हिन्दू दृष्टिकोण और आस्थाएँ


हिन्दू दृष्टिकोण और आस्थाएँ 

हिन्दू की विशेषता है, चिंतन में। हर विषय की जड़ तक जाकर विश्लेषण करना हमारी पद्धति है। बाहर के चमक-धमक से ज्यादा, सच्चाई को खोजने की दृष्टि है। इसलिए हिन्दू चिंतन सार्वकालिक और सार्वदेशिक है।

· ईश्वर एक, नाम अनेक। ‘एक सत् विप्राः बहुधा वदन्ति'।
· ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है।
· ईश्वर दण्ड नहीं देगा, वह रक्षा करता है।
· मनुष्य पापी नहीं है, उसमें दैवीअंश है।
· नर को नारायण ही बनना है और इसीलिए भारत में जन्म मिला है।
· नर का उद्धार स्वयं के हाथ में है। किसी दलाल की आवश्यकता नहीं। उद्दरेदात्मनात्मानम् ।
· संसार केवल मनुष्य के लिए नहीं अपितु सब 84 लाख जीवजन्तु के लिए भी है।
· प्रकृति मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है, लालसा को नहीं।
· जीवन एक चक्र जैसा घूमता रहता है, आजके ऊपर वाले कल नीचे आ जाने की संभावना है, नीचे वाले ऊपर जा सकते हैं।
· ‘‘पुनरपि जननं पुनरपि मरण'। देह मरता है, जीव नहीं। हर जीव अपने शरीर को त्याग करता है और दूसरा शरीर धारण करता है।
· देह नश्वर, आत्मा शाश्वत। शरीर के लिए जैसा कपड़ा वैसा ही आत्मा के लिए शरीर।
· सभी मानव समान नहीं हैं, सब में कुछ न कुछ विशेषता रहती है। किन्तु सब में एक ही आत्मा रहती है। All are not equal. But all is one.
· हिन्दुत्व किसी को बाहर नहीं फेंकता, सबको जोड़ता है। वह 'भी' वाद को मानता है, 'ही' वाद को नहीं मानता।
· करने वाले सभी कर्मों के फल निकलना जरूरी है। पुण्य और पाप ही कर्मफल हैं। दूसरों का भला करने पर पुण्य और बुरा करने पर पाप प्राप्त होता है। पुण्य करते रहना और पाप कभी नहीं करना। यदि पाप किया तो सुधारना चाहिए।
· कर्म के अनुरूप अगला जन्म मिलता है।
· स्त्री-पुरुष आपस में पूरक हैं। स्त्री आदरणीय है, गौरव का पात्र है। ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता:' जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता आनन्द से रहते हैं। भारत में नारी परम आदरणीय है, वह माता बननेवाली है। संन्यासी भी माँ को नमन करते हैं।
· नारी भोगवस्तु नहीं बननी चाहिए। वंचित या शोषित नहीं बननी चाहिए।
· स्नेह और अनुनय से सामाजिक परिवर्तन होता है, द्वेष और लड़ने से नहीं।
· श्रेष्ठ चिंतक ही परिवर्तन के माध्यम हैं, वे निमौंही हैं, निलाँभी हैं। समाज पर वे अपार प्रेम रखते हैं। किसी के प्रति उन में खास रुचि नहीं, और खुद के लिए वे लोग कुछ भी अपेक्षा नहीं रखते हैं। उनसे ही समय-समय पर आवश्यक परिवर्तन होता रहता है। वे ऋषि कहलाते हैं।
· जाति का नाश करने का कदम नहीं उठाना। उसका नाम तक नहीं लेते हुए, जाति को पार कर आगे बढ़ने का विवेक अर्जित करना चाहिए। हमें खुद जातियों में नहीं फंस जाना है।
· हर एक के कर्तव्य होते हैं। कर्तव्य का पालन करने पर अन्यों के अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं।
· कमजोर की रक्षा और पालनकर, उनको एक उत्तम जीवन प्रणाली प्राप्त कराना शेष जनों का धर्म है।
· धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगे। प्रकृति हमारी माता है, उस का पूजन करो। स्वयं भगवान बन जाना ही मानव जीवन का लक्ष्य होता है ‘‘आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय च' ‘सत्यं वद धर्म चर'। सत्य बोलना, धर्म के अनुसार चलना चाहिए।
· परस्त्री को माता मानना।
· परधन को मिट्टी समझना।
· सब जीवमात्र को अपने जैसा देखने।
· विश्व केवल मानवमात्र के लिए नहीं समस्त जीवमात्र के लिए भी है।
· हमें जितनी आवश्यकता है उतना मात्र उपयोग करें। अनावश्यक खर्च न करें।
· अन्यों का अच्छा किया तो पुण्य, बुरा किया तो पाप। पुण्य का काम करते रहें, पाप कर्म कभी न करें।
· चार पुरुषार्थ – जिनका सभी पालन करें – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
· ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरण' -जो पैदा होते हैं वे सब मरते हैं- जो मरते हैं वे सब फिर से जन्म लेते हैं।
· जैसा कर्म करते हैं, वैसा फल मिलता है। इसको टाल नहीं सकते।
· ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्'। अपनी उन्नति अपने हाथ में ही है।
· देकर खाना ही धर्म है। तेन त्यक्तेन भुज्जीथा:।
· हर मानव को पाँच यज्ञ करने हैं। देवयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, भूतयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ।
· मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव।
· हरा वृक्ष नहीं काटें।
· हम ऋषियों की सन्तान हैं।
· घर स्वर्ग है। उसको स्वर्ग जैसे ही रखें।
· गायत्री मंत्र अत्यन्त श्रेष्ठ मन्त्र है।
· गरीबी पाप नहीं है।
· स्वेच्छा दारिद्रय और अपनी आवश्यकताओं को कम करना यह एक श्रेष्ठ मानसिकता है।
· ‘‘त्यागाय संबृतार्थानां' रघुवंश के इस गुण की वृद्धि हो। न्यायमार्ग से खूब धनार्जना करें। धन को पुण्यकार्यों में खर्च करें। शतहस्तेन समाहर सहस्र हस्तेन विकिर।
· यदि हमारा पाँव किसी को छू जाए तो तुरन्त 'राम-राम' कहते हुए सिर झुकाकर उनके उस भाग को हाथ से स्पर्श करें और अपनी आँखों को छुएँ। यह पश्चाताप और प्रायश्चित का रूप है।
· मानव ईश्वर बन सकता है। बनना ही है। इसके लिए ही भारत में हमारा जन्म हुआ है।
· धन्यो गृहस्थाश्रम: यह सबको मालूम हो।

ऐसे सैकड़ों शाश्वत सत्य, हिन्दू चिंतन से प्राप्त व विकसित हुए। और हजारों वर्षों से इस इस समाज की संपत्ति बन गए। इन सत्यों के अनुरूप जिन्होंने अपना जीवन जिया, उन्होंने इनको, अगली पीढ़ी तक हस्तांतरित किया। इस तरह जो पीढ़ी से पीढ़ी तक चलती है, वही संस्कृति बन जाती है। इस देश में भले ही व्यक्ति अनपढ़ हों, परन्तु वह सुसंस्कारित रहा। उसमें संस्कृति की जड़ जम गयी। नतीजा ऐसा हुआ कि उसका व्यवहार अनुकरणीय रहा। बच्चों के लिए बुजुर्ग आदर्श हो गए। बच्चे बड़ों जैसा जीवन जीने लगे, वही परम्परा बन गयी। इस परम्परा को आगे बढ़ाने में 'परिवार' ने अह भूमिका निभायी।

परिवार में बुजुर्गों के चिंतन और व्यवहार ही पारिवारिक संस्कार बन गये। इन संस्कारों के परिणाम स्वरूप व्यक्ति-व्यक्ति का जीवन चमकने लगा। किन्तु आधुनिकता की आंधी में जैसे अन्य समाजों में शिथिलता आयी है हमारा समाज भी अपवाद नहीं रहा है। इसमें भी कमजोरियाँ घुस रही हैं। फिर भी आपसी सम्बन्ध और विश्वास सुदृढ़ रहने से आज की अवस्था में भी सिर्फ परिवार, समाज के सजीव अंग बन सकते हैं। यह एक अनुभव सिद्ध सत्य है। यही इतिहास का बोध है।

और नया पुराने