संघ की रीति-नीति
जैसे हर कुल को अपनी परम्पराएं होती है वैसे ही संघ की भी कुछ परम्परा निर्माण हुई हैं। इनको ही संघ की रीति-नीति कहा जाता है । परम्पराएं नियम नहीं फिर भी इनका संगठन के लिये नियमों से कम महत्व नहीं । परम्पराएं अनुभूत प्रयोगों से निर्मित होती हैं व अनुयायी उनको आगे बढ़ाते हैं । अतः परम्पराओं को समझना तथा उनको आगे बढ़ाना हमारा दायित्व है ।
- व्यक्ति निष्ठा नहीं तत्व निष्ठा ।
- संघ कार्य पारिवारिक है, तदनुरूप व्यवहार ।
- अपने को मिले कार्य को हर स्थिति में पूरा करना । जहाँ अपेक्षित वहाँ उपस्थित ।
- शुद्ध सात्विक प्रेम अपने कार्य का आधार (माननीय शेषाद्रि जी द्वारा पू. डा. साहब के समय के कार्यकर्ताओं से नागपुर में वार्ता के समय उस समय के स्वयंसेवकों द्वारा बताना कि 'डॉ. साहब की एक ही बात याद है कि वे हमें अत्याधिक प्रेम करते थे कहते हुए आँखों से आँसू निकल आना ।
- मर्यादित रूप से अपनी बात रखने की पद्धति ।
- गुणों की चर्चा सर्वत्र, न्यूनताओं व अवगुणों की चर्चा सार्वजनिक नहीं उनकी चर्चा ऊपर के सक्षम अधिकारी से करना । गुण प्रकटहि अवगुणहि दुराई ।
- जीवन-शैली, वेश भूषा, खान-पान तथा व्यय करने में सादगी व मितव्ययता ।
- समय पालन का स्वभाव ।
- स्वदेशी का आग्रह, स्वयं के व्यवहार में अपनाना ।
- कार्यक्रमों की शैली समय पालन, ताली न बजाना, बीच में से नहीं उठना, धूम्रपान न करना, आमन्त्रित बन्धुओं को आत्मीयता व आदर देना आदि ।
- स्वयंसेवक व समाज के सुख-दुःख में सम्मिलित होना । सहयोग एवं उदारता का भाव ।
- आडम्बर रहित व्यवस्थाएं ।
- मौन संस्कार की पद्धति । संघ आचरण के आधार पर चलता है ।
- सकारात्मक सोच (आधा गिलास खाली नहीं, अपितु आधा गिलास भरा है) ।
- शुचिता, पारदर्शिता एवं प्रमाणिकता । अन्तिम तथा सामूहिक निर्णय सभी को मान्य । निर्णय किसी एक का नहीं अपितु हम सबका ।
- अधिकारी की इच्छा ही आज्ञा । बहस में न पड़कर मन को जीतना ।
- पुरस्कार की चाह से नहीं कर्तव्य भाव से कार्य करना । स्वयं अधिकाधिक कार्य करना, श्रेय दूसरों को देना ।
- प्रवास काल में अधिकारियों को घरों में ठहराना तथा उचित व्यवस्था करना ।
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