघ्र ही लंका के राज्य को घेर लिया। युद्ध में रावण के सभी सम्बन्धी मारे गए और अन्त में वह भी राम के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ। लंका के राजपरिवार में से अब केवल विभीषण जीवित था। राम ने उसका राजतिलक कर, उसे लंका का राजा बना दिया। राम के वनवास के चौदह वर्ष पुरे हो चुके थे। वे लक्ष्मण और सीता के साथ अयोध्या लौट आए। हनुमान्‌ तथा सुग्रीव भी उनके साथ आए। अयोध्या में राम का राजतिलक बड़ी धूम-धाम से हुआ। तत्पश्चात्‌ सुग्रीव तो अपने राज्य को लौट गए, हनुमान राम की सेवा के लिए वहीं रह गए। राम ने प्रजा के प्रति अपने उत्तरदायित्व को बड़े ही प्रशंसनीय ढंग से निभाया। उनके सभी प्रशासनिक की कार्यों में न्‍यायप्रियता एवं लोकहित की झलक मिलती थी। 

इस प्रकार कई वर्ष बीत गए। सीता अब गर्भवती थी। उन्होंने एक दिन पवित्र नदी गंगा के दर्शन की इच्छा प्रकट की। उसी बीच राम के गुप्तचरों ने उन्हें सूचना दी कि राज्य में कुछ लोगों को इस बात पर आपत्ति है कि रावण की नगरी में इतनी देर तक रहने पर भी राजा राम ने सीता को अपना लिया है। राम इसे सुन कर अत्यन्त दुःखी हुए किन्तु उन्होंने प्रजा-रंजन का व्रत ले रखा था और वे अपने राज्य में अपने आचरण के सम्बन्ध में किसी को भी शिकायत का मौका नहीं देना चाहते थे। उन्होंने अपना कर्त्तव्य तुरन्त निश्चित कर लिया। उन्हें मालूम था कि प्राण-प्रिया पत्नी का वियोग उनके लिए हृदय-विदारक होगा, फिर भी उन्होंने उसे अपने पास रखना उचित नहीं समझा। लक्ष्मण, सीता को गंगा-दर्शन के बहाने नदी के पार वन में ले गए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि माँ के समान पूज्य भाभी को इतने बड़े दुर्भाग्य की बात कैसे कहें? आखिर दिल को कड़ा करके उन्होंने बड़े भाई के कठोर निर्णय को सुना दिया। सीता पर मानो वज्रपात हुआ। लक्ष्मण ने उन्हें आश्वस्त करने की बहुत चेष्टा की किन्तु सब व्यर्थ। जब वे वहां से जाने लगे तो सीता फूट-फूट कर रो रही थीं। उनके दारुण विलाप से सम्पूर्ण प्रकृति स्तब्ध हो उठी थी। संयोगवश महर्षि वाल्मीकि का आश्रम निकट ही था। सीता की हृदय-विदारक करुण पुकार सुन वे वहां आ पहुंचे और उसे सांत्वना दे कर अपने साथ आश्रम में ले गए। 

उधर राम ने जब लक्ष्मण से सीता की दयनीय दशा का वर्णन सुना तो उनका हृदय मानसिक पीड़ा से रो उठा। उनकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी। किन्तु वे अपने निर्धारित पथ से विचलित नहीं हुए। यथा समय सीता ने वाल्मीकि के आश्रम में दो जुड़वाँ बच्चों लव और कुश को जन्म दिया। बचपन से ही वे तेजस्वी तथा पराक्रमी थे। इसी बीच वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। लव और कुश ने शीघ्र ही उसके पाठ एवं गान का अभ्यास भी कर लिया। अयोध्या में राम ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। इसमें पत्नी के स्थान पर उन्होंने सीता की सोने की मूर्ति को स्थापित किया। जब सीता ने राम के पुनः विवाह न करने की बात सुनी, तो उसके मन में निर्वासित किये जाने का जो दुःख था, वह कुछ कम हो गया। 

अश्वमेध यज्ञ में घोड़े को छोड़ने की रस्म महत्त्वपूर्ण होती है राजा राम ने इस अवसर पर सभी ऋषि-मुनियों को आमंत्रित किया। वाल्मीकि ने अपनी ओर से लव और कुश को भेजा। रामायण का गान करते हुए वे अयोध्या में प्रविष्ट हुए। उनके असाधारण रूप और वाक्‌-माधुर्य से राम बहुत प्रभावित हुए। कथा के अन्तिम भाग में जो करुण रस था, उसने सभी आमंत्रित जनों को भाव-विहवल कर दिया। राजा उन्हें दान देना चाहते थे किन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। तत्पश्चात्‌ राम स्वयं वाल्मीकि आश्रम में गए और अपना सारा राज्य उन्हें भेंट करना चाहा। तब महर्षि ने उन्हें सम्पूर्ण कथा कह सुनाई तथा सीता की पुनः स्वीकार करने का परामर्श दिया। किन्तु राम ने कहा कि यदि सार्वजनिक रूप से अपनी शुद्धि का प्रमाण दें तो वे उन्हें वापस बुला लेंगे।  

सीता ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। भरी सभा में उन्होंने माँ पृथ्वी से प्रार्थना की- “हे वसुन्धरे, यदि मैंने मन, वचन और कर्म से पतिव्रत धर्म का पालन किया है तो मुझे अपनी गोद में शरण दो।” सीता का इतना ही कहना था कि उन के पांव के नीचे से धरती फट गई और सीता उस में समा गईं। यह देख कर राम देवी पृथ्वी पर अत्यन्त क्रुद हो उठे। तब सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा वहां स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने राम को समझा-बुझा कर शांत किया। उनके कहने पर वे कुश और लव को साथ ले कर अयोध्या लौट आए। अश्वमेध यज्ञ सफलता से सम्पन्न हो गया। अतिथि जन अपने घरों को लौट गए। भरत को सिन्धु देश का राजा बना दिया गया। उन्होंने उसमें से दो क्षेत्र अपने दो पुत्रों, तक्ष और पृष्कल को दे दिये। वे दो प्रदेश बाद में तक्षशिला और पृष्कलावती के नाम से प्रसिद्ध हुए। राम की आज्ञा से लक्ष्मण ने कारुपथ का राज्य अपने पुत्रों अंगद और चन्द्रकेतू में बांट दिया। 

काफ़ी समय बाद, एक दिन यमराज, मुनि का वेश धारण किए राम के पास आए और उनसे एकान्त में बात करनी चाही। उन्होंने यह शर्त भी रखी की कोई अन्य व्यक्ति उनकी बातचीत में हस्तक्षेप नहीं करेगा और यदि किसी ने ऐसा किया तो राम उसका सदा के लिए त्याग कर देगे। लक्ष्मण द्वार पर पहरा देने के लिए खड़े हो गये। ठीक उसी समय महर्षि दुर्वासा पधारे और राम से तुरन्‍त भेंट करने की इच्छा प्रकट की। लक्ष्मण ने उन्हें बहुत समझाया किन्तु क्रोधी ऋषि ने एक न मानी। जब वे शाप देने को तैयार हो गए तो लक्ष्मण विवश होकर राम को उनके आगमन की सूचना देने के लिए अन्दर चले गए। यमराज को दिए वचन के इस प्रकार भंग होने पर, राम ने अपने सर्वाधिक प्रिय भाई लक्ष्मण को सदा के लिए त्याग दिया। लक्ष्मण के लिए यह आघात असह्य था। उन्होने सरयू में जल-समाधि लेकर प्राण त्याग दिए। राम भी भाई के चिरन्तन वियोग को सहन न कर सके। उन्होंने कुशावती और श्रावती के प्रदेशों को अपने पुत्रों कुश तथा लव को सौप दिया और स्वयं विमान में बैठ कर स्वर्ग को चले गए। 

कुश

राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न-सभी के दो-दो पुत्र थे। उन सब को भिन्‍न-भिन्‍न प्रदेशों का राजा बना दिया गया था। चूँकि कुश उन सब में बड़े थे, अयोध्या की प्रजा ने उन्हें वहां पिता राम का स्थान ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की। कुश अयोध्या-वासियों के स्नेहमय अनुरोध को ठुकरा न सके। कुश के अयोध्या का राज सम्भालने पर, उस विशाल नगरी का प्राचीन वैभव लौट आया। कुश ने एक सुन्दर राजकुमारी कुमुदवती से विवाह किया। 

अतिथि

कुश के पुत्र का नाम अतिथि था। वे सूर्य की तरह प्रतापी और अपने पूर्वजों की भांति गुणी एवं पराक्रमी थे। राक्षसों के विरुद्ध युद्ध में देवराज इन्द्र की सहायता करते हुए, कुश ने अपने प्राणों की बलि दे दी। पति की मृत्यु का आघात कुमुदवती के लिए घातक सिद्ध हुआ। कुश के बाद उनके पुत्र अतिथि राज-गद्‌दी पर बैठे। उन्होंने बड़ी कुशलता से राज्य का संचालन किया। अपने पराक्रम के बल पर उन्होंने कई सीमान्त राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्र वरुण, कुबेर आदि देवताओं की उनके राज्य पर विशेष कृपा-दृष्टि थी। उनके शासन काल में अकाल, बाढ़ तथा भुखमरी ने प्रजा को कभी पीड़ित नहीं किया। 

गौरव-गाथा समाप्त

अतिथि के उत्तराधिकारी राजाओं ने रघुवंश की महिमा को बनाए रखा। उनमें निषाद तथा नल के नाम विशेष रूप से विख्यात हैं। किन्तु अग्निवर्ण नाम के राजा ने वंश की मर्यादा को मिट्ठी में मिला दिया। विलासिता के अतिरिक्त उसमें कई अन्य दुर्व्यसन थे जो उसके पतन का कारण बने। उसके देहावसान के साथ रघुवंश की गौरव-गाथा समाप्त हो गई। 

document.write(base64decode('encoded string containing entire HTML document'));
और नया पुराने

ads

ads

نموذج الاتصال