वीर छत्रपति सम्भाजी महाराज
छत्रपति संभाजी राजे (सम्भाजी) (छत्रपति संभाजी राजे भोसले या शंभुराजे (1657-1689) मराठा सम्राट और छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी थे। उस समय मराठों के सबसे प्रबल शत्रु मुगल बादशाह औरंगजेब का बीजापुर और गोलकुण्डा का शासन हिन्दुस्थान से समाप्त करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। संभाजी राजे अपने शौर्य व पराक्रम के लिए प्रसिद्ध थे।
संभाजी महाराज ने अपने कम समय के शासन काल में 210 युद्ध किए और इसमें एक प्रमुख बात यह थी कि उनकी सेना एक भी युद्ध में पराभूत नहीं हुई। उनके पराक्रम से परेशान होकर औरंगजेब ने कसम खाई थी, कि जब तक छत्रपति संभाजी पकड़े नहीं जाएंगे, वह अपना किमोश (मुकुट) सर पर नहीं चढ़ाएगा। 11 मार्च 1689 को औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी महाराज की बड़ी क्रूरता के साथ हत्या कर दी। इस दुखद और दर्दनाक घटना के अगले ही दिन संभाजी महाराज के छोटे भाई राजाराम महाराज को छत्रपति बनाया गया।
छत्रपति संभाजीराजे नौ वर्ष की अवस्था में छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा यात्रा में उनके साथ गए थे। औरंगजेब के बंदीगृह से निकल, पुण्यश्लोक छत्रपति शिवाजी महाराज के महाराष्ट्र वापस लौटने पर, मुगलों से समझौते के फलस्वरूप, संभाजीराजे मुगल सम्राट् द्वारा राजा के पद तथा पंचहजारी मंसब से विभूषित हुए।
छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु (3 अप्रैल 1680) के बाद कुछ लोगों ने छत्रपति संभाजी महाराज के अनुज राजाराम को सिंहासनासीन करने का प्रयत्न किया। सेनापति मोहिते, जो कि राजाराम के सगे मामा थे, उन्होंने यह योजना बनाई थी। परन्तु वह विफल रही। और 16 जनवरी 1681 को संभाजी महाराज का विधिवत् राज्याभिषेक हुआ। इसी वर्ष औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर ने दक्षिण से भागकर धर्मवीर छत्रपति श्री संभाजी महाराज का आश्रय ग्रहण किया। अकेले मुगल, पुर्तगाली, अंग्रेज तथा अन्य शत्रुओं के साथ लड़ने के साथ ही उन्हें अंतर्गत शत्रुओं से भी लड़ना पड़ा।
राजाराम को छत्रपति बनाने में असफल रहने वाले राजाराम के कुछ ब्राह्मण समर्थकों ने औरंगजेब के पुत्र अकबर से राज्य पर आक्रमण करके उसे मुगल साम्राज्य का अंग बनाने की गुजारिश करने वाला पत्र लिखा। किन्तु छत्रपति संभाजी महाराज के पराक्रम से परिचित और उनका आश्रित होने के कारण अकबर ने वह पत्र छत्रपति संभाजी को भेज दिया। इस राजद्रोह से क्रोधित संभाजी महाराज ने अपने सामंतो को मृत्युदंड दिया। तथापि उनमें से एक बालाजी आवजी नामक सामंत की समाधि भी उन्होंने बनवाई, जिनकी माफ़ी का पत्र श्री छत्रपति संभाजी को उन सामंत की मृत्यु के पश्चात् मिला।
1683 में उन्होंने पुर्तगालियों को पराजित किया। इसी समय वह किसी राजकीय कारण से संगमेश्वर में रहे थे। जिस दिन वह रायगढ़ के लिए प्रस्थान करने वाले थे, उसी दिन कुछ ग्रामस्थों ने अपनी समस्या उन्हें बतानी चाही। जिसके चलते छत्रपति संभाजी महाराज ने अपने साथ केवल 200 सैनिक रखकर बाकी सेना को रायगढ़ भेज दिया। उसी समय उनके एक फितूर गणोजी शिर्के, जो कि उनकी पत्नी येसूबाई के भाई थे, जिनको उन्होंने वतनदारी देने से इन्कार किया था, मुगल सरदार मुकर्रब खान के साथ गुप्त रास्ते से 5000 की फौज के साथ वहां पहुंचा। यह वह रास्ता था, जो केवल मराठों को पता था । इसलिए संभाजी महाराज को कभी नहीं लगा था, कि शत्रु इस ओर से आ सकेगा। उन्होंने लड़ने का प्रयास किया, किन्तु इतनी बड़ी फौज के सामने 200 सैनिकों का प्रतिकार काम कर न पाया और अपने मित्र तथा एकमात्र सलाहकार कविकलश के साथ वह 1 फरवरी, 1689 को बंदी बना लिए गए।
औरंगजेब ने दोनों की जुबान कटवा दीं, आँखें निकाल दीं। 11 मार्च 1689 को हिन्दू नववर्ष के दिन दोनों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके हत्या कर दी। कहते हैं, कि हत्या से पूर्व औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी महाराज से कहा, कि मेरे 4 पुत्रों में से एक भी तुम्हारे जैसा होता तो सारा हिन्दुस्थान कब का मुगल सल्तनत में समाया होता। जब छत्रपति संभाजी महाराज के टुकड़े तुलापुर की नदी में फेंके गए, तो उस किनारे रहने वाले लोगों ने वो इकठ्ठा करके उन्हें सिलाकर जोड़ दिया, जिसके उपरान्त उनका विधिपूर्वक अंत्यसंस्कार किया गया।
छत्रपति संभाजी महाराज को पीड़ा देने का काम मुगलों ने औरंगजेब के कहने पर एक महीने तक चालू रखा। उनको महीने भर तरह-तरह की यातनाएँ देते रहे औरंगजेब ने उनके सामने अपना हिन्दू धर्म त्यागकर मुगलों का धर्म अपनाने की का प्रस्ताव रखा, परन्तु युगप्रवर्तक राजा छत्रपति शिवाजीराजे के बेटे और अपने धर्म पर पूरी निष्ठा और श्रध्दा रखने वाले संभाजीराजे ने यह मांग ठुकरा दी। अन्त में उनके शरीर के पैरों से लेकर गर्दन तक टुकड़े-टुकड़े करके मार डाला। इस प्रकार धर्म पर अडिग रहने वाले सम्भाजी मातृभूमि के लिए बलिदान हो गए।
ऐसा था हमारा छावा !!!
भीमा नदी के किनारे कोरेगाँव में वीर संभाजी महाराज ने अपना बलिदान दिया। उनके ही बलिदान से प्रेरणा लेकर उनके छोटे भाई राजाराम ने 20 वर्ष की आयु में ही छत्रपति की गद्दी संभाली और सारे योद्धाओं को इकट्ठा करना प्रारम्भ कर दिया। हालाँकि, कुछ ही दिनों बाद बहुत कम आयु में ही बीमारी के कारण उनकी मृत्यु हो गई। फिर राजाराम की पत्नी ताराबाई ने अपने छोटे बेटे को 'शिवाजी 2' नाम से गद्दी पर बिठाकर शासन करना प्रारम्भ किया। ताराबाई ने सैन्य रणनीति के गुर शिवाजी को देखकर सीखे थे। उनके ही संरक्षण में मराठाओं ने अपना खोया गौरव वापिस लेना प्रारम्भ कर दिया।
औरंगजेब को भान हो गया था, कि मराठा अब अजेय होते जा रहे हैं, क्योंकि उसने महारानी ताराबाई को हलके में लिया था। राजाराम की मृत्यु के बाद मुगलों ने एक-दूसरे को मिठाइयाँ खिलाई थीं। औरंगजेब को जब मराठा की बढ़ती शक्ति का भान हुआ, तब तक उसके दोनों पाँव कब्र में थे और वो लाचार हो गया था। संभाजी की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी और बेटे साहूजी को औरंगजेब ने कैद कर लिया। जब औरंगज़ेब की मौत हुई तो करीब 2 दशक बाद साहूजी महाराज रिहा हुए।
मुगलों ने उन्हें यूँ तो यह सोच कर रिहा किया था, कि वो दिल्ली के कहे अनुसार काम करेंगे, लेकिन साहूजी महाराज ने छत्रपति का पद सँभालते ही मुगलों को नाकों चने चबवाना शुरू कर दिया। वे अपने दादा छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे योद्धा साबित हुए और उन्होंने 40 वर्ष से भी अधिक समय तक राज किया बलिदानी संभाजी के पुत्र ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में भगवा मराठा ध्वज फहराया। आगे जाकर बाजीराव जैसे महान योद्धाओं ने इस साम्राज्य का सफल संचालन किया।
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